ज्ञान-विज्ञान के परिमाण में वृद्धि हुई है। इसने मनुष्य के जीवन में शारीरिक श्रम की आवश्यकता को नियंत्रित किया है। लेकिन उसने मनुष्य की भयानक मारक क्षमताओं के अधिग्रहण के द्वार खोल दिए हैं। आज भी जब एक देश कोई नया युद्धक हथियार बना कर उसका परीक्षण करता है, तो दूसरा तुरंत ही उससे और अधिक घातक ‘उत्तर’ बनाने की ओर अग्रसर हो जाता है। यह प्रतिस्पर्धा रुक नहीं रही है।

पिछले एक महीने में सारे विश्व का ध्यान अफगानिस्तान की ओर गया है। युद्ध, हिंसा, जय-विजय-पराजय, आतंकवाद, धर्मांधता, धोखा, अविश्वास, पलायन, महिलाएं जैसे विषय महत्त्वपूर्ण चर्चा में बार-बार दोहराए जा रहे हैं। सामान्य समझ तो यही है कि करोड़ों लोग घोर कष्ट और कठिनाई में हैं और उनके साथ व्यावहारिक रूप से खड़े होने के लिए वैश्विक समाज अपने को असमर्थ पा रहा है।

सारे ज्ञान-विज्ञान, बुद्धि-विवेक, साधन-संसाधन और सभ्यता-संस्कृति एक तरफ रह गए हैं और दूसरी तरफ मध्यकालीन मानसिकता में रचे-पले लोग सभी पर भारी पड़ते दिखाई दे रहे हैं। विश्व के सभी देशों ने 16 नवंबर 1945 को यूनेस्को की स्थापना के समय इस बात को स्वीकार किया था कि युद्ध मनुष्य के मष्तिष्क में पैदा होते हैं और शांति की संरचना का प्रयास भी वहीं होना चाहिए। मगर आज तक न युद्ध रुके, न हिंसा रुकी, न ही मनुष्य के दृष्टिकोण में सकारात्मक बदलाव आया। ऐसे में इस मौके पर भारत के प्रबुद्ध वर्ग का विशेष उत्तरदायित्व बनता है क्योंकि हम सब भारतीय संस्कृति में निहित भाईचारे, शांति, अपरिग्रह और विश्व बंधुत्व का गौरवपूर्ण स्मरण करते रहते हैं।

हर साल की तरह इस बार भी दो अक्तूबर को गांधी जी को याद किया जाएगा। इसके ठीक तीन सप्ताह पहले 11 सितंबर को स्वामी विवेकानंद को याद किया गया। सन 1893 में इसी दिन उन्होंने अमेरिका के शिकागो शहर में आयोजित विश्व धर्म-महासभा में अपने स्वागत का उत्तर उन कालजयी संबोधन शब्दों से दिया था जो इतिहास की अमर धरोहर बन गए: ‘अमेरिकावासी भाइयों और बहनों’! यह अपने में विश्व शांति और भाईचारे का वह सूत्र संजोए हुए है जो पृथ्वी पर मनुष्य और मानवता के बचे रहने का एकमात्र आधार है।

यदि मनुष्य प्रजाति के जीवधारी मनुष्य की शास्वत एकता को व्यावहारिक स्वरूप में नहीं पहचान पाएंगे, तो उनका विनाश निश्चित है। इसके बाद स्वामी जी ने अमेरिका में जो पहली बार कहा, वे उनके हृदय से निकले शब्द थे: ‘सांप्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मांधता इस सुंदर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी है। ये पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं, उसे बारंबार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को नष्ट करती और देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि यह बीभत्स दानवी न होती, तो मानव समाज आज कहीं अधिक उन्नत हो गया होता।’

सन 1893 के पश्चात विश्व ने एक तरफ ज्ञान-विज्ञान में मनुष्य की नवीन उपलब्धियों और मानव हित में किए गए उनके उपयोगों को सराहा, तो दूसरी तरफ उसने मानव समाज की उस असमर्थता को भी देखा जो सांप्रदायिकता, हठधर्मिता और धर्मांधता की त्रयी को फलने-फूलने से नहीं रोक सकी। दो विश्व-युद्ध भी मनुष्य जाति को विनाश की ओर लगातार बढ़ते रहने से रोक नहीं पाए। प्रयास हुए, संयुक्त राष्ट्र बना, मगर कितने ही युद्ध उसके बाद भी होते रहे और आज भी होते जा रहे हैं। यह सभी जानते हैं कि हिंसा को अनेक संगठन और सरकारें प्रोत्साहित करती हैं, मगर उसकी काट मनुष्य जाति को मिल नहीं पा रही।

इस समय सभी के मन-मष्तिष्क में अफगानिस्तान का परिदृश्य घूम रहा है। वहां के नागरिकों, महिलाओं, बच्चों को हृदय-विदारक अमानवीय स्थितियों से जूझना पड़ रहा है। सांप्रदायिकता, हठधर्मिता और धर्मांधता की त्रासदी यह देश दशकों से झेल रहा है। इसकी कोई संभावना नहीं है कि मानव समाज संगठित रूप से यहां हस्तक्षेप कर अफगान नागरिकों को मूल मानवीय अधिकार दिलाने के कारगर प्रयास करेगा। यदि एक प्रयास करेगा, तो तुरंत ही दूसरा उसका विरोध करेगा। पिछले दशकों में ऐसे अनेक अवसर आए हैं जब संयुक्त राष्ट्र और उसकी मानवाधिकार आयोग जैसी संस्थाओं की उपस्थिति का वर्तमान स्वरूप में बनाए रहना अर्थहीन हो जाता रहा है।

