बदलाव के बावजूद

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कभी-कभी बुजुर्ग किसी बात पर झल्ला जाते हैं, तो छोटे उसी बात को लेकर उनकी खुशामद करते हैं। पहले जब किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार होती थी, तो बुजुर्ग उसमें बढ़-चढ़ कर प्रतिनिधित्व करते थे, पर अब युवा वर्ग उनकी अगुआई को आंख मूंद कर स्वीकार नहीं करना चाहते। वे अपने मन के अनुसार ही सारा कार्यक्रम आयोजित करना चाहते हैं। शादी-ब्याह का मामला हो या घर के छोटे-मोटे आयोजन, सबमें भोजन, सजावट, पहनावा आदि को लेकर सारा फैसला युवा वर्ग करना चाहता है। अदब और लिहाज की परंपरा और मान-मर्यादा का जिस...

पहले के समय में जिस हिसाब से खपरैल के मकान हुआ करते थे, वह भवन निर्माण की परिपाटी अब धीरे-धीरे लगभग समाप्त हो गई है। गिट््टी, बालू मोरंग का चलन जब नहीं था, तब मिट््टी और कच्चे गारे से घर बनता था। बड़े-बड़े पत्थर लगते थे। पर अब तो बहुमंजिला इमारत बनाने का पहले से ही ठेका हो जाता है। बड़े-बड़े भवन निर्माता एक निश्चित समय के अंदर घर बनाने में जुट जाते थे। निश्चित रूप से आज के जमाने में भवनों की मजबूती वैसी नहीं होती, जैसी मजबूती पहले के मकानों में हुआ करती थी। पूरे इलाके में एक ही मिस्त्री हुआ करता...

आज जिसे शहरी लोग ब्राउन राइस कहते हैं, उसे देहात के लोग अपने घर के बाहर अदहन जला कर तैयार करते थे और उसी पर बगल में भोजन भी पका लेते थे। ठंडी के दिनों में तेज आंच से बड़ी राहत मिलती थी। अब उस तरह खाने-पीने की चीजें तैयार नहीं की जातीं। यही वजह है कि उचित पोषक तत्त्व हमारे शरीर में उतनी मात्रा में नहीं जा पा रहे हैं, जितनी उस देहाती भोजन से जाया करते थे। हर मौसम में पालिश किए हुए खाद्य पदार्थों और हाइब्रिड बीजों का चलन बढ़ गया है। सब्जियां, फल, मिष्ठान्न में सबसे ज्यादा मिलावट है। ये सभी हमारे...

जब खेत की जुताई हो जाती थी, तो अनाज बोने के बाद उसमें पाटा फिराया जाता था। पाटा फिराते समय हम उसके ऊपर एक रस्सी पकड़ कर लटकते थे और पूरे खेत पर सुबह से शाम तक घूमते थे। मिट््टी और कीचड़ की महक बहुत आनंदित करती थी। मगर शहरी जीवन, बहुराष्ट्रीय कंपनियों की संस्कृति में जो मंहगे इत्र का चलन व्यापक है, वह वहां गौण हो जाता है। महानगरों में तो मिट््टी की महक पाने के लिए अब संपन्न लोगों के बीच फार्महाउस संस्कृति विकसित हो रही है। गांवों में बिना जूते-चप्पल के खेत-खलिहान, जुताई आदि के सारे काम कर लिए जाते...

समाज में अनेक जातियों के लोग रहते हैं, उनकी विचारधारा अलग होती है। फिर भी वहां शहरों जैसा वैचारिक प्रदूषण और सन्नाटा नहीं रहता। गांवों में चौपाल अब भी लगती है, दो-चार लड़के क्रिकेट खेलते हुए, दो-चार बुजुर्ग गमछा बांधे अक्सर मिल ही जाते हैं। गांवों में अब भी पुरोहितों का सम्मान है। उनके झोले और साइकिल की घंटी लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती है। शहरों में कामकाजी वर्ग के पास इतनी फुरसत नहीं है कि वह बड़े, बूढ़े, बुजुर्गों के पास बैठने का समय दे पाए। शहरों में कभी न खत्म होने वाली रफ्तार है, दिखावटीपन...

 

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