गोवा में ममता बनर्जी की बढ़ी दिलचस्पी की वजह क्या है?

  • सरोज सिंह
  • बीबीसी संवाददाता
ममता बनर्जी

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पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी 28 अक्टूबर से 1 नवंबर तक गोवा दौरे पर हैं. वहाँ अगले साल की शुरुआत में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. मुख्यमंत्री बनने के बाद किसी दूसरे राज्य में संभवत: ये उनका सबसे लंबा दौरा होगा.

यही वजह है कि ममता के गोवा दौरे की चर्चा खूब हो रही है. गोवा में इस समय बीजेपी की सरकार है. कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल है लेकिन अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भी वहाँ अपनी ज़मीन तलाशने में जुटी है. ताज़ा एंट्री ममता बनर्जी की पार्टी की हुई है.

उनके गोवा पहुँचने से पहले, तृणमूल कांग्रेस के दूसरे वरिष्ठ नेताओं ने बीजेपी के ख़िलाफ़ चार्ज़शीट जारी किया और बीजेपी की नाकामियों को गिनाया.

तृणमूल कांग्रेस गोवा में क्या कर रही है? इस सवाल का ख़ुद ही जवाब देते हुए पार्टी की सांसद महुआ मोइत्रा ने कहा, " गोवा के 25 प्रतिशत युवा बेरोजगार हैं. गोवा के लोग अपने ही राज्य में घर ख़रीदने का सामर्थ्य नहीं रखते, मछुआरों का काम 80 फ़ीसदी प्रभावित हुआ है और सरकार की सब्सिडी भी 40 फ़ीसदी कम हो गई है, क़ानून व्यवस्था का हाल बुरा है. इसलिए टीएमसी अब गोवा आई है"

ये तो है वो तर्क था जो पार्टी के नेता गोवा की जनता के सामने रख रहे हैं.

ममता बनर्जी

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इमेज कैप्शन, टीएमसी नेता लुइजिन्हो फलेरियो के साथ ममता बनर्जी

गोवा ही क्यों?

लेकिन ममता के गोवा दौरे को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में समझने की ज़रूरत है.

क्या राष्ट्रीय राजनीति में बड़ी भूमिका निभाने की तैयारी में ममता बनर्जी गोवा में हैं? और अगर ऐसा है तो गोवा ही क्यों?

भारत की राजनीति में कहा जाता है कि केंद्र का रास्ता उत्तर प्रदेश और बिहार से हो कर निकलता है.

लेकिन पश्चिम बंगाल से निकल कर असम, त्रिपुरा में भाग्य आज़माते हुए ममता बनर्जी ने गोवा का रास्ता चुना हैं.

इसलिए भी ममता के गोवा दौरे पर लोगों को हैरानी है.

15 लाख की आबादी वाले प्रदेश में बांग्ला भाषा एक फीसदी से कम लोग बोलते हैं.

ममता की राजनीति को दशकों से करीब से देखने वाली वरिष्ठ पत्रकार महुआ चटर्जी कहती हैं, " तृणमूल कांग्रेस ख़ुद कह रही है कि ये एक प्रयोग है.

गोवा एक छोटा प्रदेश है. इससे पहले भी वो त्रिपुरा भी गए. जो गोवा की तरह ही छोटे प्रदेश ही थे. गोवा में छोटी पार्टियाँ है. वहाँ के नेता पार्टी जल्दी और आसानी से बदलते हैं. वहाँ की राजनीति पश्चिम बंगाल की तरह 'कॉस्मोपॉलिटन' है. अगले साल ही विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. ममता को ये तमाम बातें सूट करती है."

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इससे उलट उत्तर प्रदेश बिल्कुल अलग तरह का प्रदेश है. वहाँ जैसी जातिगत राजनीति होती है, तृणमूल कांग्रेस उस तरह की राजनीति के लिए जानी नहीं जाती."

वहीं वरिष्ठ पत्रकार जयंतो घोषाल ममता के गोवा दौरे को पत्रकारिता का एक उदाहरण देकर समझाते हैं.

बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा, " छोटे स्तर का अखबार भी, हर राज्य में अपना एक पत्रकार तो रखता ही है. ममता भी बंगाल से निकल कर अब दूसरे राज्यों में उसी तरह से अपना नुमाइंदा रखना चाहती है. चाहे गोवा हो या फिर त्रिपुरा, ममता की कोशिश भी उसी छोटे अखबार के मालिक की तरह की है."

उनके मुताबिक़, "इससे ना सिर्फ़ तृणमूल अपना दायरा बढ़ाएगी बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी गठबंधन की सूरत में अपने 'बारगेनिंग पावर' भी बढ़ाएगी."

गोवा में दशकों से काम कर रहे पत्रकार संदेश प्रभुदेसाई ममता बनर्जी प्रशांत किशोर के कहने पर गोवा आई है. प्रशांत किशोर की संस्था IPAC, उनकी पार्टी के लिए पिछले कुछ महीनों से वहाँ सर्वे भी कर रही है.

ममता बनर्जी

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कांग्रेस की जगह

'उत्तर बंगो संवाद' के वरिष्ठ पत्रकार पुलकेश घोष गोवा में तृणमूल के विस्तार को कांग्रेस से जोड़ कर देखते हैं.

उनका कहना है कि गोवा में ममता कांग्रेस को तोड़ कर कांग्रेस का स्थान हासिल करना चाहती है.

एक हफ़्ते पहले ही गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के पूर्व विधायक नेता लुइजिन्हो फलेरियो ने तृणमूल की सदस्यता ली थी.

2017 के चुनाव में बीजेपी से ज़्यादा सीटें जीतने के बाद भी कांग्रेस गोवा में अपनी सरकार नहीं बना सकी थी.

40 सीटों वाली विधानसभा में कांग्रेस को 17 और बीजेपी को 13 सीटें मिली थी. लेकिन आज कांग्रेस के केवल 4 विधायक ही बचे हैं.

साफ़ है गोवा में एक के बाद एक कांग्रेस नेता पार्टी का दामन छोड़ रहे हैं.

राष्ट्रीय स्तर पर भी कांग्रेस की हालत बहुत अच्छी नहीं है. जिन प्रदेश में उनकी सरकार है वहाँ भी आपसी खींचतान में आलाकमान उलझे हुए हैं.

अब तृणमूल राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की उस खाली जगह को भरने के प्रयास में जुट गई है.

पुलकेश घोष कहते हैं, " ममता बनर्जी 2024 के पहले अपनी पार्टी को राष्ट्रीय बनाना चाहती है, ताकि गठबंधन में उनको मज़बूती मिल सके. गठबंधन वाली सरकारें टिकतीं नहीं है. उसमें सभी का सपना पीएम बनने का होता है. चुनाव से पहले एक बार के लिए पीएम पद की दावेदारी को लेकर ममता बनर्जी के नाम पर विपक्षी पार्टियाँ एकमत हो भी जाएं, तो भी जीतने के बाद कई दावेदार सामने आ सकते हैं. इसलिए पहले से ही वो अपने काम में जुट गई है, ताकि मज़बूती तलाश सकें."

तृणमूल कांग्रेस के इस कदम से कांग्रेस में भी बेचैनी भी साफ़ दिख रही है.

पार्टी के प्रवक्ता रणदीप सूरजेवाला ने दो दिन पहले प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कहा, "गोवा में तृणमूल कांग्रेस ने पिछला विधानसभा चुनाव भी लड़ा था, लेकिन उसके बाद पांच साल तक उन्होंने क्या किया? चुनाव कोई पर्यटन नहीं है जहाँ आप एक चुनाव लड़ते हैं और फिर आप चले जाते हैं और फिर से पांच साल बाद प्रकट होते हैं."

जाहिर है कांग्रेस को लग रहा है कि गोवा में तृणमूल कांग्रेस के आने से उनके वोटबैंक में सेंध लगेगी. विपक्ष का वोट ही बंटेगा.

