सुरेश सेठ

देश के नव-निर्माण के लिए मेहनत का कोई अर्थ नहीं रह गया है। यह बात पिछले दिनों कुछ इस प्रकार स्पष्ट हो गई कि निरंतर मेहनत करने वालों के माथे का पसीना भी शर्मिंदा हो गया। शासनावधि समाप्त होने के बाद जब नए चुनाव की दुंदुभि बजती है, तो लगता है वक्त बदलने या युग पलटने का मौसम आ गया। सत्ता के शहसवार कभी रुखसत लेने के लिए तैयार नहीं होते। उन्हें लगता है उनके बाप-दादा जब अपनी राजनीतिक विरासत उन्हें सौंप गए, तो उसे अपनी तिजोरी में बंद करके रखना ही उनका परम धर्म है। धीरे-धीरे यह विरासत देश के उन दस प्रतिशत लोगों के पास सिमट गई, जिनके पास देश की संपदा पर अधिकार का हुक्मनामा है। चुनाव लड़ना अमीर करोड़पतियों का महंगा शौक हो गया, इसलिए देश की नब्बे फीसद जनता चुनावी अखाड़े से छिटक कर दर्शक दीर्घा तक सिमट गई। उन्हें तो अब मेहनती नारे लगाने की आदत भी हो गई है। मेहनत का यही अर्थ मिला उन्हें। नारा लगता है- ‘नेता जी संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं।’

भला कैसे है यह संघर्ष जिसकी मेहनत का संदेश इन चुनावी योद्धाओं को मिला है! पहला संदेश तो यही है कि अब सड़कों पर आ कर वोटरों से उनके वोट मांगने का समय आ गया। पिछले पांच बरस के अपने शासन में उन्हें ‘परसू परसा और परसराम’ बनने की इच्छा होती रही। वे लखपति से करोड़पति और करोड़पति से अरबपति हो जाने के चक्रव्यूह तोड़ते रहे। जब राजनीति के अखाड़े में उतरे थे तो बहुत मुश्किल से सफर कर पाते थे, अब मर्सिडीज से कम पर चलते हुए उनकी तबीयत बिगड़ जाती है। अब तो चांद पर घर बसाने के बारे में वह गंभीरता से सोच रहे हैं।

लेकिन मखमली बिस्तर पर ऊंघती नींद में यह व्यवधान कैसे आ गया? केवल भाषण से, जुमलों से बात चलाने, काम होते जाने का अहसास देने की आदत हो गई है उन्हें। अब कुर्सी से उतर कर पैरों को जुंबिश देनी होगी। वोटरों को कृपानिधान कह कर उनकी भूली गलियों का चेहरा पहचानने की मेहनत करनी होगी, ‘भैया’ कह कर इस तंग उतरी चौखटों को फिर अपना मान माथे से लगाना होगा। चार दिन की चांदनी, जो अब मतदान दिवस तक यहां रचती है, उन्हें अपने स्वप्नजीवी शिलान्यासों से अलंकृत करना होगा।

अब चुनाव दिल से दिल को आवाज दे कर लड़े नहीं जाते, बाकायदा इनके विशेषज्ञ मैदान में उतर आए हैं। नेताओं को मार्ग-दर्शन मिला। मार्गदर्शन तो यही था कि वोटरों को चांद-सितारे आसमान से उतार कर तोहफे के रूप में भेंट कर दो, लेकिन इस बार भेंट करने चले तो जवाब मिला- ‘मैंने चांद और सितारों की तमन्ना की थी, मुझे रातों की स्याही के सिवा कुछ न मिला।’ नफरत और अलगाव की दीवारें खड़ी करके दादियों और नानियों के कवच-कुंडल के साथ वे धरना लगा कर बैठ गए, तो चाहे लोगों के चलने का रास्ता रुक जाए, नहीं रुकता तो सुरक्षा के तर्क के साथ प्रशासन उसे बंद कर दे। समस्या को सुलझने दो, परेशान लोग दो ध्रुवों में बंट कर वोट कर देंगे। लेकिन लोग अब इन बातों से आलोड़ित नहीं होते।

सीधा रास्ता पकड़ने से पहले जरूरी है जिंदगी को जीना, पेट को भरना, खाली हाथों को काम देना। भुगतान के बोझ से चरमराते अपने बजट के नख-शिख को संवारना। इसलिए इस उलझे मामले पर सफाई से पहले जरूरी लगा, पेट में दो रोटी का जुगाड़। सही बात थी। यह मांग तो बहुत पहले हो जानी चाहिए थी कि रोटी-रोजी दे न सके तो वह सरकार निकम्मी है, जो सरकार निकम्मी है वह सरकार बदलनी है। लेकिन इससे पहले कि यह आत्मज्ञान शिद्धत से वोट देने वालों में उभरता, चुनाव सिद्धहस्त मार्गदर्शकों ने खुद एक नया नारा दे दिया- ‘वोट देना है तो हमारा काम देख कर दो, उम्मीदवारों की चिकनी-चुपड़ी बातें सुन कर नहीं।’ अब काम तो भई काम होता है। चाहे हजारों यूनिट बिजली के बिलों में दो सौ यूनिट बिजली माफ करो। स्कूलों के द्वारों के खुलने और बच्चों के पहाड़े रटने की आवाज पैदा कर दो। महंगी दवा-दारू के माहौल में बंद सरकारी डिस्पेंसरियां खोल मुफ्त दवाएं बांटने का शुबहा पैदा कर दो।

यह भी तो एक काम है। स्लेट खाली थी, उस पर चार अंक लिखे नजर आने लगे। नारों की नुहार बदली। अब जिंदाबाद, मुर्दाबाद के नारों की जगह ‘हींग लगे न फिटकरी, रंग भी चोखा आए’। विरोधी उम्मीदवारों ने लाख कहा कि आप हाथों को नई मेहनत का संदेश देने के बजाय उन्हें राहत मांगने का संदेश दे रहे हैं, लेकिन कौन सुनता है! लोगों को सरकार के घर से रियायत की उम्मीद हो गई, तो उन्हें लगा यह तो बहुत बड़ा काम हो गया। भर-भर वोटों के लिए रियायतों की खैरात बांटने वाले नेता लोग केवल उस इलाके में नहीं, पूरे देश में यही करने लगे। काम की परिभाषा फिर बदल गई। लोगों के लिए राहत देने के अंबार खड़े करने के वादों की बारात निकलने लगी। जिन्हें इस चुनाव में हारने की आशंका थी, वे फिर सीना तान कर रियायत बांटने को अपना नया काम बताने लगे।