ब्रह्मदीप अलूने

चीन का बढ़ता रक्षा बजट भारत के लिए चिंता का बड़ा कारण है। चीन ने बैलिस्टिक मिसाइलों के लिए भारी निवेश किया है। ऐसे में उसे रोकने के लिए अमेरिका ही प्रतिबद्ध नजर आता है। इसके लिए उसकी अपने अन्य सहयोगियों से भी उम्मीदें बढ़ गई हैं।

शक्ति संतुलन और सामूहिक सुरक्षा की मान्यताएं सैन्य प्रतिरोध के सिद्धांत पर आधारित होती हैं। हालांकि शांति की स्थापना के लिए युद्ध की आवश्यकताओं को भी स्वीकार किए जाने से कोई परहेज नहीं दिखता। चीन की सामरिक, आर्थिक और राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं और आक्रामक व्यवहार ने एशिया-प्रशांत क्षेत्र में युद्ध की आशंकाओं को बढ़ा दिया है।

अब इस क्षेत्र के ऐसे देश भी परमाणु जखीरा और अत्याधुनिक हथियार बढ़ाने को मजबूर हो गए हैं जो अब तक अपेक्षाकृत शांत समझे जाते थे। हाल में अमेरिका, ब्रिटेन और आॅस्ट्रेलिया के बीच जो रक्षा समझौता हुआ है, उसे आॅकस नाम दिया गया है। इस समझौते के अनुसार अमेरिका अपनी पनडुब्बी तकनीक आॅस्ट्रेलिया को देगा। जाहिर है, इसके बाद आॅस्ट्रेलिया की नौसेना दुनिया की उन चुनिंदा सैन्य शक्तियों की बराबरी में खड़ी होगी जो परमाणु हथियारों से सुसज्जित मानी जाती हैं। कई दशकों पहले अमेरिका ने यह तकनीक ब्रिटेन से भी साझा की थी। अब आॅस्ट्रेलिया उसका नया साझीदार बन गया है। आॅस्ट्रेलिया को लेकर अमेरिका का बढ़ता सैन्य सहयोग किसी सैन्य समझौते से बढ़ कर इस समूचे क्षेत्र के लिए दूरगामी कदम नजर आता है।

पिछले कुछ वर्षों में चीन को लेकर आॅस्ट्रेलिया बहुत मुखरता से सामने आया है। चीन आॅस्ट्रेलिया का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार रहा है, लेकिन आॅस्ट्रेलिया ने अपने राष्ट्रीय हितों की खातिर चीन को चुनौती देने से परहेज भी नहीं किया। इसकी शुरूआत 2018 में हुई जब आॅस्ट्रेलिया दुनिया का ऐसा पहला देश बन गया जिसने चीनी कंपनी ख़्वावे के 5 जी नेटवर्क पर प्रतिबंध लगा दिया था। इसके बाद कोरोना महामारी को लेकर भी आॅस्ट्रेलिया ने विश्व समुदाय से यह मांग कर डाली कि वह कोरोना विषाणु की उत्पत्ति को लेकर चीन की भूमिका की जांच करे। चीन ने जब आॅस्ट्रेलिया पर दबाव बनाने की कोशिश की तो आॅस्ट्रेलिया ने पलटवार करते हुए न केवल चीन में रहने वाले वीगर मुसलमानों पर अत्याचारों को लेकर उसकी कड़ी आलोचना की, बल्कि उसकी महत्त्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड परियोजना से जुड़े दो समझौते भी रद्द कर दिए। गौरतलब है कि आॅस्ट्रेलिया क्वाड समूह का सदस्य है जिसे चीन विरोधी माना जाता है।

आॅस्ट्रेलिया और चीन के बीच गहराते विवाद के पीछे अमेरिका और इन दोनों देशों के एशिया-प्रशांत क्षेत्र में आपसी हित हैं। आॅस्ट्रेलिया सबसे छोटा महाद्वीप है जो दक्षिणी गोलार्ध में स्थित है और उत्तर तथा पूर्व में प्रशांत महासागर और पश्चिम-दक्षिण में हिंद महासागर से घिरा है। आॅस्ट्रेलिया और चीन आपस में समुद्री सीमाएं साझा करते हैं। इसलिए आॅस्ट्रेलिया दक्षिण चीन सागर में चीन की दादागीरी से चिंतित है। उसे लग रहा है कि अगर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन की पनडुब्बी सामरिक दबाव डालने के लिए घूम सकती है तो निश्चित ही यह भविष्य में पश्चिमी-प्रशांत क्षेत्र में भी आ सकती है। आॅकस समझौते के बाद आॅस्ट्रेलिया अब परमाणु-संचालित पनडुब्बियों का निर्माण करेगा। ये खास पनडुब्बियां महीनों तक पानी में रह सकती हैं और लंबी दूरी तक मिसाइलें दाग सकती हैं। फिर, आॅस्ट्रेलिया में एटमी पनडुब्बियों की मौजूदगी दक्षिणी गोलार्ध में अमेरिकी प्रभाव को बढ़ाने में भी मददगार होगी। पिछले एक दशक में अमेरिका ने एशिया प्रशांत क्षेत्र में चीन का सामना करना के उद्देश्य से कई कदम उठाएं हैं। इस दृष्टि से क्वाड समूह के गठन और सक्रियता के बाद अब आॅकस बेहद खास माना जा रहा है। यह विशुद्ध सैन्य समझौता है।

