सावरकर ने माफ़ीनामों में क्या-क्या लिखा, छूटने पर क्या-क्या किया?

  • राघवेंद्र राव
  • बीबीसी संवाददाता
सावरकर

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"सरकार अगर कृपा और दया दिखाते हुए मुझे रिहा करती है तो मैं संवैधानिक प्रगति और अंग्रेजी सरकार के प्रति वफादारी का कट्टर समर्थक रहूँगा जो उस प्रगति के लिए पहली शर्त है".

"मैं सरकार की किसी भी हैसियत से सेवा करने के लिए तैयार हूँ, जैसा मेरा रूपांतरण ईमानदार है, मुझे आशा है कि मेरा भविष्य का आचरण भी वैसा ही होगा."

"मुझे जेल में रखकर कुछ हासिल नहीं होगा बल्कि रिहा करने पर उससे कहीं ज़्यादा हासिल होगा. केवल पराक्रमी ही दयालु हो सकता है और इसलिए विलक्षण पुत्र माता-पिता के दरवाजे के अलावा और कहां लौट सकता है?"

"मेरे प्रारंभिक जीवन की शानदार संभावनाएँ बहुत जल्द ही धूमिल हो गईं. यह मेरे लिए खेद का इतना दर्दनाक स्रोत बन गई हैं कि रिहाई एक नया जन्म होगा. आपकी ये दयालुता मेरे संवेदनशील और विनम्र दिल को इतनी गहराई से छू जाएगी कि मुझे भविष्य में राजनीतिक रूप से उपयोगी बना देगी. अक्सर जहां ताकत नाकाम रहती है, उदारता कामयाब हो जाती है."

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"मैं और मेरा भाई निश्चित और उचित अवधि के लिए राजनीति में भाग नहीं लेने की शपथ लेने के लिए पूरी तरह तैयार हैं. इस तरह की प्रतिज्ञा के बिना भी खराब स्वास्थ्य की वजह से मैं आने वाले वर्षों में शांत और सेवानिवृत्त जीवन जीने का इच्छुक हूँ. कुछ भी मुझे अब सक्रिय राजनीति में प्रवेश करने के लिए प्रेरित नहीं करेगा."

ये सभी बातें विनायक दामोदर सावरकर ने अंडमान की सेल्यूलर जेल में सज़ा काटते हुए 1913 और 1920 के बीच दायर की गई दया याचिकाओं में लिखी थीं.

ऐसी बातों की वजह से भारत का एक बड़ा राजनीतिक तबका सावरकर को सम्मान की नज़र से नहीं देखता, जबकि दूसरी तरफ आरएसएस और बीजेपी से जुड़े लोग पिछले कई सालों से सावरकर के राष्ट्रवाद की लगातार प्रशंसा कर रहे हैं.

रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत

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हाल ही में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के इस बयान से राजनीतिक खलबली मच गई कि सावरकर को साज़िश के तहत बदनाम किया गया है, उन्होंने अंग्रेज़ों के सामने दया याचिकाएं महात्मा गाँधी के कहने पर दायर की थीं.

बात सिर्फ़ सावरकर के दया याचिका लिखने और 50 साल की सज़ा मिलने के बावजूद काला पानी से 10 साल में ही रिहा हो जाने तक सीमित नहीं है.

सावरकर पर ये आरोप लगता रहा है कि रिहा होने के बाद उन्होंने औपनिवेशिक शासन की नीतियों का समर्थन किया और भारत के स्वतंत्रता संग्राम से खुद को दूर रखा. उनके आलोचक ये भी कहते हैं कि सावरकर ब्रितानी सरकार से हर महीने 60 रूपए की पेंशन भी लेते थे.

महात्मा गांधी और सावरकर

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'दया नहीं, समर्पण याचिका'

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शम्सुल इस्लाम दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान पढ़ा चुके हैं और 'सावरकर-हिन्दुत्व: मिथक और सच' नाम की किताब के लेखक हैं. इसी किताब के अंग्रेज़ी संस्करण का नाम है 'सावरकर अनमास्क्ड'.

