तालिबान का हनीमून समाप्त, हक़्क़ानी नेटवर्क के अलावा अब सामने हैं ये बड़ी चुनौतियाँ

  • माजिद नुसरत
  • अफ़ग़ानिस्तान मामलों के विशेषज्ञ
काबुल में सबसे पहले हक़्क़ानी नेटवर्क के लड़ाके दाख़िल हुए थे और शहर की सुरक्षा उन्हीं के हाथ में है

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तालिबान ने 15 अगस्त 2021 को काबुल पर नियंत्रण करके अपने हिंसक अभियान का लक्ष्य तो हासिल कर लिया सत्ता और ताक़त के बंटवारे को लेकर चल रही अंदरूनी खींचतान और गहराते आर्थिक संकट से ये स्पष्ट है कि तालिबान का हनीमून ख़त्म हो गया है.

कंधार में तालिबान के नेतृत्व के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि मज़बूत हुए हक़्क़ानी नेटवर्क और उसके समर्थक विदेशी लड़ाकों से कैसे निबटा जाए. काबुल समेत आधा पूर्वी अफ़ग़ानिस्तान हक़्क़ानी नेटवर्क और उसके सहयोगी समूहों के ही नियंत्रण में है.

तालिबान के नेता मुल्ला हिब्तुल्लाह अखुंदज़ादा लंबे समय से नदारद हैं. इससे समूह की समस्याएं और भी बढ़ गई हैं. ये सवाल भी उठ रहा है कि वो ज़िंदा भी हैं या नहीं. इससे तालिबान को लेकर अंदरूनी संघर्ष का ख़तरा भी पैदा हो गया है.

इन्हीं चुनौतियों की वजह से ऐसा लग रहा है कि तालिबान की प्राथमिकता इस समय संगठन की एकजुटता को बनाए रखना है और इसी वजह से समावेशी सरकार को लेकर ज़ाहिर की गई घरेलू और अंतरराष्ट्रीय चिंताओं को तालिबान ने नज़रअंदाज़ किया है.

तालिबान ने जो अंतरिम सरकार घोषित की है उसमें अधिकतर मंत्री पुराने हैं और ग़ैर पश्तून समुदायों को अधिक हिस्सेदारी नहीं दी गई है.

दक्षिण-पूर्व में मतभेद

तालिबान
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अफ़ग़ानिस्तान में जीत से तालिबान को बहुत कुछ हासिल हुआ है और उसी के बंटवारे को लेकर खींचतान चल रही है. लेकिन सतह के नीचे पारंपरिक नस्लीय और क़बायली खींचतान भी चल रही है. पूर्व में रहने वाले पश्तून मज़बूत होकर उभरे हैं और वो दक्षिणी क़बीलों के ख़िलाफ़ खड़े हो रहे हैं.

अनुमान के मुताबिक अफ़ग़ानिस्तान की आबादी में 40% लोग पश्तून नस्ल के हैं. पश्तून दो प्रमुख शाखाओं में बंटे हैं- दुर्रानी और ग़िलज़ई. दुर्रानी पश्तूनों की संख्या भले ही कम हो लेकिन 1747 के बाद से ये समुदाय ही अधिकतर समय अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर क़ाबिज़ रहा है. जबकि ग़िलज़ई पश्तून अधिकतर समय तक सत्ता से दूर ही रहे हैं. वो क़बीलों में रहते हैं और उनके पास बहुत अधिक संपत्तियां नहीं हैं.

हक़्क़ानी नेता ग़िलज़ई पश्तून हैं और उनका नेटवर्क तालिबान का हिस्सा है. लेकिन तालिबान के भीतर हक़्क़ानी नेटवर्क को बहुत हद तक संचालन और वित्तीय स्वयात्तता हासिल है और वो अपने तरीक़े से काम करते हैं.

हक़्क़ानी नेटवर्क विदेशी चरमपंथी समूहों और उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान के ग़ैर-पश्तून तालिबान के भी क़रीब है. इसके अलावा हक़्क़ानी नेटवर्क के पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसएआई से भी नज़दीकी संबंध है. वैचारिक तौर पर हक़्क़ानी नेटवर्क अल-क़ायदा और इस्लामिक स्टेट की ख़ुरासान शाखा के अधिक क़रीब है.

