सुबह के अपने रंग हैं, जैसे हर सवेरा अपने साथ कुछ नया लेकर आता है और हम अपने भीतर कहीं आशा, उमंग, उल्लास का मिश्रित हिलोर सुबह के सूरज को देखते हुए महसूस कर सकते हैं। एक अंधकार से भरी रात के बाद उजले प्रकाश की किरणें सकारात्मक ऊर्जा का भरपूर भंडार लिए होती हैं, जो दरअसल हमें दिन भर की भाग-दौड़ और थकान से लड़ने के लिए भीतर से ऊर्जावान रखती हैं, हर सुबह अपने हजार रंगों में बिलकुल नई लगती है। यही प्रकृति का चमत्कार है!

आज जब हर तरफ शहरों के रूप में कंक्रीट के जंगल खड़े हो गए हैं और रोजगार, सुख-सुविधा के चलते इन्हीं शहरों में अपना आशियाना बनाए रखने को मनुष्य मजबूर है, तो यहां भी प्रकृति उसे हर सुबह खुद के रंग लुटाने कहां बंद करती है? दरअसल, हर सुबह हमें सृजनात्मक रूप से समृद्ध बनाती है। कहा गया है कि सुबह मष्तिष्क कहीं ज्यादा ऊर्जावान होता है, अधकि सृजनशील होता है, तभी सुबह के समय को पढ़ने-लखिने के लिए सबसे उपयुक्त माना गया है। प्राचीन गुरुकुल परंपरा से लेकर आधुनिक आवासीय विद्यालयों में भी विद्यार्थियों की दिनचर्या अल-सुबह चार बजे से शुरू हो जाती है। शास्त्रों में यही समय ब्रह्ममुहूर्त कहा गया है, जब गहरी रात के बाद प्रकृति अंगड़ाई ले रही होती है।

दरअसल, उम्मीदें जताने, बताने या दीवारों पर सजाने के खयाल से परे, सहज होती हैं, जिनके सहारे इंसान सपने बुनने की प्रक्रिया को अंजाम देता है और यही सपने समय की परत-दर-परत उघाड़ते जीवन बुनते हैं। जब हम नींद में होते हैं तो पाते हैं कि सपने में सपना सच लगता है, तो जाहिर है कि खयाली दुनिया का भी अपना सच होता है, जहां खुश रहने के हजार बहाने ढूंढे जा सकते हैं। मगर खुश रहने के हजार बहानों में पहला, मनुष्य को प्रकृति प्रदत्त वरदान सुबह ही है। इसे अलसाई आंखों से भी मनुष्य पूरी जीवंतता में महसूस कर सकता है।

कई उम्रदराज लोगों, जो देखने में अपनी उम्र से बेहद कम आयु के लगते हैं, से बातें करते हुए मैंने पाया कि सुबह सूरज से पहले जागना और हर सवेरे को खुली आंखों से ताकना भर बढ़ती हुई उम्र को छिपा लेने का राज है। ध्यान, मौन योग इसके आगे की अवस्थाएं हैं।

दिल्ली जैसे शहर में, जहां प्रदूषण से उपजी तकलीफें हैं, यहां आकर मैंने पाया कि जैसे मेरी सुबहें कुछ फीकी हो गई हैं। महसूस किया कि एक अदना-सा रोजगार, जीने के लिए किया जाने वाला उपक्रम, जीवन से बड़ा आखिर कैसे हो सकता है? शुरू-शुरू में तो मुखर्जी नगर के उन तंग कमरों में कई बार दम घुटता था। तब मैंने घंटों छत पर जाकर बैठने का यत्न किया, मगर एक दिन अपनी दोस्त ‘फियाइन’ से बात करते हुए मेरा दिल्ली की खूबसूरती से सच्चा साक्षात्कार हुआ। दरअसल, उसकी सुबह यमुना किनारे कहीं चिड़ियों की मीठी कूकों भरी थी। मेरे कहने पर कि अरे! चिड़ियां भी बोल रही हैं, वह बोल उठी ‘चिड़ियों बिन कैसी सुबह’। आखिर हर किसी की सुबह में प्रकृति भरपूर होनी चाहिए।

कृष्ण की प्रेमलीला का कीर्तन करने उठी सबसे ऊंची सुरीली और मधुर झंकार वाली वीणा के धनी अंधे कवि सूरदास ने मन की आंखों से सुबह के जो चित्र अपने काव्य में खींचे वे अन्यत्र दुर्लभ हैं। सूरदास की काव्यगत सुबहों में किसान चेतना पग-पग पर परिलक्षित होती है। जहां सुबह सवेरे खेतों की ओर अपने काम पर जाते किसान प्रकृति का वरण करते हैं। पिछले दिनों दुनिया भर में एक वायरस ने मनुष्यगत कार्य-व्यापारों पर विराम लगा दिया। भले ही मनुष्य अपने घरों में कैद होकर रह गया, लेकिन वहीं किसान अपने खेतों में सतत काम करते रहे।

वास्तव में पेड़-पौधे, पशु-पक्षी ही प्रकृति के वात्सल्य प्रेम को जी पाते हैं। प्रकृति मनुष्य को भी जी-भर दुलार करने से कहां मना करती है? पर इसे पाने के लिए सुबह से बेहतर समय दूसरा नहीं, जब प्रकृति जीव मात्र का स्वागत करती है। जिसमें निस्स्वार्थ, कामना रहित उगते सूरज के स्नेह का प्रकाश होता है। सवेरे प्रकृति को एकटक निहारने भर से मनुष्य असीम शांति प्राप्त कर सकता है।

भले ही मनुष्य ने दौड़-धूप भरी जिंदगी के चलते खुद को पूरी तरह से बदल लिया है। यहां तक कि महानगरों में रात-दिन का फर्क करना तक मुश्किल है, मगर प्रकृति फिर भी अपने अनन्य रूपों में बहुतेरे जीवों के साथ सतत पुरातन बनी हुई है। जीव मात्र ने अपनी सुबह नहीं बदली, बाकी सारे जीव रात्रि में विश्राम करते पाए जाते हैं। महानगरों की चकाचौंध में भी सभी पशु-पक्षी हर रात गहरी नींद में होते हैं, उनकी हर सुबह परंपरागत है। यही वजह है कि वे प्रकृति से सामंजस्य बनाए हुए हैं।