संवाद: परंपरा का अतिवाद

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मनुष्य अपने स्वभाव की मनोभूमि पर परंपरा को अपनाता और त्यागता या उसमें समय और स्थिति के अनुसार परिवर्तन परिवर्द्धन करता रहा है। उसे किसी जड़ता की जड़ से बांध कर नहीं रखा जा सकता। वह विचार भी है, आचरण भी है, वह स्मृति भी है इतिहास भी है, वह देशकाल भी है और देशकाल का अतिक्रमण भी।

अक्सर अपनी परंपराओं, अपनी जड़ों से कटने का आरोप लगा कर किसी को कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है। उसकी रचनात्मकता को प्रश्नांकित किया जाने लगता है। पर परंपरा कोई ठोस चीज या तय पैमाना तो है नहीं कि जिसे सामने रख कर कहा जा सके कि उसे किस रूप में अपनाया जा सकता है। परंपराएं लोकजीवन के ज्ञान, कर्म और आचरण से निर्मित होती हैं। मनुष्य ही उनका निर्माता है और मनुष्य ही उनका पालक, पोषक और प्रयोगकर्ता है। परंपरा किसी जड़ रूढ़ि का नाम नहीं है। वह एक ऐसी सतत प्रवहमान गतिशील, परिवर्तन-गामी और सांस्कृतिक धारा है,...

अलंकार, पिंगल शास्त्र हों या तत्कालीन समाज में घनीभूत प्रचलित परंपरा हो, साहित्य ने परंपरा का जड़ता से उन्मोचन भी किया है और कलाओं ने अतीत के आग्रह का अतिक्रमण भी किया है। साहित्य में अगर संस्कृत के वाङं्मय का आधार हटा कर देखें, तो वीर काव्य रचा गया, भक्ति काव्य रचा गया, खरी बोली के मानक रूप में खड़ी हो जाने पर अनेक विधाओं में कल्पनाशील उत्कृष्ट काव्य और गद्य की रचना की गई। साहित्यकार न वीर काव्य की गर्जना से बंधा रह सका, न भक्तिकाल के भजनों से, न रीतिकाल की शृंगार रीतियों से, न सूफियों के मादन...

 

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