लखीमपुर खीरी हिंसा: जीने-मरने के सवालों पर नहीं, तो कब की जानी चाहिए राजनीति

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लखीमपुर खीरी हिंसा: जीने-मरने के सवालों पर नहीं, तो कब की जानी चाहिए राजनीति LakhimpurKheriViolence Govrnment Opposition लखीमपुरखीरीहिंसा सरकार विपक्ष

लखीमपुर खीरी के तिकुनिया में गत तीन अक्टूबर को जो कुछ हुआ, उसे लेकर भारतीय जनता पार्टी के विरोधी दलों की सक्रियता के बाद कई हलकों में यह सवाल बार-बार और कुछ ज्यादा ही जोर देकर पूछा जाने लगा है कि वे इस मसले पर इतनी राजनीति क्यों कर रहे हैं?

राहुल ने इसका जवाब देते हुए कम से कम दो काबिल-ए-गौर बातें कहीं. पहली: राजनीति लोकतंत्र में नहीं तो और किस सत्ता व्यवस्था में की जाएगी? और दूसरी: ऐसे सवाल पूछने वाले पत्रकारों को खुद भी आईना देखना और समझना चाहिए कि राजनीति करने का अपराध तानाशाही में वर्ज्य होता है, लोकतंत्र में नहीं और किसी अत्याचार के पीड़ितों के पक्ष में सरकार पर दबाव बनाना राजनीति करना है तो पत्रकारों को भी उसे बरतना चाहिए, क्योंकि यह उनके कर्तव्य का हिस्सा है.

यहां ‘प्रजा’ और ‘नागरिक’ के बीच के बुनियादी फर्क को गांठ बांध लेना जरूरी है. प्रजा हमेशा अपने सारे संसार को, यहां तक कि सपनों को भी, अपने राजा की आंख से देखने और राजाज्ञाओं का पालन करने को अभिशप्त होती है, जबकि नागरिक राज्य के स्वरूप और इच्छाओं के निर्माण में भागीदार हुआ करते हैं. निस्संदेह, इतनी गर्हित कि उसके लिए ‘वेश्या’ जैसे विशेषण इस्तेमाल किये जाते थे.

तब भला यही कैसे पूछें कि कहीं उन लोगों ने उसे जानबूझकर तो निन्द्य नहीं बनाए रखा, जो समय के पहिए को उल्टा घुमाकर हमें फिर से राजाओं व रानियों के युग में ले जाना या लोकतांत्रिक महाप्रभुओं को उनके जैसा ही कुटिल व षड्यंत्रकारी बनाना चाहते हैं? ताकि हम राजनीति से घृणा के युग में ही जीते रहें और वे उसके मजे लूटते रहें!

 

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