उत्तराखंड की नैनी झील कैसे तबाही की झील में तब्दील हुई
- रोहित जोशी
- बीबीसी हिंदी के लिए
उत्तराखंड में हुई रिकॉर्ड तोड़ बारिश ने ख़ासतौर पर कुमाऊँ क्षेत्र में तबाही मचा दी है. बारिश का सबसे ज़्यादा असर तालों के लिए मशहूर और टूरिस्ट स्पॉट नैनीताल पर दिखा है.
कोसी, गौला, रामगंगा, महाकाली के साथ ही इलाक़े की सभी नदियां और जल धाराएँ उफ़ान पर हैं और सैकड़ों भूस्खलनों के चलते कई मकान ज़मींदोज़ हो गए हैं और अधिकतर सड़कें बाधित हैं.
कुमाऊँ के डीआईजी नीलेश भरणे ने बीबीसी को बताया है, "अब तक 46 लोगों की मौत की पुष्टि हुई है और दूरस्थ इलाक़ों में रेस्क्यू ऑपरेशन जारी है."
ऐसे में आशंका जताई जा रही है कि हताहतों की संख्या बढ़ सकती है. उन्होंने बताया, ''अलग-अलग इलाक़ों में ऑपरेशन चल रहा है. जिन इलाक़ों में गाड़ियों के जा सकने की स्थिति नहीं है फ़ोर्स पैदल वहाँ पहुंची है. आपदा का केंद्र नैनीताल ज़िले के मुक्तेश्वर और रामगढ़ के इलाक़ों में रहा है.''
मंगलवार को नैनीताल की ओर जाने वाली सारी ही सड़कें कई जगह मलबा आने से बाधित हो गई थीं लेकिन डीआईजी भरणे ने बताया कि सभी सड़कों को खोल दिया गया है और अब ट्रैफ़िक सुचारु हो गया है.
124 सालों में सबसे ज़्यादा हुई बारिश
मौसम विज्ञान केंद्र, उत्तराखंड की ओर से दर्ज आँकड़ों के मुताबिक यह उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र में बीते 124 सालों में अब तक हुई सबसे ज़्यादा बारिश है.
मौसम विज्ञान केंद्र, उत्तराखंड के डायरेक्टर बिक्रम सिंह ने बताया, ''1897 में नैनीताल ज़िले के मुक्तेश्वर में पहली बार मौसम केंद्र स्थापित किया गया था. तब से अब तक दर्ज आँकड़ों के मुताबिक कुमाऊँ में सबसे अधिक 254.5 एमएम बारिश 18 सितंबर 1914 में हुई थी और 24 घंटों में मुक्तेश्वर मौसम केंद्र ने 340.8 एमएम बारिश दर्ज की गई है.''
इसी तरह कुमाऊँ के मैदानी इलाक़ों में भी बारिश का रिकॉर्ड टूटा है और पंतनगर मौसम विज्ञान केंद्र में 24 घंटों में 403.2 एमएम बारिश दर्ज की गई है. जबकि अब तक दर्ज आँकड़ों में 10 जुलाई 1990 को सबसे अधिक बारिश 228 एमएम दर्ज की गई थी.
बिक्रम सिंह ने बताया कि बंगाल की खाड़ी से उठने वाली नम हवाओं को पश्चिमी विक्षोभ ने 75 अंश पूर्व की ओर आकर रोक दिया जिससे नम हवाएं ऊपर की ओर उठने से यह भारी बरसात हुई.
मौसम विज्ञान केंद्र के मुताबिक उसके हर एक केंद्र में भारी से अत्यंत भारी (हैवी टू एक्स्ट्रीमली हैवी) रेनफ़ॉल दर्ज हुआ है जो कि एक अभूतपूर्व स्थिति है. हालांकि अब यह स्थिति टल गई है और अब मौसम सामान्य हो जाएगा.
नैनी झील हुई ओवरफ़्लो
वहीं भारी बरसात के बीच नैनीताल की मशहूर नैनी झील के ओवरफ़्लो हो जाने से मल्लीताल में नैनादेवी मंदिर परिसर, मॉल रोड, और तल्लीताल के नया बाज़ार इलाक़े में बाढ़ आ गई और कई दुकानों और घरों में पानी भर गया.
तल्लीताल निवासी राजीव लोचन साह ने बताया, ''चारों ओर पानी से घिरे हम जैसे किसी टापू में हैं. हर तरफ़ ख़ौफनाक मंज़र है. हमने पूरी रात ऐसे ही डर में गुज़ारी है.''
