बात 1988 की है. उस समय किशोर कुणाल गुजरात लौटे थे. मन मोहन सिंह वहां डीजीपी थे. कुणाल की ईमानदारी के कायल डीजीपी ने उनसे भ्रष्टाचार के कई प्रकारों की व्याख्या करते हुए कहा था,"जहां-जहां शराबबंदी है, वहां-वहां अधिकारियों की चांदी है. उन पर धन की जो बारिश होती है, वह सावन-भादों को भी पीछे छोड़ दे. इस बरसात की खूबसूरती है कि यह मौसम पर आश्रित नहीं है. कभी आद्रा नक्षत्र की बौछार तो कभी हथिया की मूसलाधार." बरसों बाद भी मन मोहन सिंह की उक्ति बिहार में सौ फीसद कारगर साबित हो रही है.
पूर्व आइपीएस अधिकारी ने अपनी पुस्तक में तक्षकों के तीन प्रकार बताए हैं- खूंखार अपराधी, घूसखोर नेता व बिके हुए अधिकारी. इस पुस्तक से एक से बढ़कर एक तक्षकों के बारे में जानकर पता चलता है कि आठवें व नौंवे दशक में बिहार समेत कुछ अन्य राज्यों के कुछ सत्ताधारी राजनेताओं, अफसरों ने कैसे कानून का शासन ध्वस्त करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. इनकी करतूतों से यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि ये अपने ही देश के हैं या फिर कोई बाहरी हमलावर.
हत्या के चार फरार गुनहगारों की पैरवी के क्रम में देसाई साहब ने कुणाल से कहा,"पगार तो सरकार को दिखाने के लिए है. परिवार का दारोमदार तो थानेदार बंधुओं पर रहता है. सारे व्यय-व्यापार का जुगाड़ तो वही करते हैं. वेतन तो सूखा साग है, ऊपरी कमाई है मलाई." अखबार की खबर पर यूडी केस दर्ज कर कुणाल ने कब्रिस्तान से लाश को निकालकर पोस्टमॉर्टम करवाया. अनुसंधान की इतनी तीव्र गति किसी ने देखी या सोची नहीं थी. इस घटना में तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष के पुत्र रघुवर झा समेत कई छोटे-बड़े कांग्रेसी नेताओं का नाम आ रहा था.भारत और रिश्वतखोर हुआ
अदालत को दिए बयान में भी उन्होंने कहा कि बॉबी को कब और किसने जहर दिया था. कुणाल के अनुसंधान से यह साबित हो गया था कि श्वेतनिशा की हत्या षड्यंत्र रचकर की गई थी. इसके लिए मुख्य सचिव ने उन्हें बधाई भी दी थी. किंतु इसी बीच दो मंत्री और 40 विधायक मुख्यमंत्री डॉ. मिश्र के पास पहुंचे और उन्हें धमकी दी कि अगर केस तत्काल सीबीआई को ट्रांसफर नहीं किया गया तो वे उनकी सरकार गिरा देंगे. मुख्यमंत्री बाध्य हो गए और केस सीबीआई को चला गया.
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