पूर्व राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी और उनके अलावा तीन वामपंथी राष्ट्रपति पश्तूनों की ग़िलज़ई शाखा से ही थे. कुछ अफ़ग़ान लोगों का अंदेशा है कि ग़नी ने ही काबुल को हक़्क़ानी नेटवर्क के हाथों में आने दिया.

नेतृत्व पर दक्षिण के चरमपंथियों की पकड़

मुल्ला मोहम्मद हसन अख़ुंद को तालिबान ने अंतरिम प्रधानमंत्री बनाया है

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तालिबान नेतृत्व के अधिकतर वरिष्ठ पद दक्षिण में कंधार (और आसपास के इलाक़ों) से आने वाले पश्तूनों के पास हैं. जबकि सिराजुद्दीन हक़्क़ानी तालिबान के अमीर के तीन डिप्टियों में से एक हैं. साल 2015 में मुल्ला उमर की मौत की घोषणा के बाद दक्षिणी तालिबानी नेताओं में उत्तराधिकारी को लेकर खींचतान हुईं थीं. लेकिन उमर के बाद नेता बने मुल्ला अख़्तर मंसूर ने अपने तीन डिप्टियों में सिराजुद्दीन हक़्क़ानी को भी रखा था. हक़्क़ानी पूर्वी अफ़ग़ानिस्तान के ग्रेटर पक्तिया इलाक़े से आते हैं.

वहीं तालिबान के सुप्रीम लीडर मुल्ला हिब्तुल्लाह अख़ुंदज़ादा, प्रधानमंत्री मुल्ला मोहम्मद हसन अखुंद और डिप्टी प्रधानमंत्री मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर एवं पूर्व राष्ट्रपति हामिद क़रज़ई दुर्रानी पश्तून हैं. हिबतुल्लाह से पहले तालिबान के नेता रहे मुल्ला मंसूर अख़त्र भी दुर्रानी ही थे.

हालांकि तालिबान के संस्थापक मुल्ला उमर ग़िलज़ई पश्तून मूल के थे लेकिन उन्हें दक्षिणी पश्तूनों से जोड़कर ही देखा जाता रहा था. मुल्ला उमर कंधार में पैदा हुए और यहीं के पश्तूनों में घुलमिल गए. उनके बेटे मुल्ला याक़ूब तालिबान की सरकार में रक्षामंत्री हैं और माना जाता है कि वो तालिबान के दक्षिणी गुट के नेताओं के क़रीब हैं.

तालिबान की नई सरकार में भले ही बड़े तालिबानी नेताओं को जगह दी गई है लेकिन दक्षिण के दो बड़े तालिबानी कमांडरों को सरकार से बाहर रखा गया है. ये हैं मुल्ला क़य्यूम ज़ाकिर और मुल्ला इब्राहिम सद्र. अभी ये स्पष्ट नहीं है कि इन नेताओं का अगला क़दम क्या होगा.

ताक़त दिखा रहे हैं हक़्क़ानी

मुल्ला बरादर

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इमेज कैप्शन, मुल्ला ग़नी बरादर इन दिनों काबुल में नहीं हैं

अफ़ग़ानिस्तान के सोशल मीडिया में काबुल पर नियंत्रण के कुछ दिन बाद ही मुल्ला बरादर और हक़्क़ानी गुट के बीच सरकार के गठन को लेकर राष्ट्रपति भवन में हिंसक झड़प होने को लेकर क़यास लगाए जाते रहे.

रिपोर्टों के मुताबिक मुल्ला बरादर एक समावेशी सरकार चाहते थे और उन्होंने तालिबान के पंजशीर पर हमले का भी विरोध किया था. पंजशीर घाटी दशकों से शांत रही थी लेकिन अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़े के बाद तालिबान ने यहां बड़ा हमला किया है.

माना जा रहा था कि अमेरिका और अफ़ग़ानिस्तानी पक्ष के साथ क़तर के दोहा में तालिबान की तरफ़ से वार्ता का नेतृत्व कर रहे बरादर ही तालिबान सरकार के प्रमुख होंगे. लेकिन अब जो सरकार बनी है उसमें ऐसा लगता है कि उनका क़द कम कर दिया गया है.

कई रिपोर्टों में ये दावा किया गया है कि बरादर ने काबुल छोड़ दिया है और अभी वो कहां है इसका पता नहीं है. 15 सितंबर को जारी किए गए एक संक्षिप्त वीडियो में बरादर दिखाई दिए थे. बरादर एक काग़ज़ से बयान पढ़ रहे थे. उन्होंने किसी मतभेद से इनकार किया था लेकिन ये भी नहीं बताया था कि वो अभी कहां हैं.

