जिस गांव में यह उत्सव होता है, वह भारत और नेपाल की सीमा पर स्थित है. इसलिए दोनों देशों के हजारों श्रद्धालु यहां जुटते हैं. दो दिन तक चलने वाले इस उत्सव के एक आयोजक रामचंद्र शाह का कहना है कि यहां पर भैंसों, बकरियों, मुर्गों, सूअरों और सफेद चूहों की बलि दी जाती है. उत्सव के पहले दिन सात हजार भैसों की बलि दी जा सकती है. इसके अगले दिन बुधवार को भी दसियों हजार पशुओं की भेंट चढ़ाई जाएगी.
पशु अधिकार कार्यकर्ता यहां होने वाली हजारों पशुओं की बलि का विरोध करते हैं. उनका कहना है कि 2009 में इस उत्सव में पांच लाख जानवरों की बलि दी गई थी जबकि 2015 में यह आंकड़ा घट कर तीस हजार के आसपास रह गया. लेकिन अब भी हजारों की संख्या में बेजुबानों की बलि पशु अधिकार कार्यकर्ताओं के लिए बड़ी चिंता का विषय है.इंडोनेशिया में कई ऐसी फैक्ट्रियां हैं जहां सांपों का चमड़ा तैयार होता है जबकि कई लोग अपने घरों में भी यह काम करते हैं.
इसके बाद तेज धार वाले चाकू और तलवार लिए 200 कसाई फुटबॉल स्टेडियम जितने बड़े मैदान में दाखिल हुए जहां पर हजारों भैसों को रखा गया था. इस नजारे को देखने के लिए उत्साहित श्रद्धालु पेड़ों पर चढ़े हुए थे. आयोजन समिति से जुड़े बीरेंद्र प्रसाद यादव ने कहा,"हमने इसका समर्थन ना करने की कोशिश की लेकिन लोगों को इस परंपरा में विश्वास है और वे यहां पर बलि के लिए अपने जानवर लेकर आते हैं."
अधिकारियों और पशु अधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि पशु बलि की इस परंपरा को रोका तो नहीं जा सकता है, लेकिन इसे लेकर जागरूकता फैलाने के अभियानों का यह असर हुआ है कि यहां मारे जाने वाले जानवरों की संख्या में कमी आई है. एनिमल इक्वलिटी इंडिया की अमृता उबाले कहती हैं,"मंदिर समिति सरकार और जागरूकता अभियानों से हिली हुई है. यहां बलि किए जाने वाले जानवरों की संख्या में कमी आ रही है."भारत में उल्लू की 32 प्रजातियां हैं. सभी 1972 के वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन एक्ट के तहत आती हैं.
नेपाल में Peta जैसी संस्था नहीं है?
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