पिछले कुछ महीनों में अफगानिस्तान को लेकर पनपी आशंकाएं अब एक-एक करके सही साबित हो रही हैं। देश के ज्यादातर हिस्सों में तालिबान और अफगान सुरक्षा बलों के बीच भीषण लड़ाई जारी है। तालिबान लड़ाके नागरिकों को भी नहीं बख्श रहे। लाखों अफगानी पलायन कर गए हैं। हालात इतने गंभीर हो चुके हैं कि यह मुल्क एक बार फिर दो-ढाई दशक पुरानी स्थिति में लौटता दिख रहा है। हाल में तालिबान ने हेरात में संयुक्त राष्ट्र के दफ्तर को निशाना बना कर यह साबित कर दिया कि वह किसी को नहीं छोड़ने वाला। यह हमला उस बर्बर घटना की याद दिलाता है जब तालिबान लड़ाकों ने काबुल में संयुक्त राष्ट्र के दफ्तर पर धावा बोल कर पूर्व राष्ट्रपति नजीबुल्लाह को पकड़ लिया था और सरेआम फांसी पर लटका दिया था। सत्ता के लिए तालिबान के सिर पर जिस तरह का जुनून सवार है, उसमें ऐसी और घटनाएं देखने-सुनने को मिलें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। इस बात से शायद ही कोई इंकार करेगा कि अफगानिस्तान के हालात क्षेत्रीय शांति के लिए भी खतरा पैदा कर रहे हैं। यह भी सब देख हैं कि एक तरफ तालिबान दोहा, मास्को, ईरान में शांति वार्ताएं भी कर रहा है और दूसरी ओर पूरी ताकत के साथ अफगानिस्तान पर कब्जे के लिए युद्ध भी।

अब ये बातें भी होने लगी हैं कि ताजा संकट के लिए काफी हद तक जिम्मेदार अमेरिका है। खुल कर कहा जा रहा कि अगर अमेरिका अपने सैनिकों को हटाने की जल्दबाजी नहीं करता तो तालिबान के हौसले इतने नहीं बढ़ते। लेकिन खुद को बचाने के लिए अमेरिका ने इस मुल्क को और गंभीर संकट में धकेल दिया। हालांकि अमेरिका अभी भी कह रहा है कि वह अफगानियों की सुरक्षा के लिए तालिबान पर हमले जारी रखेगा। लेकिन यह सोचने वाली बात है कि व्यावहारिक रूप से क्या अब ऐसा संभव हो पाएगा? हाल में अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन भारत दौरे पर आए और उनकी सबसे ज्यादा चिंता अफगानिस्तान को लेकर ही रही। अमेरिका अब इस सच्चाई से आसानी से मुंह नहीं मोड़ पाएगा कि अफगानिस्तान उसके हाथ से निकल चुका है और वह एक तरह से तालिबान से पिट कर लौटा है। माना तो यह भी जाएगा कि यह अमेरिका की नैतिक और सैन्य हार से कम नहीं है।

यह भी सब देख रहे हैं कि अफगानिस्तान की निर्वाचित सरकार चौतरफा संकटों से घिरी है। तालिबान से लड़ने के लिए उसे भारी-भरकम संसाधनों की जरूरत है। तालिबान को तो पाकिस्तान, चीन सहित दूसरे देश मदद दे ही रहे हैं। इसलिए अब ज्यादा बड़ा संकट इस बात है कि आने वाले महीनों में अफगानिस्तान में खून-खराबा और बढ़ सकता है। तालिबान को खदेड़ने के लिए अफगान सुरक्षा बल कोई कसर नहीं छोड़ रहे। जमीनी लड़ाई के साथ उन पर बम भी बरसा रहे हैं। पर तालिबान भी पहले के मुकाबले अब ज्यादा ताकतवर बन कर उभरा है। अमेरिका के पीछे हट जाने से उसका मनोबल और बढ़ा है। अफगानिस्तान की ये लपटें दूर तक पहुंचेंगी। इस बात से भी कोई इंकार नहीं कर सकता कि अफगानिस्तान का सत्ता संकट हथियारों और खून-खराबे से हल नहीं होने वाला। जरूरत राजनीतिक समाधान की ही पड़ेगी। हालांकि एक बड़ी मुश्किल अफगानिस्तान की जातीय संरचना भी है। पर इस सच्चाई से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि जब तक अफगानिस्तान की जमीन पर विदेशी ताकतों का दखल बना रहेगा, तब तक इस मुल्क को हिंसा से कोई नहीं बचा पाएगा।