कुछ रिपोर्टों में दावा किया गया है कि तीन सितंबर की शाम काबुल में हुई भारी हवाई फ़ायरिंग असल में हक़्क़ानी नेटवर्क का शक्ति प्रदर्शन था और वो दक्षिणी तालिबान को अपनी ताक़त दिखा रहे थे. गोलियों की बारिश में दर्जनों लोग मारे गए थे और घायल हो गए थे.

सुप्रीम लीडर की अनुपस्थिति से संदेह

हिब्तुल्लाह अख़ुंदज़ादा

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इमेज कैप्शन, हिब्तुल्लाह अखुंदज़ादा को लेकर संदेह है

तालिबान के सुप्रीम लीडर मुल्ला अखुंदज़ादा लंबे समय से दिखाई नहीं दिए हैं और उन्हें लेकर भी सवाल उठ रहे हैं. सिर्फ़ आम लोग ही नहीं बल्कि अब तालिबान के कमांडर भी उन्हें लेकर कयास लगा रहे हैं.

कुछ रिपोर्टों में दावा किया गया है कि उनकी कोविड 19 की वजह से मौत हो गई है. अन्य रिपोर्टों में कहा गया है कि वो कुछ साल पहले पाकिस्तान में हुए एक धमाके में मारे गए थे.

तालिबान में जिस तरह के मतभेद हैं और देश को लेकर जो अनिश्चितता है ऐसे माहौल में अखुंदज़ादा के लिए ज़िंदा रहते हुए लोगों की नज़र से दूर रहना आसान नहीं होता.

पिछले महीने आई टोलो न्यूज़ की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि जिस तरह से मुल्ला हिब्तुल्लाह अख़ुंदज़ादा इतने लंबे समय से सार्वजनिक रूप से सामने नहीं आए हैं उसे लेकर कंधार में लोग और तालिबान से जुड़े अधिकारी आशंकित है.

हालांकि एक रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि वो कंधार पहुंच गए हैं और जल्द ही सामने आएंगे. टोलो न्यूज़ ने अपनी रिपोर्ट में इस आशंका को भी शामिल किया था कि हो सकता है अखुंदज़ादा ज़िंदा ना हों.

मुल्ला उमर की मौत के बाद तालिबान के नेतृत्व को लेकर जो संघर्ष छिड़ा था, मुल्ला हिब्तुल्लाह की मौत के बाद नेतृत्व को लेकर उससे भी भीषण संघर्ष तालिबान के भीतर छिड़ सकता है.

ख़त्म हो गया है तालिबान का हनीमून

तालिबान लड़ाका

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पश्चिमी देशों के अफ़ग़ानिस्तान से जाने, विदेशी सहायता में कटौती किए जाने और आंतरिक मतभेद उभरने के बाद देश में आर्थिक संकट गहरा रहा है. अब तालिबान के सामने सिर्फ़ अंतरराष्ट्रीय मान्यता हासिल करने की ही चुनौती नहीं है बल्कि उसे देश में भी स्वीकार्यता हासिल करने में मुश्किलों का सामना है.

तालिबान ने 7 सितंबर को अंतरिम सरकार की घोषणा की लेकिन ये नहीं बताया कि ये व्यवस्था कब तक रहेगी. सुप्रीम लीडर, नेतृत्व परिषद और उलेमा परिषद की क्या भूमिका होगी ये भी स्पष्ट नहीं किया गया है. तालिबान चरमपंथी संगठन इस्लामिक स्टेट खोरासा से कैसे निबटेगा ये भी स्पष्ट नहीं किया गया है.

अफ़ग़ानिस्तान के मामलों पर नज़दीकी नज़र रखने वाले और दशकों तक अफ़ग़ानिस्तान में काम करने वाले विश्लेषक माइकल सेंपल ने हाल ही में बीबीसी फ़ारसी सेवा से कहा था कि तालिबान के सामने खड़ी कई समस्याओं में से एक बड़ी समस्या तालिबान की सत्ता पर क़ब्ज़े को लेकर अंदरूनी लड़ाई भी है जिसने उसे अफ़ग़ान लोगों की नज़रों में गिरा दिया है.

माइकल कहते हैं कि तालिबान का हनीमून समाप्त हो गया है और अब उसे चुनौतियों का सामना करना होगा.

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