उत्तर प्रदेश: पिछले चुनाव में 'क़ब्रिस्तान', तो क्या इस बार 'अब्बाजान' और 'चचाजान' ही मुद्दा बनेंगे?
- सलमान रावी
- बीबीसी संवाददाता
उत्तर प्रदेश में अगले साल फ़रवरी में होने वाले विधान सभा चुनाव के लिए बिसात बिछ चुकी है. अब जो राजनीतिक हालात दिख रहे हैं, उससे बड़े दलों के बीच कोई चुनाव पूर्व गठबंधन होता नज़र नहीं आ रहा है. ऐसे में प्रदेश में बहुकोणीय संघर्ष होना बिलकुल तय माना जा रहा है.
अलबत्ता समाजवादी पार्टी ने कुछ 'छोटे दलों' के साथ गठबंधन करने के संकेत दिए हैं, जिसमें राष्ट्रीय लोक दल के साथ तो सहमति भी बन चुकी है.
समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने राष्ट्रीय लोक दल के साथ गठबंधन की औपचारिक घोषणा करते हुए ये संकेत भी दिए हैं कि वो संजय चौहान के नेतृत्व वाले 'अपना दल' और अपने चाचा शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) से गठबंधन कर सकते हैं.
उसी तरह मानवेंद्र आज़ाद के नेतृत्व वाली 'आज़ाद भारत पार्टी (डेमोक्रेटिक)' ने बहुजन समाज पार्टी में अपना विलय कर लिया है. विलय के कार्यक्रम के दौरान बसपा के महासचिव सतीश चंद्र मिश्र ने कहा कि वर्ष 2007 में जब बसपा की सरकार बनी थी, तो प्रदेश में 1.10 लाख लोगों को नौकरियां दी गई थीं.
सतीश चंद्र मिश्र ने ये भी कहा कि "महान हस्तियों के स्मारक और उनके नाम पर उद्यान बनाने के चलते बसपा सुप्रीमो मायावती पर कुल 110 मुक़दमे दायर किए गए."
उनका कहना था कि बसपा हर वर्ग को साथ लेकर चलना चाहती है. उनका यह बयान इसलिए भी मायने रखता है, क्योंकि हाल ही में बसपा ने ब्राह्मणों को अपनी पार्टी की ओर खींचने के लिए 'ब्राह्मण सम्मलेन' करने के साथ ही पार्टी के प्रमुख प्रवक्ताओं के रूप में दो मुसलमानों की नियुक्ति भी की.
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छोटे दलों को साथ लेकर चलने की कोशिश
इतना तो दिख रहा है कि राष्ट्रीय हों या क्षेत्रीय दल, सभी आपस में कोई समझौता करने की बजाय छोटे दलों को अपने साथ लेकर चलने की कोशिश में लगे हैं.
इनमें सबसे पहले बाज़ी मारने का दावा करने वाली पार्टी 'ऑल इंडिया मजलिस इत्तेहादुल मुस्लिमीन' यानी एआईएमआईएम रही है. पार्टी के मुखिया असदुद्दीन ओवैसी ने ऐलान किया है कि उनकी पार्टी ने सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के ओम प्रकाश राजभर के साथ मिलकर 'भागीदारी संकल्प मोर्चा' बनाया है.
दो दिनों पहले 'भागीदारी संकल्प मोर्चा' की बैठक 'भीम आर्मी' के चंद्रशेखर आज़ाद के साथ भी हुई. इससे संकेत मिले हैं कि वो भी इस गठबंधन में शामिल हो सकते हैं. पिछले चुनाव में, राजभर की पार्टी का गठबंधन भारतीय जनता पार्टी के साथ था और बाद में वो योगी आदित्यनाथ की सरकार में मंत्री भी बने. हालांकि लोकसभा चुनावों के पहले उन्होंने भाजपा से अपनी पार्टी के संबंध ख़त्म कर लिए थे.
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कई चुनावों बाद फिर से बहुकोणीय संघर्ष
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जानकारों का मानना है कि पिछले कुछ दशकों में ऐसा पहली बार होगा कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में बहुकोणीय संघर्ष देखने को मिलेगा. ऐसे में किसी भी राजनीतिक दल को इस बार के चुनाव में काफ़ी ज़ोर लगाना पड़ेगा.
उत्तर प्रदेश के दो प्रमुख क्षेत्रीय दलों - समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी, दो राष्ट्रीय दलों - भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के अलावा क्षेत्रीय दलों ने भी उसी हिसाब से अपनी रणनीति लगभग बना ली है.
राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में वर्ष 2014 से ही बदलाव देखने को मिला. उस समय भाजपा ने मोदी लहर पर सवार होकर केंद्र में अपनी सरकार बनायी.
लखनऊ में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार विजेंद्र भट्ट कहते हैं कि 2017 में भाजपा ने उसी 'सोशल इजीनियरिंग' का सहारा लिया, जिसके सहारे पहले कांग्रेस और फिर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी, राज्य की सत्ता पर क़ाबिज़ होते रहे.
भट्ट कहते हैं कि 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने ग़ैर-यादव ओबीसी और ग़ैर-जाटव दलित वर्गों के बीच अपनी पैठ बनाने में कामयाबी हासिल कर ली. ये चुनाव इसलिए भी अहम था, क्योंकि समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच गठबंधन हुआ था.
उसी तरह 2019 के लोकसभा चुनाव में राज्य की राजनीति में जो हुआ, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. उस दौरान बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के बीच गठबंधन हुआ था. ऐसा लग रहा था कि ये गठबंधन अपने पक्ष में 'क्लीन स्वीप' कर लेगा. लेकिन उस चुनाव ने इस गठबंधन की उम्मीदों पर पानी फेर दिया और चुनाव बाद दोनों ही दलों ने इसका ठीकरा एक-दूसरे पर फोड़ा.
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कई 'फॉल्ट लाईन' हैं समाज में
विजेंद्र भट्ट कहते हैं, "उत्तर प्रदेश के समाज में धर्म, जाति और क्षेत्र के कई 'फॉल्ट लाईन' मौजूद हैं. राजनीतिक दल इन्हीं 'फॉल्ट लाईन' का फ़ायदा उठाते हुए चुनावों का प्रबंधन करते हैं और जीत भी हासिल करते रहे हैं.''
वो कहते हैं कि इसके चलते चुनावों के आते-आते सारे गंभीर और जन-सरोकार के मुद्दे गौण हो जाते हैं और चुनाव क्षेत्रवाद, संप्रदायवाद और जाति की बुनियाद पर ही लड़े जाते हैं.
आख़िर इस चुनाव में कोई भी क्षेत्रीय या राष्ट्रीय दल, चुनाव पूर्व गठबंधन क्यों नहीं बनाना चाहते?
इस बारे में, समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता अब्दुल हफीज़ घांदी ने बीबीसी को बताया कि उनकी पार्टी ने बहुत सोच-विचार किया तो पाया कि उन्होंने जब भी कोई गठबंधन किया तो उससे पार्टी को नुक़सान ही हुआ.
उनका कहना था, "2017 में कांग्रेस के साथ गठबंधन हुआ था और कांग्रेस ने 105 सीटों पर चुनाव भी लड़ा. लेकिन वो सिर्फ़ 7 सीटें ही जीत पाए. उसी तरह 2019 के लोकसभा चुनाव में हमारा गठबंधन बसपा के साथ हुआ था. नतीज़ों के आकलन पर पता चला कि बसपा का जो वोट शेयर है, वो खिसक कर भाजपा की ओर चला गया."
घांदी कहते हैं कि कांग्रेस के साथ गठबंधन का नुक़सान तो राष्ट्रीय जनता दल को बिहार विधानसभा चुनाव में भी हुआ. उनके अनुसार, "बिहार में लगभग 70 ऐसी सीटें थीं, जिन पर कांग्रेस के उम्मीदवार होने के चलते वो सीटें भाजपा को चली गयीं."
समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बारे में विश्लेषक बताते हैं कि ये दोनों क्षेत्रीय दल जातियों की सोशल इंजीनियरिंग के सहारे ही उत्तर प्रदेश की सत्ता तक अपना रास्ता बनाने में कामयाबी रहे.
वरिष्ठ पत्रकार विजेंद्र भट्ट कहते हैं कि इस बार के विधानसभा चुनाव में भी पार्टियों की कुछ ऐसी ही भूमिका नज़र आ रही है, जो जातियों को रिझाने में जुटी हुई हैं.
वो कहते हैं. "बसपा जहां दलितों और ब्राह्मणों को मिलाकर 36 प्रतिशत मतों के ध्रुवीकरण में लगी है. वहीं समाजवादी पार्टी को लगता है कि अगर उसे यादवों और मुसलमानों के 40 प्रतिशत मत मिल जाएं, तो सत्ता की चाभी उसके पास ही होगी. उधर, भाजपा दलितों, ओबीसी और सवर्णों का ज़्यादातर मत हासिल करने की हर संभव कोशिश कर रही है."
