रोहित कुमार

उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।’ कठोपनिषद के प्रथम अध्याय में आए इस मंत्र की चर्चा जीवन में सकारात्मक प्रवृत्तियों के विकास और प्रेरणा के लिए खूब होती है। स्वामी विवेकानंद ने इस मंत्र को ही आधार बनाकर ‘उठो-जागो’ का नारा दिया था। कठोपनिषद के इस मंत्र के शाब्दिक अर्थ से आगे थोड़े गहरे भाष्य में जाएं तो यह मंत्र कहता है कि ज्ञान प्राप्त करने और उसे साधने का मार्ग अस्त्रों को साधने जितना ही कठिन है। यहां ज्ञान को अस्त्र के समान बताया गया है अर्थात ज्ञान मारक और प्रतिरक्षा दोनों स्थितियों में कारगर हथियार है। ज्ञान के प्रयोग की विधा सबको सुलभ नहीं होती। इसीलिए कहा गया कि श्रेष्ठ ज्ञानियों के पास जाकर ही ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है।

कबीर के यहां आकर यही संदर्भ गुरु की महिमा में बदल जाता है और वे बिना लाग-लपेट के कह उठते हैं कि गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊपर है। कबीर सगुणवादी नहीं हैं, इसलिए उनके यहां भक्ति का मतलब सीधे-सीधे ज्ञान या तत्वबोध है। इस लिहाज से देखें तो कबीर न तो किसी गफलत में पड़ते हैं और न ही उससे उबरते हैं। हां, अपनी बातों को सांसारिक व्यावहारिकता का जामा पहनाते हुए जरूर पहले दुविधा की बात कहते हैं और आगे चलकर गुरु और ज्ञान के साथ चलने का विवेक सम्मत निर्णय लेते हैं।

कठोपनिषद का दूसरा नाम ‘नचिकेतोपाख्यान’ है क्योंकि इसमें नचिकेता की कहानी है जो आत्मज्ञान की खोज करता है। ज्ञान के दार्शनिक विमर्श में जिस एक बात पर खास जोर दिया गया है, वह है आत्मबोध। यह बोध दरअसल आत्मशक्ति का बोध है। ओशो इस सिलसिले में कहते हैं कि मैं प्रत्येक मनुष्य के भीतर अनंत शक्तियों को प्रसुप्त अवस्था में देखता हूं। इन शक्तियों में से अधिक शक्तियां सोई ही रह जाती हैं और हमारे जीवन के सोने की अंतिम रात्रि आ जाती है। हम इन शक्तियों और संभावनाओं को जगा ही नहीं पाते। इस तरह हम में से ज्यादातर लोग आधे ही जीते हैं या कहें कि उससे से भी कम।

आधुनिकता ने मनुष्य के जीवन को जहां एक तरफ मशीनी बना दिया है, वहीं जीवन और व्यवहार से नैतिकता और मौलिकता दोनों दूर होती गई है। बाहर के बढ़ते प्रभाव के बीच हमारी बहुत-सी शारीरिक और मानसिक शक्तियां अधूरी ही उपयोग में आती हैं और आध्यात्मिक शक्तियां तो उपयोग में आती ही नहीं। हम स्वयं में छिपे शक्ति स्रोतों को न्यूनतम मानकर चलते हैं, यही हमारी आंतरिक दरिद्रता का मूल कारण है।

विलियम जेम्स ने आधुनिक मनुष्य की त्रासदी को लेकर कहा है कि उसकी अग्नि बुझी-बुझी जलती है और इसलिए वह स्वयं की आत्मा के ही समक्ष भी अत्यंत हीनता में जीता है। इस हीनता से ऊपर उठना बहुत जरूरी है। अपने ही हाथों दीन-हीन बने रहने से बड़ा कोई पाप नहीं।

भूमि की खुदाई से जल-स्रोत मिलते हैं, ऐसे ही जो स्वयं का अनावरण सीख जाते हैं, वे स्वयं में ही छिपे अनंत शक्ति-स्रोतों को उपलब्ध होते हैं। पर उसके लिए सक्रिय और सृजनात्मक होना होगा। जिसे स्वयं की पूर्णता को पाना है, वह- जबकि दूसरे विचार ही करते रहते हैं- विधायक रूप में सक्रिय हो जाता है। वह जो थोड़ा सा जानता है, उसे ही पहले क्रिया में परिणत कर लेता है। वह बहुत जानने के लिए नहीं रुकता। इस तरह एक-एक कुदाली चलाकर वह स्वयं में शक्ति का कुआं खोद लेता है, जबकि मात्र विचार करने वाले बैठे ही रह जाते हैं।

विधायक सक्रियता और सृजनात्मकता से ही सोई शक्तियां जाग्रत होती हैं और व्यक्ति अधिक से अधिक जीवित बनता है। जो व्यक्ति अपनी पूर्ण संभावित शक्तियों को सक्रिय कर लेता है, वही पूरे जीवन का अनुभव कर पाता है और वही आत्मा का भी अनुभव करता है। क्योंकि, स्वयं की समस्त संभावनाओं के वास्तविक बन जाने पर जो अनुभूति होती है, वही आत्मा है।

हिंदी के प्रसिद्ध गीतकार गोपाल सिंह नेपाली की प्रसिद्ध कविता है- ‘तुम कल्पना करो, नवीन कल्पना करो।’ नेपाली यह बात लंबी दासता के बाद स्वाधीन देश के वासियों को जगाने के लिए कहते हैं। कविता के आखिर में वे कहते हैं कि भावना अगर गुलाम रही तो गुलामी फिर लौट भी सकती है। और यह एक की गुलामी से शुरू होकर पूरे देशकाल पर हावी होगी। नेपाली की इस कविता में प्रेरणा और उत्साह के लिहाज से जो बात कही गई है, उसे दार्शनिक बोध की गहराई तक ले जाएं तो भावना की जगह हमें विचार को रखकर देखना होगा। हर दौर में वैचारिक आजादी की बात होती रही है।

आज जब दुनिया सत्य से आगे (पोस्ट ट्रुथ) के दौर में पहुंच गई है और इस बारे में दुनियाभर में गहन विमर्श का सिलसिला शुरू हुआ है तो मनुष्य और विचार के संबंध की भी नए सिरे से व्याख्या हो रही है। अलबत्ता ओशो इस सिलसिले में मौजूदा हालात से आगे की बात कह गए हैं। वे विचार और जीवन के संदर्भ में कहते हैं- विचार पर ही मत रुके रहो। चलो और कुछ करो। हजार मील चलने के विचार करने से एक कदम चलना भी ज्यादा मूल्यवान है, क्योंकि वह कहीं तो पहुंचता है। उनकी बातों को थोड़ा संशोधित कर कहें तो कहेंगे कि दो तरह की यात्राएं हैं। एक प्रेरणा की अंतरयात्रा और दूसरी युगीन दरकारों-सरोकारों को पूरी करने वाली कर्म और पुरुषार्थ की यात्रा।