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रुक्मिणी बनर्जी का कॉलम:यह तय हो कि 16 साल तक की आयु तक क्या करना और सोचना आना चाहिए; 10वीं तक की शिक्षा-परीक्षा अब ऐसी होनी चाहिए
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हर साल माता-पिता, छात्र-छात्राएं और शिक्षक दसवीं की परीक्षा की प्रतीक्षा करते हैं। कहीं-न-कहीं दसवीं की परीक्षा, सबके लिए इम्तिहान बन चुकी है। परिणाम माता-पिता, शिक्षक व विद्यालयों के लिए भी इज्जत का सवाल बन गए हैं। अमूमन विद्यालयों में दसवीं की तैयारी कई साल पहले से होने लगती है।
स्कूल के अलावा ट्यूशन क्लास में भीड़ होना, घर में पढ़ाई का गंभीर वातावरण बनना, ये सब स्वाभाविक हो गया है। लेकिन पिछले डेढ़ साल से पढ़ाई जैसे होती थी वैसे नहीं हो पाई। कोविड की पीड़ा के बाद यह सोचना ज़रूरी हो गया है कि कक्षा नौ और दस के साथ क्या करना चाहिए? जो पहले से होता आया है वही होना चाहिए या कोई दूसरा रास्ता ढूंढा जा सकता है?
देश के अलग-अलग राज्यों में परिस्थिति अलग होगी, ये समझना आसान है। पर एक ही जगह, विभिन्न इलाकों में और विभिन्न तरह के स्कूलों की स्थिति में काफी फर्क दिख रहा है। जैसे शहरों को देखिए। बड़े बच्चों के लिए स्कूल खोल दिए हैं, लेकिन प्राइवेट स्कूल में छात्रों की उपस्थिति आमतौर पर कम है। दूसरी तरफ सरकारी विद्यालयों की स्थिति देखिए। ऐसे विद्यालयों के शिक्षकों का कहना है कि जब से स्कूल खुले हैं, सरकारी विद्यालयों में उपस्थिति की समस्या नहीं हुई, खासकर दसवीं में।
कक्षा नौ के छात्र-छात्राओं के बारे में याद रखें कि वे मार्च 2020 में कक्षा सात में थे और अब कक्षा नौ में पहुंच गए हैं। इस दौरान शिक्षकों और अभिभावकों ने उनकी पढ़ाई जारी रखने के प्रयास किए होंगे, पर उसका असर इन छात्रों पर हुआ है यह अनुमान लगाना कठिन है। इसी तरह आज जो छात्र-छात्राएं कक्षा दस में हैं वे 2020 में आठवीं में थे।
इन बच्चों के लिए पाठ्यक्रम क्या होने चाहिए? इनके लिए सीखने-सिखाने की कौन-सी गतिविधियां सही होंगी? विद्यालय तो खुल गए हैं, पर खुलते-खुलते आधा साल बीत चुका है। आजकल ‘लर्निंग लॉस’ (सीखने का नुकसान) चर्चा में है। इस क्षति को दो भागों में समझना होगा।
पहला भाग उन ज्ञान और दक्षताओं का होगा जो बच्चे भूल गए हैं और दूसरा भाग होगा उन चीज़ों का जिन्हें सीखने का मौका ही इन छात्रों को नहीं मिला। अधिकतर छात्र-छात्राएं जिस कक्षा में हैं, वास्तव में वे उस कक्षा के स्तर पर नहीं हैं। हो सकता है प्राइवेट स्कूल के छात्र-छात्राओं का स्तर अलग हो क्योंकि उन्हें लगातार ऑनलाइन शिक्षा मिलती रही लेकिन सरकारी स्कूल के छात्र-छात्राओं को ऐसी सुविधाएं नहीं मिल पाईं।
छात्रों की हकीकत को ज़मीनी स्तर से देखकर और उनकी समस्याओं को नज़दीक से समझकर रणनीति बनाना बहुत ज़रूरी है। सभी को पता है कि पिछले साल से स्कूली शिक्षा के मामले में 2020 और 2021 असाधारण और असामान्य थे, पर हमने शिक्षा-परीक्षा के उसूल या प्रतिरूप को गहराई या गंभीरता से बदलने का प्रयास नहीं किया है।
पाठ्यक्रम को हल्का करना, बोर्ड परीक्षा की तारीख को आगे-पीछे धकेलना, कुछ परीक्षाएं अभी और कुछ बाद में होना, परीक्षा प्रश्नों का आसान करना, ये मामूली समायोजन हैं, दूरदर्शी नहीं। अवास्तविक अपेक्षाओं का मूल्यांकन करना छात्रों व शिक्षकों के समय का नुकसान है।
महामारी काल के अनुभव से और नई शिक्षा नीति 2020 के आगमन से, एक सुनहरा मौका हमारे सामने है कि यह तय कर लिया जाए कि हिंदुस्तान के किसी भी युवक या युवती को 16 साल की आयु तक क्या करना और सोचना आना चाहिए। वैसे भी, इस उम्र के नौजवान अपने-आप बहुत कुछ सीखते हैं; कुछ विद्यालय में और बहुत कुछ विद्यालय के बाहर। कोविड-काल में उन्हें बहुत कुछ सीखना पड़ा है। अगर शिक्षा दूसरे किस्म की हुई है तो इस शिक्षा की परीक्षा या परिणाम और मूल्यांकन भी दूसरे तरीके से होना चाहिए।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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