अपने पिता की उंगली को छोड़कर खुद चलने लायक हुए इस 9 साल के बच्चे को अंदाज़ा भी नहीं था कि पिता की वो उंगली, जिसे पकड़कर उसे दुनिया के अभी बहुत सारे पहलू देखने और समझने थे, सदा के लिए छूट गई है. कोरोना काल का सबसे बुरा पहलू है एकांत की घुटन भरी मौत. एक आखिरी स्पर्श, एक आखिरी शब्द, एक आखिरी विदाई... कुछ भी नहीं करने देता कोरोना. मौत के इस नए नाम ने कैसे अधूरे कर दिए हैं अंतिम संस्कार, देखिए, आजतक की यह विशेष पेशकश.
युद्ध या बड़ी दुर्घटनाओं को छोड़ दें तो शवों को इकट्ठा करके ले जाने का चलन नहीं ही रहा है. लेकिन मरे हुए लोग दरअसल अब अछूत गठरियां हैं. इनके नाम खत्म हो चुके हैं. चेहरे सपाट हैं. ये अकेले और एक से हैं. सबकी पहचान की एक ही साझा संज्ञा है- कोरोना. भय लोगों में है, परिजनों में है. इसके बीच नहीं. ये सारे मृत हैं. ये सारे कोरोना के काल की लंबी परछाइयां हैं.
दिल्ली के इस कब्रिस्तान ने कई जनाज़े देखे हैं. लेकिन मौत का ऐसा दौर शायद ही पहले इन दरख्तों और मिट्टी की याददाश्त से गुज़रा हो जहां एक के बाद एक लोग दफ्न को तो आते रहें लेकिन अलविदा कहने वाले लोग, आखिरी नमाज़ पढ़ते हाथ और आखिरी बार देखने वाली नज़रें जनाजों से नदारद हो गई हों. कोरोना की इस सच्चाई में एक मौत अस्तपाल में भी अकेली है और दफीने में भी. इस वायरस ने सचमुच मौत को और खौफनाक कर दिया है.
ऐसे लोग कम ही हैं जिन्हें परिजनों के हाथों मुखाग्नि नसीब हो सकी है. कितने ही शव ऐसे हैं, जिन्हें लेने कोई नहीं आया. शमशान घरों का आलम यह है कि अंतिम संस्कार के बाद मृतकों की अस्थियों के ढेर लग गए हैं. कलश पर कलश रखे हैं और उन्हें विसर्जित करने वाला कोई नहीं है. समाज जिन नियमों को सदियों से मानता, करता आया है, वो विज्ञान से नहीं, कोरोना के अभिशाप से टूट रहे हैं. कोरोना की मौतें उन सारे नियमों को भी मृतक के साथ शमशान ले गई हों जैसे.
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