देवेश मिश्रा

जल्द से जल्द किसी चीज को सीखने-जानने की इच्छा ही मनुष्य को अन्य प्राणियों से अलग बनाती है। बौद्धिक विकास की इस सतत यात्रा में जिस वस्तु ने सबसे अहम भूमिका निभाई वह किताबें हैं। अध्यात्म, विज्ञान, संगीत, साहित्य, कला, आदि तमाम विषयों पर सदियों से लिखा जा रहा है। कई बार ऐसी स्थितियां आर्इं, जब मान लिया गया कि अब धीरे-धीरे इस दुनिया से किताबें लुप्त हो जाएंगी। मसलन, जब रेडियो, टेलीविजन, इंटरनेट आया तो यही कहा गया कि अब किताबें कौन पढ़ेगा? अब तो सारी जानकारी आपके स्क्रीन पर मौजूद है। बावजूद इसके, किताबों की मांग जस की तस बनी रही। पर शायद किताबों का मुस्तकबिल हम सब को निराश कर दे।

देश में स्मार्टफोन और इंटरनेट की पहुंच जन-जन तक है। युवा पीढ़ी को इस क्रांति से बेहद लाभ मिल रहा है। कोरोना महामारी में अध्यापकों और विद्यार्थियों के बीच की कड़ी यह स्मार्टफोन ही था। लोग अपने घरों में कैद थे, कोई किसी से मिलजुल नहीं सकता था, तब स्मार्टफोन के माध्यम से लोग एक-दूसरे के साथ जुड़े रहे। पर हमारी जरूरत का यह सामान कब हमारी आदत बन गया, पता ही नहीं चला। युवा पीढ़ी अपना वक्त गेम खेलने, विडियो देखने, चैटिंग करने, आदि में बर्बाद करने लगी। यह हम सब के लिए एक चिंता का विषय है। इसने जो महत्त्वपूर्ण चीज हमसे छीन ली, वह है धैर्य।

जैसे-जैसे हम विकास की राह पर आगे बढ़ रहे हैं वैसे-वैसे हमारा धैर्य कम होता जा रहा है। किसी एक किताब को पूरा करने में सामान्यत: एक हफ्ते का वक्त लगता है। घटते धैर्य के कारण एक बड़ा हिस्सा किताब पढ़ना छोड़ कर सिनेमा देखने लगा। शुरुआती दौर में हिंदी फिल्में ढाई से तीन घंटे की हुआ करती थीं। फिर फिल्म निर्माताओं ने दर्शकों के घटते धीरज को देखते हुए फिल्मों को और छोटा कर दिया। अब फिल्में अधिक से अधिक दो घंटे में पूरी हो जाती हैं। पर लोगों का धैर्य अब दो घंटे की फिल्म देखने की भी गवाही नहीं दे रहा। एक बड़ा हिस्सा यू-ट्यूब पर पंद्रह-बीस मिनट का विडियो देखने लगा। यूट्यूब पर विडियो देखने वाली युवा पीढ़ी अब ‘रील्स’ देखने लगी है। मात्र एक मिनट का विडियो। एक मिनट में मनोरंजन। रील्स से भी एक कदम आगे ‘मीम’ का प्रचलन उभर आया। एक तस्वीर को इस तरह बनाया जाता है, जिससे लोगों को हंसाया जा सके। मनोरंजन मात्र कुछ सेकेंड में। हफ्तों लगा कर एक किताब पढ़ने से अच्छा है, कुछ सेकेंड में मीम देख कर हंसना। कौन है इसके लिए जिम्मेदार? घटता धैर्य। हम हमेशा हड़बड़ी में रहते हैं। प्रतिस्पर्धा के इस दौर में हमारे पास वक्त ही नहीं है कोई किताब पढ़ने का। हम बस दौड़ते जा रहे हैं।

ऐसा नहीं कि सिर्फ किताबों के प्रति हम सब का रुझान कम हुआ है, बल्कि बहुत सारी चीजें इस भाग-दौड़ के चक्कर में पीछे छूट गई हैं। मसलन, बुजुर्गों के साथ समय बीतना, बागवानी करना, सुबह सैर को जाना, मोहल्ले के छोटे बच्चों से बातचीत करना, आदि। आज के दौर में किताब पढ़ना तो दूर, लोग किताब खरीदना भी नहीं चाहते। हिंदी साहित्य की स्थिति तो और खराब है। अंग्रेजी व्यापार की भाषा है, इसलिए लोगों को मजबूरन पढ़ना पड़ रहा है। हिंदी प्यार की भाषा है, इसलिए एक बड़ी आबादी इसे अनदेखा कर रही है। हिंदी अखबारों की भी युवाओं के बीच लोकप्रियता घटती जा रही है। प्रतियोगिता निकालने के चक्कर में हिंदी पट््टी के लोग भी अंग्रेजी अखबार पढ़ रहे हैं। ऐसा क्यों हो रहा है? हिंदी किताबों और अखबारों से युवा पीढ़ी दूर क्यों हो रही है? क्या घटते धैर्य के साथ कोई और घटक भी है, जिस पर काम करने की अत्यंत आवश्यकता है?

पाठक कम हो रहे हैं। उन्हें कैसे वापस लाया जाए, इस पर विमर्श की आवश्यकता है। इंटरनेट न चाहते हुए भी लोगों को अपने संजाल में फंसा लेगा। आप का वक्त इंटरनेट पर इस प्रकार बर्बाद होगा कि आपको ग्लानि के बजाय आनंद आने लगेगा। यह आनंद क्या किताबों और अखबारों से संभव है? जिस सुगमता से ज्ञान इंटरनेट पर मौजूद है, क्या उसे किताबों और अखबारों के माध्यम से मुहैया नहीं कराया जा सकता? यह सिर्फ लेखकों और संपादकों की जिम्मेदारी नहीं है। उनसे अधिक, कहीं न कहीं हम पाठकों की भी है। हम सब को यह प्रण लेना चाहिए कि महीने में कम से कम दो किताबें जरूर पढ़ेंगे। ज्ञान अर्जित करने के लिए वक्त देना पड़ता है। धैर्य ज्ञान की कुंजी है। बेशक ‘रील्स’ में किसी का नृत्य देख कर मनोरंजन किया जा सकता है, लेकिन जो ज्ञान किताबों से मिलता है, वह कहीं और से मिल पाना असंभव है। इसलिए किताबों से प्रेम करना जरूरी है। आचार-विचार की शुद्धि बिना किताबों के संभव नहीं। वह विकास ही किस काम का, जहां लोगों में मानवीयता, समझदारी, संवेदना और दया भाव न हो!