‘रूबरू’, ‘इश्तेहार’, ‘ज़ाहिर’, ‘राज़ीनामा’, ‘मुज़रिम’, ‘गुफ़्तगू’, ‘संगीन अपराध’ और ‘तफ़्तीश’- ये कुछ शब्द हैं, जिन्हें दिल्ली हाईकोर्ट ने 383 शब्दों की उस सूची में रखा है जिन्हें अब अदालती भाषा औरअगस्त 2019 में हाईकोर्ट ने पुलिस आयुक्त से पूछा था कि अब तक उर्दू और फ़ारसी के शब्दों का इस्तेमाल प्राथमिकी दर्ज करने की भाषा में क्यों होता है, जबकि शिकायतकर्ता इसका इस्तेमाल नहीं करते.
यही तो वे तर्क थे जिन्होंने उन्नीसवीं सदी के भारत में ‘हिन्दवी’, ‘भाखा’ या ‘हिन्दोस्तानी’ कहलाने वाली खड़ी बोली हिंदी के दो टुकड़े कर दिए थे.वह भी कचहरी का ही झगड़ा था जब फ़ारसी भाषा को कचहरी से हटाते हुए आम लोगों के बीच बोली और समझी जाने वाली भाषा के रूप में उर्दू को अपनाया गया था. वह उर्दू आज की उर्दू न थी.
इस तरह अगर अदालत की लिपि फ़ारसी बनी रहती तो खड़ी बोली के वहां लागू हो जाने पर भी यह नौकरियां हिंदुओं को नहीं मिल पाती. इसलिए हिंदू मध्यवर्ग ने ‘गोरक्षा आंदोलन’ के साथ ‘नागरी आंदोलन’ को जोड़ते हुए एक लंबा आंदोलन चलाया. ऐसे फ़ारसी शब्द, जो उन्नीसवीं सदी की हिंदी में आम बोलचाल के शब्द हुआ करते थे, आज के हिंदी पाठक को अनोखे और बाहरी लग सकते हैं क्योंकि उस वक़्त उन्हें उसी तरह बाहर का रास्ता दिखाया गया जैसे यह मुक़दमा दिखा रहा है. यह सब एक अच्छी-भली समृद्ध भाषा के हाथ-पैर तोड़कर उसे अपाहिज किए जाने जैसा था.
जिस हिंदी को अंग-भंग करके हिंदी आंदोलन ने अशक्त बना दिया था उसके विकास के नाम पर कभी अंग्रेजी से उल्था करके तो कभी संस्कृत के शब्दों को अस्वाभाविक रूप से खींच-तानकर नए शब्द गढ़े गए, जिससे हिंदी किसी तरह प्रशासनिक या अकादमिक विषयों की अभिव्यक्ति का एक दोयम दर्जे का माध्यम बनी रह सकी. पहले ही एक कृत्रिम लेकिन सफल धारणा समाज में बैठायी जा चुकी है जिसके अनुसार हिंदी हिंदुओं की भाषा है और उर्दू मुसलमानों की. तमिल, मराठी, बांग्ला, पंजाबी आदि विभिन्न भाषा-भाषी राज्यों में से कहीं भी हिंदुओं और मुसलमानों की दो अलग भाषाएं नहीं बतायी जातीं.
ग़ैर हिंदी भाषी राज्यों के श्रोता उन्हें हिंदी गानों के रूप में जानते हैं. उनमें शामिल अरबी, फ़ारसी के शब्दों से किसी को शिकायत नहीं दिखती.
बेशक, ये भाषाएं आम तौर पर बोली नहीं जाती है।
Kanuni bhash asan nhi sakht Karo uspe amal Karo aasan karke kya chatoge use 😠
हाँ सही है।
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