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ओवैसी के उतरने से विपक्षी खेमा असहज
उत्तर प्रदेश के चुनावों के बारे में माना जाता है कि यहाँ के 19 प्रतिशत मुसलमान भी निर्णायक भूमिका निभाते हैं. इसलिए ओवैसी के चुनावी मैदान में उतरने से कांग्रेस, बसपा और समाजवादी पार्टी के खेमों में काफ़ी असहजता देखी जा रही है. इन दलों का कहना है कि ओवैसी की मौज़ूदगी इस चुनाव में भाजपा को फायदा पहुंचाएगी.
उत्तर प्रदश में सवर्णों की आबादी 18 से 20 फ़ीसदी है, तो दलितों की 19 से 20 फ़ीसदी. वहीं राज्य में ओबीसी का हिस्सा 40 प्रतिशत का है, जबकि मुसलमान 19 प्रतिशत.
एआईएमआईएम के प्रदेश अध्यक्ष शौकत अली ने बीबीसी को बताया कि उनकी पार्टी को उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ने का उतना ही अधिकार है, जितना कि शिवसेना का.
वो कहते हैं, "शिवसेना ने घोषणा की है कि वो राज्य में 100 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़ा करेगी. इस ऐलान पर किसी को कोई आपत्ति नहीं है. कोई नहीं कह रहा है कि हिन्दुओं के वोट बंट जाएंगे. लेकिन जब एआईएमआईएम चुनाव लड़ने का फैसला करती है, तो वो कह रहे हैं कि असदुद्दीन ओवैसी भाजपा के एजेंट हैं और मुसलामानों को बांट रहे हैं. ये हास्यास्पद नहीं तो क्या है.''
शौकत अली कहते हैं, ''ये बात वो बोल रहे हैं, जिन्होंने मुसलमानों को भाजपा का खौफ़ दिखाकर उन्हें वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया. मुस्लिम बहुल इलाकों से यही डर दिखाकर अपने उम्मीदवार जितवाए. इसमें कांग्रेस, बसपा और समाजवादी पार्टी, सब शामिल हैं."
उनका कहना है कि उत्तर प्रदेश में महंगाई, बेरोज़गारी और कोरोना महामारी के कुप्रबंधन के चलते सत्ता विरोधी लहर है. वे कहते हैं कि अफ़सोस है कि चुनाव में इन मुद्दों का न उठाकर हिंदू-मुसलमान का ही मसला उठाया जा रहा है.
मज़बूती से चुनाव लड़ने का कांग्रेस का दावा
उधर, उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू भी कहते हैं कि गठबंधन में चुनाव लड़ने के चलते कांग्रेस को काफी नुकसान उठाना पड़ा.
हालांकि 2016 में राहुल गांधी ने किसान-खेत यात्रा निकाली थी, जिसे आम-किसानों का समर्थन मिला था. अजय कुमार लल्लू के अनुसार, 2017 में हुए गठबंधन के चलते उनके कार्यकर्ता निराश हो गए.
बीबीसी से बात करते हुए वो कहते हैं कि इस बार कांग्रेस पूरी तैयारी के साथ मैदान में उतर रही है. वे दावा करते हैं कि उनकी पार्टी ने पिछले कई सालों से जनता और किसानों के मुद्दों को लेकर सड़कों पर संघर्ष किया है.
कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष बताते हैं, "उस समय भी सत्ता-विरोधी लहर थी और कांग्रेस का संघर्ष सत्ता की नीतियों के ख़िलाफ़ था. लेकिन गठबंधन होने के चलते पार्टी के प्रयासों पर पानी फिर गया. अब प्रियंका गांधी ने राज्य में संगठन की कमान संभाली है और वो सड़कों पर संघर्ष कर रहीं हैं, जिससे लोगों के बीच कांग्रेस की पहले जैसी जगह फिर से बन रही है.''
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हालांकि वरिष्ठ पत्रकार विजेंद्र भट्ट को ऐसा नहीं लगता.
वो कहते हैं कि बेशक महंगाई और बेरोज़गारी से लोग त्रस्त हैं, मगर उत्तर प्रदेश की सरकार को इन मुद्दों पर घेरने के लिए विपक्षी राजनीतिक दलों ने वैसा संघर्ष नहीं किया, जैसा कि होना चाहिए था.
उन्होंने कहा, "कुछ दल तो चुनाव के करीब आने के बाद अब जाकर जागे हैं, जबकि 4.5 सालों तक मुद्दों को लेकर वो कहीं संघर्ष करते नज़र नहीं आए. पिछला चुनाव कब्रिस्तान के मुद्दे पर तो ये चुनाव अब्बाजान और चचाजान जैसी बातों पर ही लड़ा जाएगा और इसे विपक्ष ही हवा दे रहा है."
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