सावरकर के प्रशंसक अक्सर कहते हैं कि "उन्होंने जेल में मरने की जगह राष्ट्रसेवा करने का रास्ता चुना इसीलिए माफ़ीनामे की चाल चली".

लेकिन शम्सुल इस्लाम कहते हैं, "सावरकर ने अपनी रिहाई के बाद का सारा समय महात्मा गाँधी के खिलाफ माहौल बनाने में बिताया. 1937 में पूरी तरह रिहा होने से लेकर 1966 में अपनी मृत्यु तक सावरकर ने ऐसा कुछ नहीं किया जिसे राष्ट्रसेवा कहा जा सके."

उनका मानना है कि सावरकर ने "दया याचिकाएं नहीं बल्कि आत्म-समर्पण याचिकाएं दायर की थीं" जो उन दया याचिकाओं से बहुत अलग थीं जो कुछ और कैदियों ने दायर कीं जिनमें उन्होंने कैदियों के ऊपर हो रहे ज़ुल्म के बारे में लिखा. जेल में सावरकर किसी भूख हड़ताल में शामिल नहीं हुए क्योंकि ऐसा करने पर सज़ा के तौर पर उनको मिलने वाली चिवट्ठियाँ बंद हो जातीं."

इस्लाम कहते हैं, "सावरकर ने अपनी याचिकाओं में लिखा कि मैंने अतीत में बहुत गलती की और मैंने अपने शानदार भविष्य को तबाह कर दिया. वे ये भी लिखते हैं कि ब्रितानी सरकार अच्छा काम कर रही और मैं उसके साथ खड़ा हूँ. साथ ही, वो यह भी लिखते हैं कि अगर आप मुझे माफ़ कर देंगे तो जो क्रन्तिकारी मुझे आदर्श बनाकर लड़ाई लड़ रहे हैं वो सब हथियार डाल देंगे."

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शम्सुल इस्लाम कहते हैं कि उनकी दया याचिकाओं को पढ़कर ये साफ़ हो जाता है कि "उन्होंने अंग्रेज़ों से कहा कि आप जिस तरह से चाहें मेरा इस्तेमाल करें".

वे कहते हैं, "1923 में उन्होंने अपनी किताब में 'भारत हिन्दू राष्ट्र है' लिखकर सीधे तौर पर अंग्रेज़ों की मदद करना तय किया. उन्हें 50 साल काला पानी की सजा हुई लेकिन वो वहां 10 साल ही रहे. अंग्रेज़ों ने उन्हें हिन्दू महासभा को संगठित करने का अधिकार दिया और उनकी पेंशन तय की."

इस्लाम बताते हैं कि "सावरकर ने इंग्लैंड की रानी को लिखा था कि आप हिंदुस्तान को नेपाल के राजा को दे दें क्योंकि नेपाल का राजा सारी दुनिया के हिन्दुओं का राजा है".

वे कहते हैं कि हिन्दू महासभा का सेशन नेपाल के राजा को सलामी देकर शुरू होता था और उनकी लम्बी आयु की कामना पर ख़त्म होता था.

गांधी हत्याकांड के मुख्य अभियुक्त

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गांधी हत्याकांड के मुख्य अभियुक्त

साल 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के छह दिन बाद विनायक दामोदर सावरकर को हत्या के षड्यंत्र में शामिल होने के शक़ में मुंबई से गिरफ़्तार कर लिया गया था. हालांकि उन्हें फ़रवरी 1949 में बरी कर दिया गया था लेकिन उसके बाद बनाए गए कपूर कमीशन की रिपोर्ट में उन्हें पूरी तरह से दोषमुक्त नहीं माना गया.

शम्सुल इस्लाम के मुताबिक सरदार पटेल ने महात्मा गाँधी की हत्या के बाद 27 फरवरी 1948 को पंडित नेहरू को एक ख़त लिखकर कहा था कि "यह सीधे सावरकर के अधीन हिंदू महासभा की एक कट्टर शाखा थी जिसने ये साजिश रची और उसे अंजाम दिया".

