मनोज कुमार मिश्र

अन्य व्यवसाय करने वालों की तरह किसानों को भी वाजिब कीमत पर अपनी फसल बेचने की आजादी मिलनी ही चाहिए। असली समस्या तो ढाई एकड़ से कम जोत वाले पचासी फीसद किसानों की है, जिनका हर तरह से शोषण होता आया है। उनके पास अपनी फसल को मंडी तक ले जाने के साधन भी नहीं हैं और न ही उसे कुछ समय तक सुरक्षित रखने के लिए भंडार। वे गांव से लेकर मंडी तक आढ़तियों या बिचौलियों का शोषण झेलने को मजबूर हैं।

आठ महीने से दिल्ली की सीमाओं पर चल रहा किसान आंदोलन अब संसद के मानसून सत्र में भी दस्तक दे रहा है। केंद्र सरकार अब भी बार-बार किसानों को बातचीत का प्रस्ताव दे रही है। मगर किसान नए कृषि कानूनों को खत्म करने की मांग से कम पर बात करने को तैयार नहीं हैं। वहीं, सरकार ने इन कानूनों को एक निश्चित समय सीमा तक टाल दिया। इनमें जरूरत के हिसाब से संशोधन करने का आश्वासन दे रही है। पर वास्तव में पूरा आंदोलन राजनीति की भेंट चढ़ गया और वे हजारों लोग, जो अपने कामकाज के लिए हर रोज दिल्ली आते-जाते हैं, इस आंदोलन से होने वाले जाम से परेशान होते हैं।

सरकार आंदोलनकारियों पर किसान-विरोधी होने का तमगा मिलने के भय से कड़ाई नहीं कर रही है। कोरोना महामारी के चरम काल में भी किसानों का सांकेतिक जमावड़ा दिल्ली के सिंघू, टिकरी और गाजीपुर सीमाओं पर लगा ही रहा। पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में भी इस किसान आंदोलन ने भूमिका अदा की। किसान नेता और विपक्षी दलों ने दावा किया कि किसान आंदोलन और उसके नेताओं के बंगाल दौरों ने भाजपा को सत्ता में आने से रोक दिया। अब पंजाब, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं। अधिकतर इन्हीं राज्यों के किसान आंदोलन चला रहे हैं। इसलिए लगता है कि किसी न किसी बहाने किसान आंदोलन को इन राज्यों के विधानसभा चुनाव तक चलाया ही जाएगा।

यह आंदोलन जिन तीन कृषि कानूनों के विरोध में शुरू हुआ था, उनमें से एक कानून मंडियों के बाहर भी उपज बेचने की इजाजत देने का है। दूसरा कानून किसानों को सहकारी खेती की अनुमति देने वाला है और तीसरे में अनिवार्य फसलों पर से रोक हटाने का है। सरकार समझाती रही कि इन कानूनों से किसानों को लाभ होगा। उनकी जमीन कोई नहीं ले सकता और मंडियां खत्म नहीं की जा रही हैं। फसलों को खुले में बेचने की इजाजत दी जा रही है। देश में मंडी और उसमें सक्रिय आढ़तियों की व्यवस्था पंजाब और हरियाणा में सबसे मजबूत है।

मगर पंजाब से कुछ किसानों ने दिल्ली की सिंघू सीमा पर आठ महीने पहले इन कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया। उनके साथ हरियाणा के किसान भी जुड़े। टिकरी बार्डर पर भी आंदोलन चलने लगा। भारतीय किसान यूनियन गाजीपुर पर और उसी यूनियन का एक धड़ा चिल्ला बार्डर पर धरना देने लगा (बाद में यह धरना खत्म हो गया)। इन धरनों में चालीस से ज्यादा किसान संगठन शामिल हैं। उनमें वामपंथी दलों के कई संगठन घोषित रूप से शामिल हैं।

मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो उसने 12 जनवरी को तीनों कृषि कानूनों पर अंशकालिक रोक लगा कर समाधान के लिए चार सदस्यों की समिति बना दी। उससे भी बात नहीं बनी। फिर सरकार ने कानूनों को डेढ़ साल के लिए टालने का प्रस्ताव दिया, पर किसान संगठन नहीं माने। इसी के साथ नए सिरे से एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) पर कानून बनाने की मांग भी जोड़ दी गई। किसान संगठनों के नेता 26 जनवरी, 2021 को गणतंत्र दिवस पर दिल्ली के महात्मा गांधी मार्ग (रिंग रोड) पर ट्रैक्टर परेड करने की अनुमति मांगी। फिर परेड के नाम पर दिल्ली में खूब हुड़दंग हुआ। लाल किले पर तोड़फोड़ करके धार्मिक झंडा लगा दिया गया। बाद में अतिरिक्त सुरक्षा बल तैनात करके धार्मिक झंडे को हटाया गया और पुलिस ने उपद्रवियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू की।