तल्लीताल कृष्णापुर में रहने वाली प्रियंका बिष्ट कहती हैं, ''मैंने अपनी ज़िंदगी में नैनी झील को ऐसे बाढ़ की तरह ओवरफ़्लो होते कभी नहीं देखा. झील से इतना पानी बह रहा है कि नया बाज़ार और भवाली रोड में दुकानों और लोगों के घरों में पानी भर गया है. लोगों का बहुत नुकसान हुआ है.''
नैनीताल शहर में रहने वाले पर्यावरणविद् और इतिहासकार शेखर पाठक कहते हैं, ''इतिहास में भी नैनीताल के पास इस तरह की एक्सट्रीम प्राकृतिक परिस्थितियाँ बनीं हैं. 1920-21 में भी इसी तरह की भारी बारिश हुई थी और उससे पहले 1880 में सितम्बर की 14 से लेकर 18 तारीख में भारी बरसात के बाद नैनी झील के ऊपरी छोर की पहाड़ी पर एक बड़ा भूस्खलन आया था. जिसकी चपेट में आकर 155 लोगों की मौत हो गई थी. इस बार की भारी बरसात और बाढ़ ने यहाँ भय का माहौल पैदा कर दिया है.''
पाठक यह भी बताते हैं, ''नैनीताल झील के ज्ञात इतिहास में अब तक ऐसा ओवरफ़्लो नहीं देखा गया है. एक तो अभूतपूर्ण बरसात इसका कारण रही है, दूसरी वजह यह रही कि लेक ब्रिज में बनाया गया पानी का पैसेज भी नासमझी के साथ बनाया गया है. उसे और बड़ा बनाया जाना था. बरसात के चलते झील में पानी लाने वाले सारे ही नालों से इतना पानी आया कि उस रफ़्तार के साथ उसकी निकासी नहीं हो पाई और तल्लीताल के इलाक़े में बाढ़ आ गई.''
नैनीताल ज़िले के ही रामगढ़, रामनगर, कैंची, ओखलकॉंडा और दूसरे इलाक़ों के अलावा, उधम सिंह नगर, अल्मोड़ा, बागेश्वर, पिथौरागढ़ और चम्पावत ज़िलों में भी बाढ़ और भूस्खलन की घटनाओं से लोग बुरी तरह प्रभावित हुए हैं.
राहत और बचाव से जुड़ी एजेंसियां बचाव कार्य में लगी हैं और वायु सेना के दो हैलीकॉप्टर भी प्रभावित इलाक़ों में राहत के लिए भेजे गए हैं. मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने अतिवष्टि प्रभावित क्षेत्रों का हवाई दौरा किया है और लोगों से धैर्य और संयम रखने की अपील की.
क्या है आपदा की वजहें
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आमतौर पर मानसून के ख़त्म हो जाने बाद अक्टूबर महीने में इस तरह की भारी बरसात को लेकर पर्यावरणविद् और वैज्ञानिकों का कहना है कि इस तरह की घटनाएँ मौसम चक्र में हो रहे परिवर्तन का स्पष्ट संकेत हैं.
पीपल्स साइंस इंस्टिट्यूट से जुड़े वरिष्ठ वैज्ञानिक और पर्यावरणविद् रवि चोपड़ा कहते हैं, ''यह लगातार देखा जा रहा है कि पहले जो बरसात चौमासा (बरसात के मौसम में) में हुआ करती थी, बीते समय में उसका व्यवहार अब बदल गया है. वैज्ञानिकों ने 1980 के दशक में ही यह कहना शुरू कर दिया था कि जब मौसम परिवर्तन होगा तो तापमान बढ़ेगा और जो बरसात होगी वो कम दिनों के लिए होगी लेकिन ज़्यादा भारी होगी. तो इस साल भी और हाल के सालों में भी हमने यही होते देखा है.''
रवि चोपड़ा उत्तराखंड हिमालय के कच्चे पहाड़ों के लिए इस तरह की भारी बरसात को ख़तरनाक बताते हैं, ''उत्तराखंड के पहाड़ कमज़ोर हैं. ख़ासतौर पर वहाँ, जहाँ मेन बाउंड्री फ़ॉल्ट और मेन सेंट्रल थ्रस्ट है. ऐसे में भारी बरसात में यहाँ ढेरों भूस्खलन आ जाते हैं और कई बसासतें इनकी चपेट में आ जाती हैं और दुर्घटनाएँ होती हैं.''
मौसम विभाग की ओर से 18 सितम्बर से तीन दिन के लिए डबल रेड अलर्ट जारी किया गया था और 2013 की तरह की भयंकर बारिश की आशंका जताई गई थी. जिसके बाद से उत्तराखंड के सभी ज़िलों में प्रशासन ने आपदा राहत से जुड़े कर्मियों को तैनात रहने के आदेश दे दिए थे और चारधाम यात्रा को भी रोक दिया गया था.
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