इस्लाम कहते हैं कि 18 जुलाई 1948 को श्यामा प्रसाद मुखर्जी को लिखे एक ख़त में गाँधी की हत्या के बारे में सरदार पटेल ने कहा था कि उन्हें मिली जानकारी इस बात की पुष्टि करती है कि "राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिन्दू महासभा की गतिविधिओं के परिणामस्वरूप देश में एक ऐसा माहौल बना था जिसमें ये भयानक त्रासदी संभव हो गई."

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'बातों को तोड़-मरोड़कर पेश किया जा रहा है'

रणजीत सावरकर डॉक्टर नारायण राव सावरकर के पोते हैं और मुंबई में 'स्वातंत्र्यवीर सावरकर राष्ट्रीय स्मारक' से जुड़े हुए हैं. वे वीर सावरकर पर लगे आरोपों को ख़ारिज करते हैं.

वे कहते हैं, "लोग याचिकाओं में लिखे कुछ वाक्यों को संदर्भ से बाहर ले जा रहे हैं. विलक्षण पुत्र का उल्लेख बाइबल के संदर्भ में है. वे कहना चाह रहे थे कि अंग्रेज़ खुद को भगवान मानने लगे थे. यह व्यंग्य में की गई टिप्पणी थी."

रणजीत सावरकर के मुताबिक कुछ बयान अलग करके निकाले गए हैं. वे कहते हैं, "उन्होंने जिस भाषा का इस्तेमाल किया है वह बातचीत की है और उन्होंने अंग्रेज़ों की आलोचना भी की है. अगर वे अंग्रेज़ों के आगे झुक जाते तो उस तरह की भाषा कभी नहीं होती. उन्होंने अंग्रेज़ों से कहा है कि अगर आप हमें शांतिपूर्ण तरीके से आगे बढ़ने देना चाहते हैं, तो हम ऐसा करने के लिए तैयार हैं. उन्होंने लिखा कि 1896 की कठोर परिस्थितियों ने हमें हथियार उठाने के लिए मजबूर किया. इसलिए वह यहां अंग्रेज़ों पर आरोप लगा रहे हैं. उन्होंने बंदियों के साथ हुए अमानवीय व्यवहार की बात कही है."

जहाँ मुस्लिम लीग ने 1940 के लाहौर अधिवेशन में मुसलमानों के लिए अलग देश की बात पहली बार कही थी, सावरकर ऐसा पहले से कहते आ रहे थे. उन्होंने इससे तीन साल पहले 1937 में अहमदाबाद में साफ़ शब्दों में कहा था कि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग राष्ट्र हैं और दोनों का हक़ इस भूमि पर एक बराबर नहीं है.

इस बात को सावरकर की आलोचना की एक बड़ी वजह माना जाता है.

इसके जवाब में रणजीत सावरकर कहते हैं, "एक अख़बार ने द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के विषय पर उनकी बात को गलत तरीके से छाप दिया और सावरकर ने तुरंत इसका खंडन किया. लोग केवल उसी के बारे में बात करते हैं जहाँ उनकी बात को गलत तरीके से पेश किया गया था, न कि उनके खंडन के बारे में. सावरकर के जन्म से पहले 1883 में सर सैयद अहमद ख़ान ने दो-राष्ट्र सिद्धांत की बात कही थी. सावरकर ने दो राष्ट्र सिद्धांत के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी."

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'भारत छोडो कांग्रेस का आंदोलन था'

सावरकर स्वतंत्रता संग्राम में शामिल क्यों नहीं हुए. क्यों वे 1942 के भारत छोडो आंदोलन का हिस्सा नहीं बने?

रणजीत सावरकर कहते हैं कि 1942 में कांग्रेस चाहती थी कि मुस्लिम लीग उनका समर्थन करे इसलिए महात्मा गांधी ने कहा कि आज़ादी के बाद कांग्रेस मुस्लिम लीग को सरकार बनाने देगी और जिन्ना प्रधानमंत्री बन सकते हैं.

वे कहते हैं, "सावरकर ने इसे तुष्टीकरण कहा और कहा कि अगर मुसलमानों का तुष्टीकरण जारी रहा तो इससे भारत विभाजित हो जाएगा. अम्बेडकर ने भी भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया था. 1942 का आंदोलन केवल कांग्रेस का आंदोलन था. यह कोई राष्ट्रीय आंदोलन नहीं था जिसमें सभी दल शामिल हुए हों."