सभी को लगा था कि सालों बाद खेती-किसानी देश के मुख्य एजेंडे में आ गई है। पर आंदोलन के जरिए जम कर राजनीति होने लगी। देश भर में भाजपा विरोधी ताकतें आंदोलन से जुड़ गर्इं। अस्सी के दशक के आखिर में सक्रिय हुई चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत की अगुआई वाली भारतीय किसान यूनियन तभी तक ताकतवर रही जब तक वह सक्रिय राजनीति से दूर रही। वह आंदोलन अन्य मुद्दों के अलावा किसानों के सीमित इलाके में फसल बेचने पर रोक के विरोध में था। मगर जैसे ही राजनीतिक दल किसानों का समर्थन पाने के लिए उन्हें अपने पक्ष में करने में लग गए, आंदोलन भटक गया। तब उसे भाजपा का समर्थन मान लिया गया था। उसी भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने उनके बार-बार सरकार पर हमला करने से नाराज होकर उन्हें मेरठ से लखनऊ आंदोलन करने जाते हुए 31 दिसंबर, 1991 को गिरफ्तार करा दिया। टिकैत की उम्मीद से विपरीत उनकी गिरफ्तारी के खिलाफ बड़ा आंदोलन नहीं हुआ। टिकैत ने जेल से रिहा होने के बाद 1993 के विधानसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव का समर्थन कर दिया। उसके बाद टिकैत के दिन वापस नहीं लौटे।

उसके बाद उनके दोनों बेटे यूनियन को ताकतवर बनाने में लगे हुए हैं। बड़े होने के नाते नरेश टिकैत किसान यूनियन के अध्यक्ष हैं, लेकिन सारे फैसले उनके छोटे भाई राकेश टिकैत करते आए हैं। इस किसान आंदोलन से उन्हें भी ताकत मिल गई।26 जनवरी को लाल किले पर हुए उपद्रव के बाद किसान आंदोलन खत्म-सा होने लगा। स्थानीय लोग किसानों के धरने से पहले ही परेशान थे, लेकिन तब कुछ लोगों की उनके प्रति सहानुभूति भी थी। बाद में तो सभी सीमाओं से धरना हटवाने के लिए स्थानीय लोग प्रदर्शन करने लगे। कई संगठन हंगामे के बाद आंदोलन समाप्त कर वापस लौट गए। गाजीपुर सीमा पर आंदोलन की अगुवाई कर रहे राकेश टिकैत किसानों के तंबू उखड़ते देख परेशान हो गए। सरकार ने भी सहूलियतें वापस ले ली। धरना हटाने के लिए बड़ी तादाद में सुरक्षा बल तैनात कर दिया। धारा 144 लागू कर दी गई। तब राकेश टिकैत रो पड़े थे। उन्हें रोता देख किसानों का रोष बढ़ा और आंदोलन में फिर से जान लौट आई। पर अब शयद इस आंदोलन को किसानों तक सीमित रखना इन किसान नेताओं के लिए संभव नहीं लग रहा है।

अन्य व्यवसाय करने वालों की तरह किसानों को भी वाजिब कीमत पर अपनी फसल बेचने की आजादी मिलनी ही चाहिए। असली समस्या तो ढाई एकड़ से कम जोत वाले पचासी फीसद किसानों की है, जिनका हर तरह से शोषण होता आया है। उनके पास अपनी फसल को मंडी तक ले जाने के साधन भी नहीं हैं और न ही उसे कुछ समय तक सुरक्षित रखने के लिए भंडार। वे गांव से लेकर मंडी तक आढ़तियों या बिचौलियों का शोषण झेलने को मजबूर हैं। इसीलिए स्वामीनाथन आयोग ने एमएसपी तय करने के लिए समग्र लागत में पचास फीसद जोड़ कर दाम तय करने का सुझाव दिया।

अभी कुल तेईस उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय होता है, जबकि बड़ी तादाद में किसान फल, सब्जी, दूध, अंडा, मछली आदि का भी उत्पादन करते हैं। इसलिए किसानों का भला करने का दावा करने वाली सरकारों को एमएसपी में शामिल उत्पादों की संख्या बढ़ानी चाहिए। फिर यह गारंटी मिलनी चाहिए कि एमएसपी से कम दाम पर खरीदने वाले को सजा मिलेगी। इसके साथ ही सरकार यह भी सुनिश्चत करे कि गांव-गांव में खरीद केंद्र काम करेंगे, ताकि छोटे किसानों को अपनी फसलों के वाजिब दाम के लिए दर-दर न भटकना पड़े।आंदोलन खत्म कराने के लिए सरकार ने कई तरह के प्रयास किए, पर अब तो संसद के मानसून सत्र के समांतर 22 जुलाई से संसद के पास जंतर मंतर पर किसानों ने अपनी संसद चलानी शुरू कर दी है। इससे यही लग रहा है कि इस आंदोलन में अब राजनीति भी शामिल हो गई है और यह कम से कम अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों तक जारी रहेगा।