जलियाँवाला बाग़ का बदला 21 साल बाद ऊधम सिंह ने ऐसे लिया था
- रेहान फ़ज़ल
- बीबीसी संवाददाता
मारियो पुज़ो के लिखे अंग्रेज़ी उपन्यास 'द गॉड फ़ादर' में एक डायलॉग है, "रेवेंज इज़ अ डिश दैट टेस्ट्स बेस्ट वेन इट इज़ कोल्ड."
मतलब 'बदला एक ऐसा पकवान है जो सबसे स्वादिष्ट तभी लगता है, जब उसे ठंडा करके परोसा जाए.'
ये जुमला पूरी तरह से ऊधम सिंह की ज़िंदगी पर लागू होता है जिन्होंने साल 1919 में हुए जलियाँवाला बाग़ में हुए हत्याकांड का बदला लेने के लिए पूरे 21 साल तक इंतज़ार किया.
तब तक जलियाँवाला बाग़ में गोली चलवाने वाले ब्रिगेडियर रेजिनॉल्ड डायर की मौत हो चुकी थी. लेकिन ऊधम सिंह की गोलियों का शिकार बने उस समय पंजाब के लेफ़्टिनेंट गवर्नर रहे माइकल ओ ड्वाएर. वही माइकल ओ ड्वाएर, जिन्होंने क़दम-क़दम पर उस हत्याकांड को उचित ठहराया था.
जलियाँवाला के समय कहाँ थे ऊधम?
आम धारणा ये है कि जिस समय जलियाँवाला बाग़ में क़त्लेआम हो रहा था, ऊधम सिंह वहाँ स्वयं मौजूद थे और उन्होंने वहाँ की मिट्टी उठा कर क़सम खाई थी कि वो एक दिन इस ज़्यादती का बदला लेंगे लेकिन ऊधम सिंह पर बहुचर्चित किताब 'द पेशेंट असैसिन' लिखने वाली बीबीसी की मशहूर प्रेज़ेंटर अनीता आनंद इससे सहमत नहीं हैं.
अनीता आनंद कहती हैं, "सिर्फ़ ऊधम सिंह को ही पता था कि वो उस दिन कहाँ थे. मैंने ये पता लगाने की बहुत कोशिश की कि उस दिन ऊधम सिंह कहाँ थे, लेकिन मुझे कोई ख़ास सफलता नहीं मिली."
अनीता के मुताबिक़, "ब्रिटिश लोगों ने अपनी तरफ़ से बहुत कोशिश की कि ऊधम सिंह का नाम जलियाँवाला बाग़ से कभी न जोड़ा जा सके, लेकिन उनकी ये मुहिम कामयाब नहीं हुई. निजी तौर पर मेरा मानना है कि ऊधम उस समय पंज़ाब में थे लेकिन फ़ायरिंग के समय बाग़ में मौजूद नहीं थे."
भारतीयों के बारे में ड्वाएर की राय
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अब ये भी जान लिया जाए कि जलियाँवाला बाग़ के मुख्य सूत्रधारों में से एक माइकल ओ ड्वाएर कौन थे और रिटायरमेंट और भारत से वापस लौटने के बाद लंदन में क्या कर रहे थे?
अनिता आनंद बताती हैं, "भारत में सर माइकल का समय 1919 में ही समाप्त हो गया था, लेकिन उसके बाद भी उन्हें उनके कार्यकाल के दौरान हुई घटनाओं के ज़रिए ही जाना गया. उन्होंने हर मंच पर पंजाब में उठाए गए कदमों को सही ठहराया."
अनीता के मुताबिक़, "वो दक्षिणपंथ के बहुत बड़े 'पोस्टर बॉय' बन गए. उनको राष्ट्रवादियों से सख़्त नफ़रत थी. कई अंग्रेज़ थे जो भारत में काम करते हुए भारतीय लोगों और वहाँ की संस्कृति से प्यार करते थे. माइकल ओ ड्वाएर उन लोगों में से नहीं थे. उन्होंने भारतीयों पर कभी विश्वास नहीं किया."
