वह एक उजला दिन थाः निर्मल वर्मा की पुण्यतिथि पर उपन्यास 'वे दिन' के अंश

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उनकी घुमक्कड़ ज़िंदगी की तरह उनके शब्दों के भी पर लगे थे. लिखते तो फूल झड़ते, बोलते तो शहद घुलता. आधुनिक हिंदी के सर्वाधिक चर्चित नाम निर्मल वर्मा को SahityaAajTak19 ने किया यों याद

हिंदी कथा क्षेत्र में आधुनिकता बोध और विदेशी तानेबाने व परिवेश पर काव्यमय गद्य लिखने में निर्मल वर्मा का कोई शानी नहीं है. वह भारतीय मनीषा की उस उज्ज्वल परम्परा के प्रतीक-पुरुष हैं, जिनके जीवन में कर्म, चिन्तन और आस्था के बीच कोई फाँक नहीं रह जाती. कला का मर्म जीवन का सत्य बन जाता है और आस्था की चुनौती जीवन की कसौटी.

वह नई कहानी आंदोलन के ध्वजवाहकों में शुमार थे. उनका जन्म 3 अप्रैल 1929 को शिमला में हुआ और निधन 25 अक्तूबर 2005 को नई दिल्ली में. कहा जाता है कि उनके समकालीनों और बाद के रचनाकारों में शायद ही कोई ऐसा है, जिसने निर्मल वर्मा से कुछ न लिया हो. वह एक ऐसे लेखक मनीषी थे, जो अपने होने की कीमत देता भी है और मांगता भी है. अपने जीवनकाल में गलत समझे जाना उसकी नियति है और उससे बेदाग उबर आना उसका पुरस्कार. निर्मल वर्मा के हिस्से में भी ये दोनों बखूबी आये.

आज उनकी पुण्यतिथि पर हम वाणी प्रकाशन से छपे उनके उपन्यास 'वे दिन' का अंश साहित्य आजतक के पाठकों के लिए दे रहे. इस उपन्यास के पात्र, निर्मल वर्मा के अन्य कथा-चरित्रों की तरह सबसे पहले व्यक्ति हैं. अगर दूसरे शब्दों में कहें तो मनुष्य के तौर पर वे कहीं भी कम नहीं, बल्कि बढ़कर हैं, किसी भी मानवीय समाज के लिए उनकी मौजूदगी अपेक्षित मानी जाएगी. उनकी पीड़ा और उस पीड़ा को पहचानने, अंगीकार करने की उनकी इच्छा और क्षमता उन्हें हमारे मौजूदा असहिष्णु समाज के लिए मूल्यवान बनाती है.

हम इन्हें 'झूठे बसन्त' के दिन कहा करते थे. वे ज़्यादा टिकते नहीं थे. लेकिन जब वे आते थे, लोग आतुरता से उन्हें निचोड़ लेते थे- आखिरी बूंद तक. शहर की सड़कें लोगों से भर जातीं. एम्बेंकट की बेंचों पर बूढ़ी औरतें, अपने-अपने पैरम्बुलेटर के समय ऊँघती रहतीं. तब सहसा मुझे वह आवाज़ सुनाई दी थी. आवाज़ भी नहीं- महज़ एक सरसराहट- बर्फ़ और धूप में दबी हुई. मुझे हमेशा यह आवाज़ अचानक अकेले में पकड़ लेती थी, या शायद जब मैं अकेला होता था, तभी उसे सुन पाता था. वह दरिया की ओर से आती थी- किन्तु वह दरिया की ही आवाज़ है, इसमें मुझे सन्देह था. वह सिर्फ़ हवा हो सकती थी- तीख़ी सफ़ेद और आकारहीन. या सिर्फ़ शहर का शोर, जो पुराने मकानों के बीच आते ही अपना स्वर बदल देता था.

 

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