हर विचारशील व्यक्ति को यह प्रश्न झकझोर सकता है कि सब कुछ जानते-समझते हुए भी वे क्या प्रेरणाएं हैं जो मनुष्य को हिंसा और युद्ध से विलग नहीं होने देती हैं। सांप्रदायिकता, हठधर्मिता और धर्मांधता का ‘आधिकारिक’ समर्थन कराने वाला कोई नहीं मिलेगा, मगर इसी में डूबे हुए लोग इनके अपने-अपने विश्लेषण प्रस्तुत कर अपनी स्वार्थ-सिद्धि में लगे रहते हैं। ऐसा नहीं है कि मनुष्य जाति में अपने लिए सही मार्ग निर्धारित करने की, या उस पर चल कर एक सौम्य, सार्थक और संतोषप्रद जीवन निर्वाह करने की समझ या क्षमता में कोई कमी है। गांधी, मार्टिन लूथर किंग, नेल्सन मंडेला जैसे मनीषी तो सत्तासीनों को भी यह पक्ष सोदाहरण समझा गए हैं। इस विरोधाभास को समझने का प्रयास अनेक विद्वानों ने समय-समय पर किया है और करते भी रहेंगे।

गांधी जी ने राम राज्य की संकल्पना की थी। ग्राम स्वराज का उनका सपना था, जिसे उनका नाम लेकर सत्ता में पहुंचने वालों ने कभी इसे समझने का प्रयास ही नहीं किया। इसी कारण प्रशासन का बोझ अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति पर लगातार बढ़ता जा रहा है। राजस्थान के अनेक अंचलों में यह कहावत सुनी जा सकती है कि हर व्यक्ति को ईश्वर काले कोट (वकील), भूरे कोट (पुलिस) और सफेद कोट (डॉक्टर) से बचाए! यह मनुष्य की मूल प्रवृत्ति को कितने सुंदर ढंग से प्रस्तुत करता है। सामान्य जन के हित के लिए निर्मित व्यवस्थाएं जब सारी शक्ति और निर्णय लेने के अधिकार केंद्रित कर देती हैं, तब निर्णय लेने वालों में नैतिकता का ह्रास (अपवाद छोड़ कर) अवश्यंभावी है और हिंसा का सूत्रपात यहीं से प्रस्फुटित होने लगता है।

ज्ञान विज्ञान के परिमाण में वृद्धि हुई है। इसने मनुष्य के जीवन में शारीरिक श्रम की आवश्यकता को नियंत्रित किया है। लेकिन उसने मनुष्य की भयानक मारक क्षमताओं के अधिग्रहण के द्वार खोल दिए हैं। आज भी जब एक देश कोई नया युद्धक हथियार बना कर उसका परीक्षण करता है, दूसरा तुरंत ही उससे और अधिक घातक ‘उत्तर’ बनाने की ओर अग्रसर हो जाता है। यह प्रतिस्पर्धा रुक नहीं रही है। पिछले छह दशकों से मैं परमाणु हथियारों पर रोक लगाने के प्रयासों के बारे में पढ़ता जा रहा हूं।

निरस्त्रीकरण तो नहीं हुआ, बल्कि आज विश्व में इतने अधिक हथियार बढ़ गए जो पृथ्वी को एक नहीं कई बार ध्वस्त कर सकते हैं। स्वामी विवेकानंद के शिकागो में कहे गए शब्दों में उनकी वह पीड़ा झलकती है जो मानव जाति के ही कुछ लोगों द्वारा अन्य पर अन्याय और शोषण के रूप में उन्होंने भारत में भ्रमण कर देखी थी। शिकागो सम्मेलन के पांच दशक पश्चात महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन भी अनगिनत मनुष्यों पर मनुष्यों द्वारा ही किए जा रहे अमानवीय व्यवहार से अत्यंत कष्ट में थे।

945 में परमाणु बम का आविष्कार और परीक्षण हो चुका था। उसके सदुपयोग की संभावनाओं और दुरुपयोग को लेकर आशंकाएं हर तरफ प्रबुद्ध वर्ग में चर्चित हो रहीं थीं। उनकी अपनी दृष्टि में मनुष्य का मनुष्य के प्रति संवेदनशील मानवीय व्यवहार ही प्रगति का द्योतक माना जाना चाहिए था। उन्होंने लिखा था कि ‘मनुष्य द्वारा परमाणु शक्ति के उपयोग की समझ से नई समस्याएं पैदा नहीं होंगीं। उस जानकारी के कारण एक समस्या के समाधान की त्वरित आवश्यकता बढ़ गई है। नए आविष्कार का परिमाणात्मक प्रभाव पड़ा है, न कि गुणात्मक! जब तक संप्रभु, सर्व-सत्ता संपन्न राष्ट्र रहेंगे, युद्ध अवश्यंभावी है। ये कब-कब होंगे, यह नहीं कहा जा सकता है, मगर होगें अवश्य।’ यह बात एटम बम के आविष्कार के पहले भी सही था, आगे भी ऐसा ही रहेगा। केवल युद्ध की विनाशक क्षमता बढ़ती जाएगी। आज हम सभी इसे देख रहे हैं, अनुभव कर रहे हैं। इसका समाधान तभी संभव होगा जब मनुष्य आध्यात्मिकता की शक्ति को पहचानने में सफल हो सकेगा।