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Sunday Interview: लेखक को बागी होना जरूरी है, ये छवि पिछले सौ साल में बनी है- आनंद नीलकंठन
पंकज शुक्ल के साथ आनंद नीलकंठन
- फोटो : अमर उजाला मुंबई
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आनंद नीलकंठन ने भारतीय पौराणिक कहानियों और लोककथाओं को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित प्रसारित करने का एक बीड़ा सा एक दशक पहले उठाया और अपने मकसद में काफी हद तक कामयाब भी रहे। उनकी तीन किताबों पर नेटफ्लिक्स वेब सीरीज बना रहा है। दुनिया भर में प्रचलित राम की कहानियों से मिलने वाली सीखों पर उनकी सीरीज ऑडिबल पर प्रसारित हो रही है और जल्द ही उनकी लिखी दो फिल्मों की शूटिंग शुरू होने वाली है। आनंद नीलकंठन से ‘अमर उजाला’ के सलाहकार संपादक पंकज शुक्ल ने एक लंबी बातचीत की। इस इंटरव्यू के संपादित अंश ‘अमर उजाला’ के शनिवार के संस्करण में प्रकाशित हो चुके हैं, यहां प्रस्तुत है पूरा इंटरव्यू।
आनंद जी, आपका कहानी कहने का सिलसिला कहां से और कब से शुरू हुआ?
कहानी कहने का सिलसिला तो बचपन से ही शुरू हो गया था। लेकिन, लिखना अभी दस साल पहले ही शुरू हुआ। मेरा पहला उपन्यास ‘असुर’ 2012 में रिलीज हुआ तो ठीक ठीक पूछें तो नौ साल ही हुए है। कोचीन राज्य की राजधानी रहे थिरुपुन्निथुरा में मेरा बचपन बीता। वहां बहुत पुराने मंदिर हैं। इन मंदिरों में पुराणों पर आधारित तमाम नृत्य नाटिकाएं होती थीं। इन सबको देखते सुनते मैं बड़ा हुआ।
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आनंद नीलकंठन
- फोटो : सोशल मीडिया
और, अपनी कहानियों की धुरी आपने दूसरी तरफ से पकड़ी। ऐसे किरदारों के जरिये आपने ये कहानियां कहीं, जिनके बारे में लोगों को कम पता था, यह विचार कहां से आया?
जिन मंदिरों की बात मैं कर रहा हूं, उनमें उन दिनों शास्त्रार्थ बहुत होते थे। ये वाद विवाद प्रतियोगिताएं मंदिर में खूब होती थीं और हम इनमें नियमित रूप से शामिल होते थे। लोग दोनों पक्षों की तरफ से अपने तर्क प्रस्तुत करते। उन दिनों अध्यापन का यही तरीका था। इस शिक्षा का अहम पहलू यहां गौर करने लायक ये है कि हमें हर बात को हर दृष्टिकोण से समझने की प्रेरणा इनसे मिली। धर्म के बारे में चर्चा करना इसका अंग था। धर्म का मतलब यहां मैं संस्कृत वाले धर्म की बात कर रहा हूं, उपासना पद्धति वाले धर्म की नहीं। मैं धर्म के मूल विचार की बात कर रहा हूं। चर्चाएं खूब होती थीं। इन चर्चाओं में हमें रावण का दृष्टिकोण भी समझने को मिलता था और दुर्योधन का भी।
आपका जन्म केरल में हुआ जो अयोध्या की बनिस्बत श्रीलंका के ज्यादा करीब है, क्या इसका भी असर आपके लेखन पर रहा?