क्वाड देशों के आपसी हितों के इतर अमेरिका के हालिया रुख को बेहद आक्रामक माना जा रहा है। इसका कारण यह भी है कि क्वाड के सदस्य जापान और भारत, चीन के खिलाफ उस मुखरता से सामने नहीं आए जैसे तेवर आॅस्ट्रेलिया ने दिखाए। हालांकि इसके पीछे भारत की अपनी क्षेत्रीय और सामरिक मजबूरियां रही हैं। वह अमेरिका से मजबूत संबंध तो चाहता है लेकिन रूस और ईरान जैसे धुर अमेरिकी विरोधी देशों से भी रिश्ते सामान्य हैं। वहीं जापान अपने आर्थिक हितों को लेकर ज्यादा प्रतिबद्ध नजर आता है जिसमें उसकी चीन से आर्थिक साझेदारी शामिल है। जाहिर है, अमेरिका के लिए इस क्षेत्र में आॅस्ट्रेलिया ऐसा खास देश बन गया है जो चीन को लेकर लगातार आक्रामक रुख अपना रहा है।

अमेरिका की नजर हिंद प्रशांत क्षेत्र के रणनीतिक और आर्थिक महत्त्व पर भी है। इस क्षेत्र में चीन ने कई देशों को चुनौती देकर विवादों को बढ़ाया है। चीन वन बेल्ट वन रोड परियोजना को साकार कर दुनिया में अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहता है और उसके केंद्र में हिंद प्रशांत क्षेत्र की अहम भागीदारी है। चीन-पाकिस्तान की बढ़ती साझेदारी ने भी समस्याओं को बढ़ाया है। चीन पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह का प्रमुख भागीदार है। श्रीलंका का हंबनटोटा बंदरगाह, बांग्लादेश का चटगांव बंदरगाह, म्यांमा की सितवे परियोजना सहित मालद्वीप के कई निर्जन द्वीपों पर चीनी कब्जे से भारत की सामरिक और समुद्री सुरक्षा संबंधी चुनौतियां बढ़ गई हैं।

गौरतलब है कि हिंद प्रशांत क्षेत्र में अड़तीस देश शामिल हैं जो विश्व के कुल सतह क्षेत्र का चवालीस फीसद, कुल आबादी का पैंसठ फीसद, कुल जीडीपी का बासठ फीसद और विश्व के व्यापार में छियालीस फीसद करते हैं। हिंद-प्रशांत क्षेत्र से जुड़े बंदरगाह दुनिया के के सर्वाधिक व्यस्त बंदरगाहों में हैं। इसके अंतर्गत एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र दक्षिण चीन सागर आता है। दक्षिण चीन सागर का इलाका हिंद महासागर और प्रशांत महासागर के बीच है और चीन, ताइवान, वियतनाम, मलेशिया, इंडोनेशिया, ब्रुनेई और फिलीपींस से घिरा हुआ है। यहां कई आसियान देशों के साथ चीन का विवाद है। लेकिन चीन पर आर्थिक निर्भरता के चलते अधिकांश देश चीन को चुनौती देने में नाकाम रहे हैं।

जहां तक सवाल है भारत का तो चीन को लेकर भारत की चिंताएं किसी से छिपी नहीं हैं। भारतीय नौसेना में इस समय एकमात्र आइएनएस अरिहंत परमाणु पनडुब्बी ही तैनात है। इससे पहले रूस से किराए पर ली गई आइएनएस चक्र परमाणु पनडुब्बी भारतीय समुद्री क्षेत्र की रखवाली करती थी। अभी तक भारत समुद्री सुरक्षा को लेकर काफी हद तक रूस पर निर्भर रहा है। चीन का बढ़ता रक्षा बजट भारत के लिए चिंता का बड़ा कारण है। चीन ने बैलिस्टिक मिसाइलों के लिए भारी निवेश किया है।

ऐसे में चीन को रोकने के लिए अमेरिका ही प्रतिबद्ध नजर आता है। इसके लिए उसकी अपने अन्य सहयोगियों से भी उम्मीदें बढ़ गई हैं। अमेरिका, ब्रिटेन और आॅस्ट्रेलिया के बीच आॅकस के आकार लेने के बाद क्वाड के बाकी सहयोगी देशों जापान और भारत पर सैन्य समझौते को लेकर दबाव बढ़ेगा। बाइडन प्रशासन यह स्वीकार कर चुका है कि चीन ही आर्थिक, राजनयिक, सैन्य और तकनीकी दृष्टिकोण से उसका प्रतिद्वंद्वी है जो स्थिर और खुली अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की निरंतर चुनौती से पार पाने में सक्षम है। नाटो भी चीन को सामूहिक सुरक्षा के लिए चुनौती बता कर अमेरिका की चीन के प्रति आक्रामक और नियंत्रणकारी नीति को अपना पूर्ण समर्थन देने की घोषणा कर चुका है।

सामूहिक सुरक्षा की स्पष्ट अवधारणा है कि विश्व में युद्ध को समाप्त नहीं किया जा सकता, बल्कि शक्ति पर नियंत्रण रखने की कोशिश की जा सकती है, जो युद्ध का मूल कारण है। पूर्व अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो पहले ही कह चुके हैं कि चीन से भारत और दक्षिण-पूर्वी एशिया में बढ़ते खतरों को देखते हुए अमेरिका ने यूरोप से अपनी सेना की संख्या कम करने का फैसला किया है। जाहिर है आॅस्ट्रेलिया के बाद अमेरिका की अपेक्षाएं भारत से होंगी। हिंद महासागर से भारत के बड़े सामरिक और आर्थिक हित जुड़े हैं। इसलिए अब पूरी संभावना है कि भारत भी अपनी समुदी सीमा को मजबूत करने के लिए आॅकस जैसे समझौते को लेकर आगे बढ़े।