कतर की राजधानी दोहा में तालिबान के साथ अमेरिका ने जो समझौता किया है, यदि वह सफल हो जाए तो उसे अंतरराष्ट्रीय राजनीति का सुखद आश्चर्य माना जाएगा। खुद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने कहा है कि यदि तालिबान ने इस समझौते की शर्तों का पालन नहीं किया तो अफगानिस्तान में इतनी अमेरिकी फौजें भेज दी जाएंगी कि जितनी पहले कभी नहीं भेजी गई हैं। ट्रंप को पता नहीं है कि पिछले 200 साल में ब्रिटिश साम्राज्य और सोवियत रूस अफगानिस्तान में कई बार अपने घुटने तुड़वाकर सबक सीख चुके हैं। फिर भी उनके प्रतिनिधि जलमई...
इसका अर्थ क्या हुआ? क्या यह नहीं कि अमेरिका ने तालिबान की जो भी शर्तें मानी हैं और जिन मुद्दों पर उन्हें सहमति दी है, वे सब उसने काबुल सरकार को नहीं बताई हैं? जिन्हें तालिबान के नाम से सारी दुनिया जानती है, यह समझौता उनके नाम से नहीं हुआ है। यह हुआ है अमेरिका और ‘इस्लामिक अमीरात-ए-अफगानिस्तान’ के बीच। यानी अमेरिका ने तालिबान सरकार को अनौपचारिक मान्यता दे दी है, जबकि तालिबान राष्ट्रपति अशरफ गनी और प्रधानमंत्री डाॅ.
काबुल सरकार वैसे भी अधर में लटकी है। 28 सितंबर, 2019 में हुए राष्ट्रपति चुनाव का फैसला अब पांच महीने बाद फरवरी 2020 में आया। इसे गनी के प्रतिद्वंद्वी अब्दुल्ला ने मानने से इनकार कर दिया है और कहा है कि असली राष्ट्रपति वे ही हैं और वे ही सरकार बनाएंगे। अभी तक नए राष्ट्रपति ने शपथ भी नहीं ली है। अमेरिकी दबाव में इनके बीच कोई समझौता हो भी जाए तो क्या वे अमेरिकियों के कहने पर तालिबान को सत्ता सौंप देंगे? इस समय अफगानिस्तान के आधे से ज्यादा जिलों में तालिबान का वर्चस्व है। जहां तक अफगानिस्तान की फौज...
लगभग इसी तरह का समझौता अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के समय 1973 में वियतनाम को लेकर हुआ था। पांच लाख अमेरिकी जवान दक्षिण वियतनाम से वापस बुला लिए गए, लेकिन दो साल में ही दक्षिण वियतनाम पर उत्तर वियतनाम का अधिकार हो गया। क्या अफगानिस्तान में यही नहीं होने वाला है? जो भी होना है, हो जाए, अमेरिका को तो अफगानिस्तान से अपना पिंड छुड़ाना है। ट्रम्प को चुनाव जीतना है। उन्हें यह बताना है कि जो ओबामा नहीं कर सके, वह मैंने कर दिखाया...
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