अनीता आनंद बताती हैं,"माइकल का मानना था कि भारतीय लोगों में नस्लीय कमी है कि वो अपने ऊपर शासन नहीं कर सकते. उनका ये भी मानना था कि अंग्रेज़ों को भारत में हर क़ीमत पर रहना चाहिए और अगर भारत उन के हाथ से निकल गया तो पूरा ब्रिटिश साम्राज्य ताश के पत्तों की तरह ध्वस्त हो जाएगा."
1933 में लंदन पहुंचे थे ऊधम सिंह
साल 1933 में ऊधम सिंह ने एक जाली पासपोर्ट के ज़रिए ब्रिटेन में प्रवेश किया था. 1937 में उन्हें लंदन के शेफ़र्ड बुश गुरुद्वारे में देखा गया.
उन्होंने बेहतरीन सूट पहन रखा था. वो अपनी दाढ़ी कटा चुके थे और वहाँ मौजूद लोगों से अंग्रेज़ी में बात कर रहे थे. उस समय एक शख़्स उनसे बहुत प्रभावित हुए थे, जिनका नाम था शिव सिंह जोहल. उनसे ऊधम सिंह ने एक राज़ साझा किया था कि वो एक ख़ास अभियान को पूरा करने इंग्लैंड आए हैं. वो उनके कॉन्वेंट गार्डेन स्थित 'पंजाब रेस्तरां' में अक्सर जाया करते थे.
अल्फ़्रेड ड्रेपर अपनी किताब 'अमृतसर-द मैसेकर दैट एंडेड द राज' मे लिखते हैं, "12 मार्च, 1940 को ऊधम सिंह ने अपने कई दोस्तों को पंजाबी खाने पर बुलाया था. भोजन के अंत में उन्होंने सबको लड्डू खिलाए. जब विदा लेने का समय आया तो उन्होंने एलान किया कि अगले दिन लंदन में एक चमत्कार होने जा रहा है, जिससे ब्रिटिश साम्राज्य की चूलें हिल जाएंगीं."
कैस्टन हॉल में 'मोहम्मद सिंह आज़ाद'
13 मार्च 1940 के दिन जब लंदन जागा तो चारों तरफ़ बर्फ़ की चादर फैली हुई थी. ऊधम सिंह ने अपने वार्डरॉब से सलेटी रंग का एक सूट निकाला. उन्होंने अपने कोट की ऊपरी जेब में अपना परिचय पत्र रखा, जिस पर लिखा हुआ था-मोहम्मद सिंह आज़ाद, 8 मौर्निंगटन टैरेस, रीजेंट पार्क, लंदन.
ऊधम सिंह ने 8 गोलियाँ निकालकर अपनी पतलून की बाईं जेब में डाली और फिर अपने कोट में स्मिथ एंड वेसेन मार्क 2 की रिवॉल्वर रखी.
इस दिन का उन्होंने 21 सालों से इंतज़ार किया था.
जब वो मध्य लंदन में कैक्सटन हॉल पहुंचे तो किसी ने उनकी तलाशी लेना तो दूर, ये भी गवारा नहीं किया कि देखें कि उनके पास उस आयोजन का टिकट भी है या नहीं.
अनीता आनंद बताती हैं, "ऊधम ने अपनी हैट नीची की हुई थी. उनके एक हाथ में करीने से तह लगाया हुआ उनका ओवर कोट था. ताज्जुब की बात थी कि उस हॉल में सुरक्षा बहुत कम थी, ये देखते हुए कि वहाँ सेक्रेट्री ऑफ़ स्टेट ऑफ़ इंडिया भी तशरीफ़ रखते थे. ऊधम हॉल में घुसने वाले आख़िरी लोगों में से एक थे."
माइकल ओ ड्वाएर के दिल पर निशाना
जब दो बजे कैक्सटन हॉल के दरवाज़े खुले तो मिनटों में वहाँ की 130 कुर्सियाँ भर गईं. माइकल ओ ड्वाएर की सीट हॉल में बिल्कुल आगे दाहिने तरफ़ थी.