केरल में कभी किसी बाहरी ताकत ने बड़ा आक्रमण नहीं किया। छिटपुट हुआ भी होगा तो उसका कोई खास असर वहां पड़ा नहीं। वहां का हिंदू धर्म थोड़ा अधिक आत्मविश्वासी है। और, वहां की लोककलाओं और शास्त्रीय नृत्य में रावण भी एक नायक की तरह ही कथा में आता है। दुर्योधन को भी नायक की तरह पेश करने की परंपरा है। जैसा मैंने पहले भी कहा कि ये एक तरह के शास्त्रार्थ का हिस्सा है। वहां किसी भी बात को सही या गलत या फिर अच्छे या बुरे में बांटने की बजाय उसे उसके वास्तविक स्वरूप में बताने की परंपरा है। इस बारे में 16वीं और 17वीं शताब्दी का भी बहुत कुछ लिखा हुआ पहले से मौजूद है। ऐसे तमाम ग्रंथ है जिनके बारे में लोगों ने ज्यादा सुना नहीं है। जैसे कि ‘कल्याण सौगंधी’ में पूरी महाभारत हनुमान सुना रहे हैं। हनुमान जो हैं वह भीम से सवाल कर रहे हैं। वह पूछते हैं कि जब द्रौपदी का चीरहरण हुआ तो आप क्या कर रहे थे? इसमें पूरा संवाद धर्म के ऊपर है और वह हनुमान के जरिये भीम से धर्म के बारे में बात करते हैं।
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आनंद नीलकंठन
- फोटो : अमर उजाला मुंबई
जिस समाज में लेखक को अब भी एक झोलाछाप बुद्धिजीवी ही माना जाता हो, वहां आपने साबित किया कि लेखक भी एक सेलेब्रिटी हो सकता है..
समाज में लेखक की एक छवि बना दी गई और वह बहुत गलत बनाई गई। ये छवि शुरू से रही हो ऐसा भी नहीं है, ये बीते सौ साल की छवि है कि एक लेखक को बागी होना जरूरी है, उसे घुमक्कड़ किस्म का झोलाछाप जीव बना दिया गया। कालिदास भी लेखक ही थे। जितने भी अच्छे लेखक होते थे वे सफल होते ही थे, ये हमारे यहां शुरू से रहा है। बीते 30-40 साल में लोगों के मन में बिठाया गया कि लेखक को गरीब होना चाहिए। ये बस एक छवि है, ऐसा कुछ है नहीं। लेखन कहानी कहने का एक माध्यम है। आप अपनी परिभाषा क्या तय करते हैं, ये उस पर निर्भर है। मैं खुद को किस्सागो मानता हूं। कहानी कहने के बहुत से तरीके हैं, उपन्यास भी उनमें से एक है। आप फिल्म के माध्यम से कहानी कह सकते हैं। आप टेलीविजन के माध्यम से कहानी कह सकते हैं। फिल्म और टेलीविजन की पहुंच बहुत ज्यादा है तो इसीलिए मैंने कहा कि खुद की परिभाषा लेखक को ही तय करनी है। अगर आप खुद को कथाकार बोलते हैं तो परेशानी ही नहीं है।
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बाहुबली
- फोटो : अमर उजाला मुंबई
आपने बाहुबली सीरीज की फिल्मों के पहले की कहानी के तौर पर तीन किताबें लिखीं जिन पर नेटफ्लिक्स एक सीरीज बना रही है, उस पर आने से पहले मैं ये जानना चाहता हूं कि क्या लेखन फुलटाइम पेशा हो सकता है?
हां, हो सकता है। बहुत सारे लेखक हैं। हां, लेकिन आप सिर्फ उपन्यास ही लिखेंगे तो मुश्किल है। लेकिन आप टीवी में, फिल्म में देख लीजिए तो सभी फुलटाइम लेखक ही हैं। इस दौर का कहानी कहने का तरीका यही है। उपन्यास और पुस्तकें कहानी कहने का 18वीं और 19वीं सदी का तरीका था। अब जो दौर है इसमें कहानी कहने का माध्यम फिल्म, टीवी और ओटीटी ही है। अगर आप उसकी तरफ बढ़ने के लिए तैयार हैं तो ये आपका फुलटाइम पेशा बन सकता है।
टेलीविजन के लिए आपने ‘सिया के राम’ व तमाम दूसरे धारावाहिक लिखे हैं। फिल्म या टीवी के लिए लिखते समय और उपन्यास लिखते समय क्या अंतर रखते हैं?
