जिस दौर में हर तरफ जिंदगी की भूख में लोग उम्मीद के सहारे सुबह-शाम गुजार रहे हैं, उसमें पिछले दिनों महज नई साड़ी पहनने की इच्छा जताने भर के लिए एक बुजुर्ग महिला का मजाक बनाए जाते देखा तो बेहद कोफ्त हुई। गुस्सा इसलिए भी आया कि ठीक उसी वक्त मां की याद आ गई। मेरी मां को सिनेमा देखने का बहुत शौक था। अमूमन हर नई फिल्म हम साथ देखने जाते, सिनेमा हॉल में। मुझे याद है एक बार हम ‘ये जवानी है दिवानी’ देखने गए थे। फिल्म खत्म होने के बाद हॉल की सीढ़ियों पर मैं उन्हें हाथ पकड़ कर सावधानी से नीचे उतार रही थी। पीछे कुछ लड़कों को शायद हमारी धीमी गति की वजह परेशानी हुई थी। यहां तक ठीक था। लेकिन उन्होंने खीझ कर कहा- ‘बुढ़िया चल-फिर नहीं सकती, लेकिन सिनेमा का इतना शौक है।’ मैं अगर मां का हाथ न पकड़े होती तो शायद पलट कर उन्हें खरी-खोटी सुनाती। किसी बुजुर्ग महिला को इस तरह बोलना संवेदनहीनता की पराकाष्ठा थी। मैं तब काफी देर तक असहज रही थी।

हम बुजुर्गों की उपेक्षा के दंश से भरी जिंदगी के बारे में तो अक्सर बोलते रहते हैं, लेकिन उनकी खुशियों को लेकर शायद सोचना जरूरी नहीं समझते। कुछ अजीब धारणाएं हैं। मसलन एक खास उम्र के बाद बुजुर्गों को सजना-संवरना नहीं चाहिए, कहीं आने-जाने, घूमने की लालसा नहीं होनी चाहिए। ज्यादा से ज्यादा किसी तीर्थ स्थान तक हो आना चाहिए। बुजुर्गों को मनोरंजन के लिए सिनेमा देखने की तो कोई तुक ही नहीं है। उन्हें किसी बाबा के प्रवचन सुनने के लिए ही निकलना चाहिए। घर में भी टीवी पर वे या तो कोई घरेलू कहानी वाला धारावाहिक या कोई धार्मिक कार्यक्रम देखें। फिल्मी गाने सुनने का या फिल्में देखना अजीब माना जाएगा। कुल मिला कर अगर कोई पचास-साठ की उम्र पार कर चुका है तो उसे एक निशिचत किस्म के सामाजिक व्यवहार की अपेक्षा की जाती है।

फ्रांस में रहने वाली मेरी एक दोस्त ने बताया था कि उसकी सत्तर साल की मकान मालकिन रोज सुबह स्पोर्ट्स वाले जूते पहन कर टहलने जाती हैं और शाम को नृत्य की कक्षा या अक्सर पार्टियों में जाती हैं। हमारे देश में सत्तर साल की महिला अगर नृत्य सीखने जाए तो उसका मजाक उड़ाया जाएगा। भारत में पली-बढ़ी वह दोस्त अपनी मकान मालकिन की दिनचर्या से काफी हैरान, मगर खुश होती है। लेकिन हमारे यहां बुजुर्गों के लिए समाज इतना संवेदनशील नहीं है। अव्वल तो कोई बुजुर्ग खुद ही उमंग भरा जीवन चाहने के बावजूद हिम्मत नहीं कर पाते, अगर कोई ऐसा कुछ करें भी तो लोग उन्हें ‘बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम’ जैसी उपाधि से नवाज दे सकते हैं।

वृद्ध लोगों के साथ सामाजिक व्यवहार से इतर भी कुछ अन्य पहलू इस बीच सामने आए हैं। एक अजीब व्यवहार महामारी के संकट के दौरान हुआ, जब कुछ देशों से खबरें आर्इं कि आॅक्सीजन या वेंटीलेटर की कमी होने पर वृद्धों को मरने के लिए छोड़ दिया गया और युवाओं को बचाने को प्राथमिकता दी गई। भारत में भी एक अदालत की ओर से इसी आशय के बयान में कहा गया कि बुजुर्ग अपना जीवन जी चुके, युवा देश का भविष्य हैं, पहले उन्हें बचाने की जरूरत है। हो सकता है कि ऐसा बोलने वाले न्यायाधीश की मंशा बुजुर्गों के प्रति इतना कठोर न हो, लेकिन सामान्य तौर पर लोग यही आशय लगा सकते हैं। ऐसी बातें सुनने वाले बीमार बुजुर्ग लोगों पर क्या बीतती होगी, इसका सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है।

दरअसल, हमारे यहां लोग जिस तरह के सामाजिक-मानसिक प्रशिक्षण से तैयार होते हैं, उसमें बुजुर्गों का पारंपरिक लीक पर घिसा-पिटा जीवन जीना ही स्वाभाविक माना जाता है। उनके जीवन में आनंद का लोप हो चुका होता है। बूढ़े लोग भी मान लेते हैं कि एक उम्र के बाद उन्हें माला जपना चाहिए, फिल्मी के बजाय भक्ति संगीत सुनना चाहिए। ऐसे में अगर कोई मेरी मां जैसी स्त्री हो, जिसे नई फिल्में देखना पसंद हो तो उसे ताने सुनने पड़ते हैं। समाज अपने आप ही मान लेता है कि बुजुर्गों में कोई इच्छा शेष नहीं बची होगी। उन लोगों ने अपना जीवन जी लिया है। खासतौर पर बुजुर्ग महिलाओं के लिए हालात और भी मुश्किल है। उन्हें अपनी संजीदा छवि के लिए सचेत रहना पड़ता है, क्योंकि अपनी उम्र और शौक को लेकर बहुत बातें सुननी पड़ सकती हैं। अगर सादगी भरे कपड़ों के बजाय थोड़े आम चलन वाले कपड़े पहन लें तो ‘सींग कटा कर बछड़ों में शामिल हो गए’ जैसी कुंठित टिप्पणियां सुननी पड़ती हैं। यह सब हमारे उस समाज में होता है, जहां माना जाता है कि बुजुर्गों का बहुत सम्मान है। दरससल, उन्हें इस अति सम्मान के बोझ तले दबा कर सामान्य और वांछित जीवन जीने से महरूम किया जाता है। एक बार सारी सांस्कृतिक ‘कंडिशनिंग’ हटा कर बुजुर्गों को अपनी मर्जी का जीवन जीने को कहा जाए तो शायद वे उल्लास के साथ अपनी तरह से जीवन जीना पसंद करेंगे, न कि वह जो उन पर थोपा गया है।