ऊधम सिंह पीछे जाने की बजाए दाहिने तरफ़ 'आइल' में चले गए. धीरे-धीरे चलते हुए वो चौथी पंक्ति में पहुंच गए.
माइकल ओ ड्वाएर उनसे कुछ फ़ीट की दूरी पर बैठे हुए थे और उनकी पीठ उनकी तरफ़ थी.
अनीता आनंद बताती हैं, "लोगों ने नोट किया कि ऊधम सिंह मुस्कुरा रहे थे. वो एक-एक इंच आगे बढ़ रहे थे. जैसे ही भाषण समाप्त हुए लोग अपना सामान उठाने लगे. ऊधम सिंह अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए ड्वाएर की तरफ़ बढ़े. उन्हें लगा कि वो उनसे हाथ मिलाने आ रहे हैं. लेकिन तभी उन्होंने उनके हाथ में रिवॉल्वर देखी. तब तक ऊधम सिंह उनके नज़दीक आ गए थे कि उनकी रिवॉल्वर ड्वाएर के कोट को क़रीब-क़रीब छू रही थी. ऊधम ने बिना वक़्त गंवाए फ़ायर किया. गोली ड्वाएर की पसली को तोड़ती हुई उनके दिल के दाहिने हिस्से को भेदती हुई बाहर निकल गईं."
अभी ड्वाएर पूरी तरह से धराशायी भी नहीं हुए थे कि ऊधम सिंह ने दूसरी गोली चलाई. वो गोली पहली गोली से थोड़ी नीचे पीठ में घुसी. सर माइकेल ओ ड्वाएर क़रीब-क़रीब स्लो मोशन में ज़मीन पर गिरे और सूनी आँखों से छत की तरफ़ देखने लगे.
सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट ऑफ़ इंडिया पर भी गोली
इसके बाद उन्होंने मंच पर खड़े हुए सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट ऑफ़ इंडिया रहे लॉर्ड ज़ेटलैंड के सीने का निशाना लिया. उनके शरीर के बायें हिस्से में दो गोलियाँ लगीं. वो अपने सीने को पकड़े हुए अपनी कुर्सी पर ही गिर गए.
इसके बाद ऊधम सिंह ने अपना ध्यान बंबई के पूर्व गवर्नर लॉर्ड लैमिंग्टन और पंजाब के पूर्व लेफ़्टिनेंट गवर्नर सर सुई डेन की तरफ़ मोड़ा.
उस दिन ऊधम सिंह की हर गोली निशाने पर लगी. क़ायदे से उस दिन चार लोग मरने चाहिए थे, लेकिन मौत सिर्फ़ एक ही शख़्स की हुई.
एक महिला ने पकड़वाया ऊधम सिंह को
जब ऊधम सिंह ने फ़ायरिंग बंद की, उनकी रिवॉल्वर की नाल गर्म हो चुकी थी. वो 'रास्ता छोड़ो, रास्ता छोड़ो' चिल्लाते हुए हॉल के बाहरी दरवाज़े की तरफ़ भागे.
ऊधम सिंह पर एक और किताब 'ऊधम सिंह हीरो इन द कॉज़ ऑफ़ इंडियन फ़्रीडम' लिखने वाले राकेश कुमार बताते हैं, "ड्वाएर को मारने के बाद ऊधम सिंह हॉल के पीछे की तरफ़ भागे. तभी वहाँ बैठी एक महिला बर्था हेरिंग ने उनकी तरफ़ 'डाइव' मारी."
राकेश कुमार के मुताबिक़,"वो लंबी-चौड़ी महिला थीं और ऊधम सिंह के कंधे को पकड़े हुए ज़मीन पर गिरीं. ऊधम सिंह ने अपने-आप को बर्था से छुड़ाने की भरपूर कोशिश की लेकिन तभी एक और शख़्स क्लाउड रिचेज़ ने उन्हें दोबारा ज़मीन पर गिरा दिया."
