गुजरे हुए दौर की कुछ यादें कभी धुंधली नहीं पड़ती हैं. वो तारीख 31 अक्टूबर थी और साल था 1984. गुनगुनी धूप में क्रिकेट खेलकर हमारी बाल मंडली अपने घरों को लौट रही थी. रास्ते में हमें जगह-जगह लोगों की ऐसी झुंड नजर आया जो आमतौर पर सड़कों पर इस तरह इकट्ठा नहीं होता है. अपने-अपने घरों से निकले सवाल पूछते और अटकले लगाते बहुत से स्तब्ध चेहरे. थोड़ी देर बाद घर और दुकानों के बाहर काले झंडे लगाए जाने लगे. खबर अब पक्की हो चुकी थी.
लेकिन उनके राजनीतिक जीवन का दूसरा पक्ष इससे एकदम अलग है. भारत की राजनीति की कुछ सबसे कुख्यात कारगुजारियां उनके नाम के साथ इस तरह दर्ज हैं कि उन्हे किसी भी हालत में भुलाया नहीं जा सकता. इंदिरा प्रियदर्शनी अचानक एक ऐसी निर्दयी राजनेता के रूप में बदल जाती हैं, जिसने सत्ता मोह में सारी हदें तोड़ दी और अहिंसक क्रांति से आजादी हासिल करने वाले भारत जैसे देश को तानाशाही वाले निजाम में बदल दिया. विरोधियों का बर्बर दमन और अपने ही नागरिकों से उनके मौलिक अधिकार छीनने का अपयश उनके खाते में दर्ज है.
कामराज और उनके समर्थक गैर-हिंदी भाषी राज्यों के कांग्रेस मुख्यमंत्रियों के समूह जिसे `सिंडिकेट’ कहा जाता था, को लगता था कि इंदिरा गांधी को अपनी शर्तों के मुताबिक चला पाना उनके लिए आसान होगा. लेकिन भ्रम बहुत तेजी से दूर होने लगा. 1969 इंदिरा गांधी के राजनीतिक करियर का सबसे बड़ा टर्निंग पॉइंट साबित हुआ.1969 में इंदिरा गांधी ने अपने राजनीतिक विरोधी मोरारजी देसाई को वित्त मंत्री के पद से हटा दिया और देश के 14 प्रमुख बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया.
यह दौर इंदिरा गांधी के खाते में कई और बड़ी कामयाबियां आईं. देशी रियासतों को दिए जाने वाले पेंशन यानी प्रिवी पर्स का उन्होंने खात्मा कर दिया. सिक्किम का भारत में विलय हुआ. 1974 के पोखरण परमाणु परीक्षण के साथ भारत एक एटमी ताकत बन गया. शीत-युद्ध के दौर में इंदिरा गांधी तीसरी दुनिया की सबसे ताकतवर राजनेता के तौर पर उभरीं जिन्हें अमेरिका भी गंभीरता से लेने पर मजबूर हुआ.
हालांकि, जनता पार्टी के प्रयोग के नाकाम होने के बाद 1980 में इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी हो गई. लेकिन सच ये है कि 1975 के बाद के घटनाक्रम ने राजनीतिक विश्लेषकों को इंदिरा गांधी को एक अलग नजरिए से देखने को मजबूर कर दिया. निर्णय लेने में सक्षम और बेहद ताकतवर राजनेता की छवि से उलट इंदिरा गांधी की शख्सियत का दूसरा पहलू यह है कि उन्होंने देश में व्यक्तिवादी राजनीति का सूत्रपात किया. नेहरू ने हमेशा अपने विरोधियों को सम्मान दिया. श्यामाप्रसाद मुखर्जी और बी.आर.
इंदिरा गांधी की बराबरी कोई ना ही करें तो बढ़िया,एक मुल्ले को अपना दुल्ला बनाया, शर्मनाक
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