रणजीत सावरकर के मुताबिक अगर सावरकर को भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल नहीं होने के कारण ब्रिटिश समर्थक करार दिया जाता है, तो अम्बेडकर और कम्युनिस्ट नेता एमएन रॉय भी ब्रिटिश समर्थक हुए.

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साठ रूपए महीने की पेंशन

सावरकर की एक और बड़ी आलोचना अंग्रेज़ी शासन से हर महीने 60 रूपए की पेंशन लेने की बात पर होती है.

रणजीत सावरकर की मानें तो यह पेंशन नहीं बल्कि नज़रबन्दी भत्ता था जो सभी दलों के राजनीतिक बंदियों को दिया जाता था. उनके मुताबिक सावरकर को यह भत्ता डेढ़ साल बाद मिला और बाकी बंदियों को जो मिल रहा था उसका आधा ही मिला.

वे कहते हैं, "यह पेंशन नहीं बल्कि डिटेंशन अलाउंस था क्योंकि सरकार आपको एक ऐसी जगह पर रख रही थी जहां आपके पास आजीविका कमाने का कोई ज़रिया नहीं है. सावरकर को रत्नागिरी में रखा गया था और उन्हें वकालत करने की अनुमति नहीं थी क्योंकि उनकी एलएलबी की डिग्री मुंबई विश्वविद्यालय ने रद्द कर दी थी और उन्हें रत्नागिरी में भी कानून की प्रैक्टिस करने की अनुमति से वंचित कर दिया गया था. सावरकर की करोड़ों की संपत्ति जब्त कर ली गई. क्या वह 60 रुपये की पेंशन के लिए समझौता करेंगे? यह हास्यास्पद है. अगर उन्होंने अंग्रेज़ों से समझौता किया होता तो वो अपनी संपत्ति वापस मांग लेते."

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सावरकर की राजनीतिक ज़िन्दगी के दो दौर

वरिष्ठ पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बड़े नामों पर 'द आरएसएस: आइकन्स ऑफ़ द इंडियन राइट' नाम की किताब लिखी है जिसमें सावरकर पर भी एक अध्याय है.

वे कहते हैं कि सावरकर में दो सावरकर नज़र आते हैं. "पहले सावरकर हिंदुस्तान में बड़े होते हैं, उन्हें छात्रवृत्ति मिलती है , वो राष्ट्रवादी गुटों में शमिल होते हैं, विलायत जाते हैं, लंदन में इंडिया हाउस में रहते हैं, वहां भारतीय क्रांतिकारी राष्ट्रवादियों में शामिल होते हैं, 1857 की क्रांति पर एक अच्छी किताब लिखते हैं जिसमें वो कहते हैं कि 1857 की क्रांति ब्रिटिश साम्राज्य के लिए इतना बड़ा ख़तरा इसलिए बन गई थी क्योंकि हिंदू-मुसलमान इकट्ठे होकर लड़े थे. यानी एक तरह से वह हिंदू-मुस्लिम एकता का समर्थन कर रहे थे और इसे ब्रिटिश साम्राज्यवाद का मुकाबला करने के तरीके के तौर पर देख रहे थे."

मुखोपाध्याय कहते हैं कि सावरकर 1910 में नासिक के कलेक्टर की हत्या में शामिल होने के आरोप में लंदन में गिरफ़्तार करने के बाद काला पानी भेज दिया गया था.

वे कहते हैं, "सावरकर का हृदय परिवर्तन उनकी किताब 'हिंदुत्व: हम कौन हैं' से स्पष्ट होता है. वो साथ-साथ उपन्यास और नाटक भी लिखते हैं जो सांप्रदायिक तौर पर भड़काऊ होते हैं. वो राजनीतिक तौर पर बलात्कार के इस्तेमाल को जायज़ ठहराते हैं. वो कहते हैं कि अगर मुसलमान आक्रमणकारियों ने हिंदू औरतों की इज़्ज़त लूटी तो हिन्दू राजाओं को भी ऐसा ही करना चाहिए था."