राकेश कुमार बताते हैं, "वहाँ मौजूद दो पुलिस अफ़सरों ने दौड़ कर उनकी हथेली पर अपना पैर रख कर उसे कुचल दिया. जब ऊधम सिंह की तलाशी ली गई तो उनके पास से एक छोटे बॉक्स में रखे 17 कारतूस, 1 तेज़ चाकू और उनकी पतलून की जेब में 8 कारतूस बरामद हुए."
चलाई गई छह में से चार गोलियाँ ही मिलीं
आधे घंटे के अंदर क़रीब 150 पुलिस वालों ने कैक्सटन हॉल को घेर लिया और वहीं ऊधम सिंह से सवाल-जवाब होने लगे.
वहाँ क्या कुछ हुआ, उसका विवरण अभी भी ब्रिटेन के 'द नेशनल आर्काइव्स' में अभी तक मौजूद है.
इसके मुताबिक, "जब सार्जेंट जोंस के बॉस डिटेक्टिव इंस्पेक्टर डेटन ने कमरे में घुसकर चार इस्तेमाल किए गए कारतूसों के खोलों को मेज़ पर रखा, तो ऊधम सिंह का संयम पहली बार टूटते हुए दिखाई दिया. ऊधम सिंह ने नाराज़ हो कर कहा, 'नहीं, नहीं, मैंने चार नहीं छह गोलियाँ चलाई थीं.' डेटन उन गोलियों की तलाश में दोबारा 'ट्यूडर रूम' में गए."
ऊधम सिंह के पास ये जानने का कोई तरीका नहीं था कि एक गोली माइकल ओ ड्वाएर के शरीर के अंदर अभी तक धंसी हुई है और दूसरी सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट लॉर्ड ज़ेटलैंड के सीने में उतरी हुई है.
उन्होंने पूछा कि 'जैटलैंड मरे कि नहीं? मैंने दो गोलियां तो उनके अंदर भी डाली' हैं."
हर जगह निंदा लेकिन जर्मनी में तारीफ़
इस घटना के तुरंत बाद लंदन और लाहौर में झंडे झुका दिए गए. हाउज़ ऑफ़ कॉमंस में ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने ड्वाएर के परिजनों के प्रति संवेदना व्यक्त की.
भारत में महात्मा गांधी ने इस हत्या की निंदा की. लंदन में भारतीय मूल के 200 लोगों ने इंडिया हाउस में एकत्रित हो कर इस हत्या की निंदा की.
सिर्फ़ जर्मनी ने इस हत्या का स्वागत किया. वहाँ ऊधम सिंह को स्वतंत्रता सेनानी माना गया.
जेल में क्रूरता
ऊधम सिंह को ब्रिक्सटन जेल में कोठरी नंबर 1010 में रखा गया. जेल में ऊधम सिंह के साथ बहुत क्रूर व्यवहार किया गया. वो वहाँ कई बार भूख हड़ताल पर बैठे.
इस बात के प्रमाण हैं कि उन्हें 42 बार 'फ़ोर्स-फ़ीडिंग' यानी जबरन खाना खिलाया गया.
'द नेशनल आर्काइव' में रखे दस्तावेज़ बताते हैं कि ऊधम ने पेंसिल और क़ागज़ की मांग की ताकि वो डिटेक्टिव इंस्पेक्टर जॉन स्वेन के अफ़सरों के एक औपचारिक पत्र लिख सकें.
उन्होंने इस पत्र में फ़रमाइश की, ''मुझे सिगरेट भिजवाई जाएं और मेरी एक लंबी आस्तीन की कमीज़ और भारतीय स्टाइल के जूते भी मुझ तक पहुंचा दिए जाएं.''
ऊधम ने ये भी पूछा कि क्या उनके फ़्लैट से उनकी सूती पतलून और पगड़ी मंगवाई जा सकती है, ताकि वो उन्हें जेल में पहन सकें.
उन्होंने लिखा, "हैट यानी टोपी मुझे माफ़िक नहीं लगती, क्योंकि मैं भारतीय हूँ.''
