रहने को कितनी जगह चाहिए: सह-आवास पर ध्यान देने का वक्त | DW | 21.01.2022

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लगातार घट रही है जगह, तो क्या रहने के तौर-तरीके भी बदलेंगे

जर्मनी के पर्यावरण मंत्रालय के अनुसार यहां निर्माण परियोजनाएं हर रोज 52 हेक्टेयर जमीन निगल रही हैं. ये फुटबॉल के 73 मैदानों के बराबर है. इन परियोजनाओं का एक बड़ा हिस्सा आवासों के साथ साथ उद्योग और वाणिज्य ठिकानों के निर्माण पर केंद्रित है. लगातार निर्माण, पर्यावरण पर भी असर डालता है- वो वन्यजीव रिहाइश, कृषि योग्य मिट्टी, कार्बन भंडारण और बाढ़ के पानी की निकासी को भी प्रभावित कर सकता है.

ग्रीन फेंस पॉडकास्ट पर उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया,"पिछले 50 साल में हमने अपनी निजी स्पेस को दोगुना किया है. हमें अभी भी बड़ी जगहों का ही ख्याल आता है, परिवार के लिए निर्माण करने का, अगर बच्चे हैं तो आमतौर पर 20 साल के लिए ही ये ठिकाना इस्तेमाल होता है. और फिर सब इधर-उधर चले जाते हैं और कुछ और करने लगते हैं. मैं नहीं समझती कि यह भविष्य के लिए बहुत आकर्षक है.”

यूरोपीय औसत की अपेक्षा जर्मनों के पास थोड़ा ज्यादा लिविंग स्पेस होती है. नाइजीरिया के लोगों की स्पेस का ये करीब आठ गुना ज्यादा है. उधर अमेरिका में यूरोपीय लोगों की स्पेस की करीब दोगुना स्पेस का दावा किया जाता है.कार्बन उत्सर्जन पर काबू रखते हुए, दुनिया की बढ़ती हुई आबादी के लिए पर्याप्त आवास व्यवस्था मुहैया कराना आने वाले दशकों में एक बहुत बड़ी चुनौती बनने वाला है.

जारविस कहती हैं,"मैं भविष्य को इस तरह देखती हूं कि वहां शेयरिंग का बुनियादी ढांचा होगा ना कि निजी स्वामित्व. जाहिर तौर पर सस्ती रिहाइश और पारिस्थितिकीय टिकाऊपन जैसी जरूरत को भी वहीं जगह मिलेगी.” वह कहती हैं कि सामूहिक रिहाइश उतनी ही पुरानी है जितना कि आवासीय व्यवस्था फिर भी आज इसमें एक नया उभार तो देखा ही जा रहा है.हाल के दशकों में जिस एक और प्रवृत्ति ने ध्यान खींचा है वो है- टाइनी हाउस मूवमेंट यानी लघु आवास आंदोलन. ये आंशिक रूप से पर्यावरणीय चिंताओं और सस्ते आवास की जरूरत से निकला है.

 

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