ममता

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गठबंधन

कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल में ब्राह्मण चेहरा बने ललितेश पति त्रिपाठी ने कांग्रेस का हाथ छोड़कर तृणमूल कांग्रेस का दामन थाम लिया था. उसी तरह से कांग्रेस की पूर्व सांसद सुष्मिता देव भी हाल ही में ममता की पार्टी में शामिल हुई हैं.

तो क्या ममता बनर्जी और कांग्रेस में अब बन नहीं रही है? विपक्षी एकता की पूर्व में की गई कवायद केवल नाम की थी?

इस पर महुआ चटर्जी कहती हैं, " 2024 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को हराने के लिए विपक्षी गठबंधन की जरूरत तो होगी ही. ये ममता भी जानती है. लेकिन गठबंधन में आप चार सांसद वाले पार्टनर हो सकते हैं और 40 सांसद वाले पार्टनर भी हो सकते हैं. उसी से पीएम पद की दावेदारी भी तय होगी. विपक्ष की तरफ़ से फैसले लेने और उन्हें प्रभावित करने की शक्ति भी वहीं से आएगी."

ममता बनर्जी

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टाइमिंग

इसलिए ममता बनर्जी के गोवा जाने की टाइमिंग भी अहम है.

ममता बनर्जी पहले भी कह चुकी है कि 2024 में चुनाव के लिए पहले से तैयारी शुरू करनी होगी.

ममता, पश्चिम बंगाल की जीत के बाद दिल्ली भी आई थी और सोनिया गांधी से मिली भी थी.

महुआ कहतीं है, "ममता ने सोनिया से विपक्षी एकता का सूत्रधार बनने की बात पहले की थी. उसके बाद तृणमूल पार्टी ने इंतज़ार भी किया. कांग्रेस अपनी अंदरूनी दिक़्क़तों से उबर ही नहीं पा रही है. लेकिन तृणमूल कांग्रेस इस वक़्त को अब और बर्बाद नहीं करना चाहती. बंगाल में जीत से जो पार्टी का आत्मविश्वास बढ़ा है, उसका वो इस्तेमाल करना चाहती है. उन्हें लगता विपक्ष को एकजुट करने का काम बाद में होगा."

वैसे इस साल जुलाई तक ममता बनर्जी विपक्षी दलों को एक साथ करती नज़र आईं थी.

21 जुलाई को कोलकाता में उन्होंने शहीद दिवस के मौके पर एक वर्चुअल कार्यक्रम को भी संबोधित किया था जिसमें अकाली दल, समाजवादी पार्टी, एनसीपी, राष्ट्रीय जनता दल, आम आदमी पार्टी, डीएमके, टीआरएस, शिवसेना और कांग्रेस जैसे विपक्षी दलों के नेता मौजूद थे.

पुलकेश कहते हैं कि विधानसभा चुनाव में जीत के बाद अब ममता बनर्जी बंगाल की तरफ़ से निश्चिंत है. उनके उत्तराधिकारी के तौर पर अभिषेक बनर्जी भी तैयार हो चुके हैं. अब राज्य में सरकार ही नहीं, बल्कि पार्टी को भी वो आसानी से संभाल सकने की ताकत रखते हैं. इस वजह से ममता बनर्जी को लगता है कि बंगाल से बाहर निकलने का ये सही समय है."

इस चुनाव के पहले अभिषेक बनर्जी की पार्टी में स्वीकार्यता को लेकर कुछ सवाल ज़रूर थे. पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के साथ अभिषेक बनर्जी के मतभेद की ख़बरे रह रह कर सामने आती थी. लेकिन इस बार की जीत के बाद पार्टी के नेताओं के बीच अभिषेक बनर्जी अब ममता के बाद पार्टी के उत्ताधाधाकारी के तौर पर स्थापित हो चुके हैं.

ममता बनर्जी का पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बनने का सपना तो साकार हो गया है. अब बारी 'पीएम' पद के सपने की है. और इस सपने को हकीकत में बदलने की कोशिश के दौरान उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं है. गोवा में हारने के बाद उनका कोई नुक़सान नहीं है.

यही वो बात है जो इस वक़्त उनके पक्ष में हैं.

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