विपिन चौहान

पहाड़ की टूटी-फूटी सड़कों पर बरसात के दौरान आम लोग भी सड़क पर चलने से परहेज करते हैं। इन्हीं सड़कों पर वे हर सुबह उठ कर देर रात तक बच्चों के लिए तैयार की गई पढ़ाई की कॉपियों और कागजों की छाया प्रतियों को अपने थैले में समेटते हुए सुबह छह से सात बजे के बीच घर से निकल पड़ती हैं। थैले में पहले से ही एक पानी की बोतल, एक छाता और थोड़ा-सा आहार रखा हुआ होता है। उनके दिलो-दिमाग में बस एक ही धुन सवार होता है कि घर से निकलने के बाद वे उस दिन कितने बच्चों तक पहुंच पाएंगी और कैसे अधिक से अधिक समय बच्चों के साथ गुजार सकेंगी।

दरअसल, सामाजिक सरोकार की वजह से निजी स्तर पर किए गए कुछ प्रयास समूची व्युवस्था के लिए प्रेरक और उत्साह बढ़ाने वाले उदाहरण बन जाते हैं। यों यह उन महिलाओं की स्कूल खुलने से पहले हर सप्ताह कम से कम तीन दिन की कहानी होती थी, लेकिन जब से स्कूल नियमित खुलने के आदेश जारी हुए हैं, तब से यह उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन गया है।

चार-पांच बच्चों को एक साथ इकट्ठा करना और इन्हीं में से किसी एक घर के आंगन में ऐसी जगह तलाशना, जहां कम से कम घंटा भर सुकून से बैठ कर बच्चों के साथ कक्षा एक से पांच तक की हिंदी, अंग्रेजी और गणित विषय के लिए तैयार की गई मूलभूत दक्षताओं पर आधारित अभ्यास पुस्तिकाओं पर पठन-पाठन का वे काम कर सकें। इसके लिए उन्होंने बहुत-सी गतिविधियां भी तैयार की हैं। कुछ गीतों के माध्यम से, कुछ खेल-खेल के माध्यम से और कुछ खुद सीखने-सिखाने की सामग्रियों का निर्माण करके। यह दिनचर्या पौड़ी जनपद में उन तमाम शिक्षिकाओं और शिक्षकों की है, जो पूरे महामारी के दौर में शुरुआत से लेकर अब तक इस काम को अंजाम दे रहे हैं। वजह यह कि ऐसा करके वे जल्द से जल्द अपने अपने विद्यालयों के बच्चों में मूलभूत दक्षताओं में हुई कमी की अधिक से अधिक भरपाई कर सकें।

कक्षा एक और दो के बच्चों के बीच कुछ बिल्कुल नए बच्चों ने स्कूल में कदम भी नहीं रखा होता है। उन बच्चों को स्कूल में लाए बगैर स्कूली प्रक्रियाओं में शामिल करने के लिए तैयार करना उनके लिए एक ऐसी चुनौती है, जिसके लिए हमें उनके संघर्ष को उनके अनुभवों के साथ समझने की कोशिश करनी होगी। प्राथमिक विद्यालय के एक शिक्षक ने तो अपना किराए का आवास भी स्कूल की चारदिवारी के करीब लिया है, ताकि बच्चों को अधिक से अधिक समय मुहैया कराया जा सके। उनके प्रयास से महामारी के बावजूद स्कूल और आसपास के लगभग दस गांव के बच्चे जवाहर नवोदय विद्यालय में प्रवेश के लिए तैयारी कर सके हैं।

सरोकार व्यक्ति को निजी दायरे से ऊपर उठा देता है। ऐसे विद्यालयों में बच्चों की संख्या अधिक होती है। ऐसे में शिक्षकों के लिए काम बहुत चुनौतीपूर्ण हो जाता है। स्कूल बंद होने के बावजूद स्कूलों पर सूचनाओं का बोझ यथावत जारी है। चूंकि अधिकतर स्कूलों में आमतौर पर दो ही शिक्षक होते हैं, तो ऐसे में उन्हें गांवों में जाने के दौरान बच्चों को पर्याप्त समय देने में व्यवधान उत्पन्न होता है। एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जो शिक्षक स्वेच्छा से बच्चों को गांव-गांव घूम कर इस तरीके से पढ़ाई कराने का प्रयास करते आ रहे हैं, उन्हें सहयोग करने की जरूरत लगती है, ताकि वे बच्चों को स्कूल में आमंत्रित कर सकें और उनकी पढ़ाई-लिखाई को नियमित और व्यवस्थित तरीके से करा सकें। इससे न केवल शिक्षक बच्चों के साथ सुगमता से और प्रभावी शिक्षण कर सकेंगे, बल्कि बच्चों के अभिभावकों पर मोबाइल और इंटरनेट पर होने वाले अतिरिक्त खर्च से भी निजात मिलेगी।

मौजूदा समय में में शिक्षकों की समस्याओं पर अलग से सोचने की जरूरत है कि कैसे शिक्षकों की अकादमिक जरूरतों को सभी प्रयासों के केंद्र में लाया जाए। इसके साथ-साथ शिक्षक जो भी प्रयास कर रहे हैं, उन्हें पर्याप्त सहयोग किया जा सके। बहुत सारे शिक्षकों ने पुस्तकालय के माध्यम से बच्चों तक अपनी पहुंच को संवर्धित किया है, ताकि बच्चे लगातार कुछ पढ़ने की प्रक्रियाओं में शामिल रह सकें। इसके लिए स्थानीय स्तर पर युवाओं की सेवाओं को भी लिया गया है।

वर्तमान संदर्भों को ध्यान में रखते हुए सभी प्रयासों का केंद्र सिर्फ बच्चों में मूल दक्षताओं के विकास पर रखने की जरूरत है। इसके लिए जरूरी शिक्षण सामग्री, मसलन बच्चों के लिए पुस्तकें और अन्य सहायक सामग्री को स्कूलों में उपलब्ध कराया जा सकता है। सीखने की काबिलियत को बेहतर बनाने के लिए शिक्षकों के साथ निरंतर संवाद करने की जरूरत है, ताकि जो शिक्षक बहुत ईमानदारी और सरोकार के साथ अपना वक्त देकर इस तरह से प्रयास कर रहे हैं, वे अपने इन प्रयासों को और अधिक प्रभावी बना सकें। अच्छा हो कि कुछ ‘ब्रिज कोर्स’ जैसे विशिष्ट पाठ्यक्रम तैयार किए जाएं, ताकि शिक्षक इनका उपयोग आवश्यकतानुसार कर सकें। आखिर शिक्षा व्यवस्था में बेहतरी हर समाज और सरकार का सरोकार होना चाहिए, ताकि लोग ज्यादा से ज्यादा संवेदनशील और जागरूक हों।