श्रम कानूनों में सुधार: क्या सभी बुराइयों के लिए सिर्फ कड़े कानून जिम्मेदार हैं?

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पढ़िए श्रम कानूनों पर ये ख़ास विश्लेषण

नए अध्ययन में सामने आया है कि कड़े और जटिल कानूनों की मौजूदगी में भी संगठित क्षेत्र और लघु उद्यमों में कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम में बढ़ोत्तरी हुई है.

उनका कहना है कि श्रम कानून अब उतने जटिल नहीं रहे, तब भी कॉन्ट्रैक्ट वर्कर की संख्या तेजी से बढ़ी. इसके पक्ष में वे तर्क पेश करती हैं कि गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और महाराष्ट्र ने हाल के वर्षों में अपने श्रम कानूनों में मालिकों की सहूलियत के लिहाज से सुधार किया है. इसके बाद इन राज्यों में कॉन्ट्रैक्ट वर्करों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ गई. दूसरा, श्रम प्रधान उद्योगों के बजाय पूंजी प्रधान उद्योगों में कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स की संख्या बढ़ी, जबकि जटिल कानूनों की वजह से ऐसा नहीं होना चाहिए था.

नियमों के घटिया क्रियान्वयन का एक और उदाहरण देते हुए वे कहते हैं कि जिन फैक्ट्रियों में 100 या इससे ज्यादा कर्मी हैं, इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट1947 के तहत छंटनी या कंपनी बंद करने के लिए सरकार की पूर्व अनुमति चाहिए होती है. 1997-2003 में संगठित क्षेत्र के हर 6 में से 1 वर्कर ने अपनी नौकरी गवां दी और यह नियम सिर्फ कागजों पर बना रहा. इसके बाद 2008-09 में आई मंदी के दौरान भी संगठित क्षेत्र में भारी संख्या में लोगों ने नौ​करियां गंवाई.

आईआईटी दिल्ली के प्रो. जयन जोश थॉमस भी अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के 2019 के अध्ययन में ऐसे ही सवाल उठाते हैं. वे लिखते हैं कि मालिकों के पास श्रम कानूनों को ठेंगा दिखाने के कई रास्ते हैं, जबकि सरकारें उनका क्रियान्वयन कराने की इच्छुक नहीं दिखती.

 

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ठीकेदार और बड़े कर्मचारीयों का मिलीभगत भी जिम्मेदार है। कड़े कानून के साथ इन पर ईमानदार अधिकारियों के द्वारा निरंतर छापे की जरूरत है...

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