इंग्लैंड की फुटबॉल टीम ने यूरो 2020 के दौरान ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ को समर्थन देने के लिए ‘घुटनों पर बैठने’ का निर्णय लिया है. खेल जगत के तमाम महानायक और मनोरंजन जगत के सम्राट, जो संवेदनशील मुद्दों पर मौन रहना चुनते हैं, शायद इंग्लैंड की टीम से कुछ सीख ले सकते हैं.
दिलचस्प था कि यही मौका था जब अमेरिकी शिक्षा व्यवस्था में निहित नस्लवादी पूर्वाग्रहों का मसला सुर्खियां बना, जब यह हक़ीकत भी उजागर हुई कि किस तरह अमेरिका के आधिकारिक इतिहास में तुलसा के इस संगठित जनसंहार को गोया गायब कर दिया गया था. अगर तुलसा नस्लीय जनसंहार को एक सदी पूरी हुई तो हम यह भी देख सकते हैं कि आज़ादी के बाद के सबसे पहले जनसंहार के तौर पर कहे गए, यहांमें 42 महिलाएं एवं बच्चे मारे गए थे जब तमिलनाडु के तंजावुर जिले के इस क्षेत्रा में दलितों-शोषितों ने सम्मानजनक जिंदगी जीने का संकल्प लिया था और बेहतर मजदूरी के लिए हड़ताल की थी. इन हड़ताल की अगुआई कम्युनिस्ट पार्टी ने की थी.
इस तुलसा नस्लीय जनसंहार से बचे चंद लोग या उसके वास्तविक गवाहों ने, डर के मारे और यह सोचते हुए कि अगर उन्होंने कुछ कहा तो उन्हें भी हिंसा का शिकार होना पड़ सकता है, अपनी जुबां पर ताला लगाए रखना ही मुनासिब समझा और कह सकते हैं कि वह अनचाहे इस कत्लेआम को भुला दिए जाने की मुहिम में जुड़े रहे. हो सकता है कि किजेवनमनी के बारे में कुछ बोलना मनोरंजन उद्योग को इन सम्राटों के लिए मुफीद नहीं जान पड़ता हो, उन्हें अपनी फिल्म पिट जाने का ख़तरा सताता हो, लेकिन क्या उनसे इतनी उम्मीद की जा सकती है कि उनके उद्योग के नए लड़के-लड़कियां अगर कुछ आपत्तिजनक बात बोलें, दलितों और स्त्रियों को या धर्म के आधार पर भेदभाव झेल रहे लोगों के बारे में कुछ आपत्तिजनक बोलें, तो वह उन्हें उलाहना दें, वह उन्हें डांट दें.
क्या इसकी वजह यही है कि वह खुद भी ऐसे मूल्यों को माननेवाले हैं या उन्हें अपने नैतिक सापेक्षतावाद से कोई गुरेज नहीं है.
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