जब आप उपन्यास, कहानी या लघुकथा लिखते हैं तो आपकी लेखन स्वतंत्रता महत्वपूर्ण होती है। आप जो चाहते हैं वह लिख सकते हैं। आप जो कहना चाहते हैं आपकी जो भावनाएं हैं वह सब आप अपने दृष्टिकोण से लिख सकते हैं। लेकिन, टेलीविजन में औसत का नियम चलता है। इसमें आपको आम जनता के लिए लिखना होता है। किताबें पढ़ने वाले भिन्न भिन्न तरह के विचार समझ सकते हैं। टेलीविजन में आप अपेक्षित कथाओं से अलग नहीं जा सकते, खासतौर से जब आप पौराणिक कथाएं लिख रहे हों।
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सिया के राम
- फोटो : अमर उजाला मुंबई
अभी आपने एक सीरीज लिखी ‘मैनी रामायणाज मैनी लेसन्स’। इनके लेखन के दौरान ऐसा भी आपको जरूर पता चला होगा जो जनसामान्य को अब तक पता नहीं है..
हमारी कथा परंपरा वाचन पर आधारित रही है। हम सुनकर ही सबकुछ जानते सीखते रहे हैं। ऑडिबल इस परंपरा को वापस लेकर आया है। रामायण की आपने बात की तो मैं अपने पूरे जीवन रामायण और महाभारत की कहानियों में ही खोया रहा हूं। इनकी कहानियों में इतनी भिन्नताएं हैं कि आप यकीन नहीं कर पाएंगे। इंडोनेशिया, फिलीपींस में भी रामायण हैं। और, कुछ रामायण में तो हनुमान ब्रह्मचारी भी नहीं हैं। ये जानकर भारतीयों को झटका लग सकता है लेकिन इनमें हनुमान की कई पत्नियां भी बताई गई हैं। मैं ये नहीं कह रहा कि ये सही है या गलत है। लेकिन ऐसी रामायण भी हैं। विचार ये है कि अलग अलग संस्कृतियों की भिन्न भिन्न रामायणें जो पिछले तीन चार हजार साल में अस्तित्व में आईं, उनको प्रस्तुत किया जाए। हर प्रांत के कवियों, संन्यासियों या संतों ने उन्हें वैसे ही लिखा है जैसा उस समाज की जरूरत थी। कहीं कहीं रामायण के पात्र मुसलमान होते हैं। वह नमाज भी पढ़ते हैं। कैथलिक रामायण भी है।
ये कहां की रामायण की बात आप कर रहे हैं जिसमें अलग अलग धर्मों के लोग आते हैं?
ये अरबी मलयालम में है, मुसलमानों की रामायण है। शायद पांच, छह सौ साल पुरानी रामायण है। फिलीपींस में जो रामायण है। वह कैथलिक रामायण होती है उसमें सभी लोग ईसाई हैं। राम भी ईसाई हैं। ये सदियों पुरानी कहानियां हैं जो वहां की परंपराओं के हिसाब से लिखी गई हैं। जो जैन रामायण हैं, वहां राम अहिंसावादी है तो लक्ष्मण रावण को मारता है। अपनी संस्कृति व अपने संस्कार के हिसाब से जो रामायण को लोगों ने बदला है वह भी बहुत रोमांचक है ‘मैनी रामायणाज मैनी लेसन्स’ में मैं इन सारी रामायण की कहानियां सामने लाने की कोशिश कर रहा हूं। एक तेलुगू की रामायण है जिसमें रावण वध सीता करती हैं क्योंकि सीता मां काली है तो सीता करती है रावण का वध।
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