क्या हिंदी की दशा-दिशा को लेकर हम गंभीर हैं? देखें क्या कहते हैं आंकड़े

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क्या हिंदी की दशा-दिशा को लेकर हम गंभीर हैं? देखें क्या कहते हैं आंकड़े

आज 14 सितंबर है, हिंदी दिवस अथवा राष्ट्रभाषा हिंदी को समर्पित एक दिन। सरकारी एवं निजी संस्थानों में ख़ूब सारे आयोजन और फ़िर साल भर के लिए निश्चिंत। इन तमाम आयोजनों के मध्य एक प्रश्न मौजूद है कि क्या सच ही हिंदी की दिशा और दशा को लेकर हमारा राजनीतिक नेतृत्व और हमारा समाज गंभीर है? तथ्य तो कुछ और ही इशारा करते हैं।

स्थिति यह है कि अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों की फीस सामर्थ्य से अधिक हो, पर कुछ हो जाए बच्चे को वहीं भेजना है, गोया अंग्रेजी नहीं सीखी तो कुछ नहीं सीखा। बच्चा गणित न जाने, विज्ञान न जाने, सामान्य विज्ञान और सामान्य जानकारी औसत से भी कम रहे तो कोई बात नहीं, अंग्रेजी का एक्सेंट ठीक होना चाहिए । सोच कर दुःख होता है कि अपने बच्चों को अंग्रेजी बोलते सुन, निहाल होते माता-पिता यह नहीं समझ पाते कि वे बच्चों के सर्वोत्तम विकास की संभावना को किस कदर क्षीण कर रहे हैं ।ठीक से नहीं समझने पर माँ-बाप ही खुश...

हम देखते हैं कि घर में एक बच्चा मम्मी, पापा, दादा, दादी, भाई , बहन से हिंदी में जो बात करता है, वही बात विद्यालय में बोलने पर शिक्षक कहते हैं “Don’t talk in vernacular !” क्या यह एक अजीब और त्रासदपूर्ण सी स्थिति नहीं है ? शोध से पता चलता है की विश्लेषणात्मक क्षमता और तर्कपूर्ण वैचारिक पद्धति के निर्माण के लिए मातृभाषा में शिक्षण आवश्यक है । मातृभाषा में शिक्षण सिर्फ़ सुविधाजनक और आसान ही नहीं होता, वरन् सहज और मजेदार भी होता है।

 

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