मुखोपाध्याय का मानना है कि हिंदुस्तान के उदारवादी, प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष लोगों की परेशानी सावरकर की राजनीतिक ज़िन्दगी के दूसरे दौर से है. "उदारवादी भी मानते हैं कि सावरकर अपने पहले दौर में राष्ट्रवादी भावना से चल रहे थे और वे राष्ट्रवादी थे. उनके इस्लाम-विरोधी और संप्रदायवाद के सिद्धांत दूसरे दौर में आए. आज की सत्ता सावरकर की ज़िंदगी के दूसरे दौर में लगे धब्बों को उनके पहले दौर का गुणगान करके मिटाना चाहती है."

वे कहते हैं कि अंडमान जाने के पहले के सावरकर और अंडमान जाने के बाद के सावरकर के बीच के अंतर को समझना होगा. "कांग्रेस से जुड़े लोग अंडमान से पहले की पूरी अवधि और उनके जेल जाने से पहले की गतिविधियों की बात नहीं करते. जबकि दूसरा पक्ष माफ़ीनामों और उसके बाद की बातों को नहीं देखना चाहता."

नीलांजन मुखोपाध्याय की किताब 'द आरएसएस-आइकॉन्स ऑफ़ द इंडियन राइट'

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बीजेपी का सावरकर प्रेम

साल 2000 में वाजपेयी सरकार ने तत्कालीन राष्ट्पति केआर नारायणन को सावरकर को भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' देने का प्रस्ताव भेजा था जिसे नारायणन ने अस्वीकार कर दिया था.

साल 2014 में नरेंद्र मोदी ने 26 मई को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली और उसके दो दिन बाद सावरकर की 131वीं जन्म तिथि पर संसद भवन में सावरकर के चित्र के सामने सिर झुकाकर उन्हें श्रद्धांजलि दी. ये वही चित्र था जिसका अनावरण 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने संसद के सेंट्रल हॉल में किया था.

उस समय पूरे विपक्ष ने इस आयोजन का बहिष्कार किया था.

जहाँ आरएसएस के लोग सावरकर का गुणगान करते नहीं थकते, वहीं सावरकर का आरएसएस के प्रति रवैया अपने आप में बहुत दिलचस्प था.

अपनी किताब 'आइकंस ऑफ़ इंडियन राइट' में नीलांजन मुखोपाध्याय ने लिखा है कि एक संगठन के तौर पर सावरकर आरएसएस को बहुत महत्व नहीं देते थे, 1937 में सावरकर ने कहा था कि आरएसएस के स्वयंसेवक का स्मृति-लेख कुछ ऐसा होगा, "वह पैदा हुआ था, वह आरएसएस में शामिल हो गया और बिना कुछ हासिल किए मर गया."

मुखोपाध्याय कहते हैं, "यह विडंबना है कि आरएसएस की स्थापना सवारकर के लेखन से प्रेरित होकर की गई थी, लेकिन वह कभी भी आरएसएस में शामिल नहीं हुए और आरएसएस के बारे में ऐसी तीखी टिप्पणी की."

जानकारों के मुताबिक सावरकर जहां एक तरफ बार-बार औपनिवेशिक शासन के सामने याचना करते दिखे, वहीं दूसरी तरफ उन्होंने महात्मा गांधी और उनके तरीकों की खुलकर आलोचना की.

अपनी पुस्तक में मुखोपाध्याय लिखते हैं कि सावरकर ने एक बार महात्मा गाँधी के असहयोग और खिलाफ़त आंदोलनों की निंदा करते हुए उनकी 'अहिंसा और सत्य की विचित्र परिभाषाओं' के बारे में टिप्पणी की थी और कहा था कि ख़िलाफत आंदोलन एक 'आफत' साबित होगा.

मुखोपाध्याय के मुताबिक अंग्रेज़ों के लिए सावरकर को रिहा करते वक़्त निर्णायक बात ये थी कि उन्होंने पांच साल की अवधि के लिए सरकार की सहमति के बिना सार्वजनिक या निजी तौर पर किसी भी तरह की राजनीतिक गतिविधियों में शामिल नहीं होने का वादा किया था.

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