जलवायु बैठकों की आखिर जरूरत ही क्या है? | DW | 22.10.2021

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ग्रेटा थुनबर्ग ने हाल में द गार्जियन अखबार को बताया, 'पिछले कुछ सालों से वास्तव में कुछ नहीं बदला है. हम चाहे जितनी मर्जी कॉप कर लें लेकिन हकीकत में उनसे कुछ निकलने वाला नहीं.” COP26 COP26Glasgow ClimateAction

इसीलिए कॉप में लक्ष्यों को लेकर वार्ताएं इतनी जरूरी और मूल्यवान हैं. पेरिस समझौते पर दस्तखत करने वाले हर देश को वादा करना था, इसे राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान, एनडीसी भी कहा गया कि अपने उत्सर्जनों को कम करने के लिए उनके पास क्या योजना है, कैसे कम करेंगे.

समय के साथ उन्हें इन लक्ष्यों को और महत्वाकांक्षी बनाना होगा यानी उन्हें और करीब लाना होगा. इस प्रक्रिया को रैचिट प्रविधि भी कहा जाता है. इस तरह हर पांच साल में देशो को अपने नये अपडेटड योगदानों का ब्यौरा जमा करना होगा जिससे ये पता चल पाए कि 2015 मे किए गए वादों को वे किस तरह पूरा करना चाहते हैं. रीफिश कहते हैं,"2015 और 2020 के दरम्यान हम इन लक्ष्यों में महत्त्वपूर्ण सुधार आता देख चुके हैं. डेढ़ डिग्री सेल्सियस के हिसाब से तो ये पर्याप्त नहीं हैं लेकिन उल्लेखनीय सुधार तो हैं ही. यह पहला स्पष्ट संकेत है कि कोई चीज काम तो कर रही है.”

कई आलोचक जो समस्या देखते हैं वो ये है कि देश अगर अपने लक्ष्य हासिल न कर पाएं तो उन पर किसी किस्म के वित्तीय या कानूनी प्रतिबंध नहीं हैं. रीफिश कहते हैं ये प्रतिबंध बल्कि जन दबाव से ही आते हैं क्योंकि देशों को अपनी साख भी बचानी होती है. वो कहते हैं,"इस तरह ये पूरा मामला असल में सिविल सोसायटी, युवाओं के आंदोलन और अकादमिक जगत की भूमिका तक आ जाता है कि वे लोग ही अपने अपने देशों में सरकार से जवाब तलब करें. जाहिर है कुछ देशों की अपेक्षा कुछ अन्य देशों में ये तरीका बेहतर काम करता है.

 

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वो जो चाहतीं हैं उस पर सरकारें अपनी क्षमताओं में कार्य पहले से कर रहीं हैं, भले ही वे राजनैतिक नीतियों, दुनियां भर से चंदा उगाहने की नीतियों के साथ हैं। COP26 विकासशील देशों की पर्यावरणीय दशाओं में आयातित नीतियों, निवासियों की जीवनशैली से पर्यावरण को बचाना प्रमुखता में नहीं है?

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