ऊधम सिंह की कोशिश थी कि वो इन चीज़ों को पहनकर मामले को राजनीतिक रंग दे दें.
मौत से डर नहीं
मुक़दमे के दौरान ऊधम सिंह ने ब्रिटिश सरकार की साख गिराने का कोई मौक़ा नहीं चूका.
अल्फ़्रेड ड्रेपर अपनी किताब 'अमृतसर- द मैसेकर दैट एंडेड द ब्रिटिश राज' में लिखते हैं, "जज ने उन्हें आगाह किया कि वो बस ये बताएं कि उन्हें फाँसी की सज़ा क्यों न दी जाए."
ऊधम सिंह ने चिल्लाकर कहा, "मौत की सज़ा की मुझे कोई परवाह नहीं है, मैं एक उद्देश्य की पूर्ति के लिए मर रहा हूँ. मैंने ऐसा किया क्योंकि मुझे ड्वाएर से शिकायत थी. वो ही असली अपराधी था. वो मेरे लोगों के हौसले को कुचल देना चाहता था. इसलिए मैंने उसे ही कुचल दिया."
उन्होंने कहा, "मैंने बदला लेने के लिए पूरे 21 सालों तक इंतज़ार किया. मैं ख़ुश हूँ कि मैंने अपना काम पूरा किया. मुझे मौत से डर नहीं लगता. मैं अपने देश के लिए मर रहा हूँ."
पेंटनविले जेल में फांसी
31 जुलाई, 1940 को जर्मन विमानों की बमबारी के बीच सुबह 9 बजे ऊधम सिंह को पेंटनविले जेल में फांसी पर चढ़ा दिया गया.
जब उनके ताबूत पर मिट्टी का आख़िरी फावड़ा डाला गया तो अंग्रेज़ों ने सोचा कि उन्होंने इसके साथ ही उनकी कहानी भी हमेशा के लिए दफ़न कर दी है. लेकिन ऐसा हुआ नहीं.
भारत वापसी
19 जुलाई, 1974 को उनके पार्थिव शरीर को उनकी क़ब्र से बाहर निकाला गया और एयर इंडिया के चार्टर्ड विमान पर भारत लाया गया.
अनीता आनंद कहती हैं, "जब ऊधम का पार्थिव शरीर लिए हुए विमान ने भारतीय ज़मीन को छुआ तो वहाँ मौजूद लोगों की आवाज़ विमान के इंजन की आवाज़ से कहीं अधिक थी. दिल्ली हवाई अड्डे पर उनका स्वागत ज्ञानी ज़ैल सिंह और शंकरदयाल शर्मा ने किया, जो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने."
अनीता बताती हैं,"हवाई अड्डे पर भारत के विदेश मंत्री स्वर्ण सिंह भी मौजूद थे. उनके पार्थिव शरीर को कपूरथला हाउस ले जाया गया, जहाँ उनके स्वागत के लिए इंदिरा गाँधी मौजूद थीं. भारत के जिस-जिस हिस्से में उनकी शव यात्रा गईं, लोगों ने हज़ारों की तादाद में आ कर उसका स्वागत किया."
उस समय पंजाब के मुख्यमंत्री ज्ञानी ज़ैल सिंह ने उनकी चिता को आग लगाई. 2 अगस्त 1974 को उनकी अस्थियाँ इकट्ठा की गईं. उनको सात कलशों में रखा गया. उनमें से एक को हरिद्वार, दूसरे को किरतपुर साहब गुरुद्वारा और तीसरे कलश को रउज़ा शरीफ़ भेजा गया.
आख़िरी कलश को 1919 में हुए नरसंहार के स्थल जलियाँवाला बाग़ ले जाया गया. 2018 में जलियाँवाला बाग़ के बाहर ऊधम सिंह की मूर्ति लगाई गई. उसमें उनको अपनी मुट्ठी में ख़ून से सनी मिट्टी को उठाए हुए दिखाया गया है.
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