शिवकुटी लाल वर्मा: फैक्ट्रियों, मिलों की इमारतों के बीच किसी झोपड़पट्टी की ख़ाली ज़मीन हूं मैं

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एक ऐसा पाठ हूं मैंगुलामी के दिनों में जिसकी सबको जरूरत थीफैक्ट्रियों, मिलों और उद्योगपतियों की इमारतों के बीचजिसे एक अधूरी पंक्ति-सा बार-बार काटा गया1937 की पहली जुलाई को इलाहाबाद के चाहचंद मुहल्ले में पैदा हुए हिन्दी की नई कविता के सर्वथा अलग तरह के कवि शिवकुटी लाल वर्मा के रहते उनसे उनकी ‘अभाव’ शीर्षक कविता की ये पंक्तियां सुनाने का बारम्बार आग्रह करने वालों को भी इस स्थिति का शायद ही आभास रहा हो.

उनके निजी जीवन की बात करें तो वे लंबे समय तक इलाहाबाद में ही महालेखा परीक्षक के कार्यालय में कार्यरत रहे. 1994 में सुपरवाइजर पद से सेवानिवृत्त होने के बाद वे शहर के चकमिरातुल स्थित जगमल के हाते में रहने लगे थे. उनकी पहली कविता 1956 में ‘परिमल’ के उनके साथी साहित्यकार लक्ष्मीकांत वर्मा ने ‘निकष-2’ में प्रकाशित की और लंबे अंतराल के बाद उनका चौथा काव्य संग्रह ‘सितारे साम्राज्यवादी नहीं होते’ छपकर आया तो वे अस्पताल में भर्ती होकर उसके आखिरी होने की मुनादी-सी कर रहे थे.

कम ही लोग जानते हैं कि उन्होंने शमशेर बहादुर सिंह की तर्ज पर कुछ गजलें भी रची हैं, जिनमें से एक की यह पंक्ति वे खुद के संदर्भ बार बार दोहराते रहते थे- मैं उसी बेचैन सच की उम्र बन-बनकर जिया हूं. सौभाग्य से उन्हें लक्ष्मीकांत वर्मा, दूधनाथ सिंह, मलयज और श्रीराम वर्मा जैसे आलोचक व समीक्षक मिले, जिन्होंने समय-समय पर उनके कविकर्म का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन कर उनके साहित्यिक अवदान को रेखांकित किया. उस पीड़ा को भी जिससे सराबोर होकर उन्होंने अपनी एक कविता में वह सब महसूस किया, जिसे देश की दलित, पीड़ित व शोषित जनता आज तक महसूस करती आती है:मेरे इस देश में कातिल तो बहुत मिलते हैंऔर महसूस किया तो सिर्फ महसूस करके नहीं रह गए.

 

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