खिलाड़ियों का पूजनीय स्थल है ओलंपिक। अपनी मेहनत, लगन और तपस्या को अंजाम देने का संकल्प लेकर दुनिया के हर कोने से खिलाड़ी इस भव्य खेल मेले में उतरते हैं। अपने प्रदर्शन से खिलाड़ी सभी का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश में रहेंगे। शिखरता को छूने का इरादा तो उनका होगा ही। कुछ सफल होंगे तो कुछ असफल। कामयाबी की चाहत में जहां कुछ चर्चित सितारे लड़खड़ाएंगे, तो वहीं कुछ अनजान खिलाड़ी पदक जीतने का अरमान पूरा कर इतिहास बनाएंगे। और जब जापान के शहर तोक्यो में 23 जुलाई से आठ अगस्त तक श्रेष्ठता की होड़ के बाद समापन होगा तो दांव पर लगे पदक तय करेंगे कि खेलों की दुनिया का बादशाह कौन है।

2016 में ब्राजीली शहर रियो डि जेनेरियो में हुए पिछले ओलंपिक में खेलों का सरताज बना था अमेरिका। 46 स्वर्ण और कुल मिलाकर 121 पदक जीतकर उसने चीन, रूस और ब्रिटेन को काफी पीछे छोड़ दिया था। यानी पदकों की संख्या का अंतर दुगना था। इस बार रेकार्ड 33 खेलों की 339 स्पर्धाओंं में जिस देश के खिलाड़ियों के पास प्रतिभा होगी, आॅलराउंड क्षमता होगी, उसी का डंका बजेगा। यानी आपको कौशल और दमखम दिखाना होगा।

जो खिलाड़ी पहली बार ओलंपिक में हिस्सा लेंगे, उनके लिए सीखने और अनुभव हासिल करने का मौका भी रहेगा। पहले ही इस विशाल खेल मेले में भागीदारी का लाभ उठा चुके खिलाड़ियों की कोशिश रहेगी कि इस बार पदक जीतकर उपस्थिति को यादगार बनाएं। आखिर पदक जीतने का सपना संजोकर ही तो खिलाड़ी इन खेलों में पहुंचता है। मेहनत, समर्पण, लगन और दृढ़ इच्छा शक्ति ही तो उसकी पूंजी है। और पोडियन पर खड़े होना उसका लक्ष्य।

यह भी सच है कि किसी के लिए खेल आशा का संचार करेंगे तो कोई निराशामय प्रदर्शन से गमगीन हो जाएगा। उपलब्धि आसानी से हासिल नहीं होती। खेलों की तैयारी के लिए खिलाड़ियों को सालों मैदान पर पसीना बहाना पड़ता है। इसके पीछे प्रेरणा और मार्गदर्शन होता है उसके प्रशिक्षकों का। किसी भी खिलाड़ी के लिए शिखरता को छूना चुनौतीपूर्ण होता है। इसलिए जिन खिलाड़ियों में क्षमता और उम्मीद दिखाई देती है उन पर खेल संगठन काफी मेहनत करते हैं। उन्हें बेहतर से बेहतर ट्रेनिंग दिलाई जाती है, विदेश भेजकर भी कौशल को निखारा जाता है, विदेशी प्रशिक्षकों की भी सेवाएं मुहैया करवाई जाती हैं।

इसके पीछे एकमात्र उद्देश्य होता है कि दुनिया की सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं के बीच मुकाबले में खिलाड़ी पिछड़े नहीं, उसकी जग हंसाई नहीं हो। इस बात में कोई दो मत नहीं कि सफलता मिलेगी तो खिलाड़ी की शोहरत बढ़ेगी। जब पदक गले में होगा तो उस उपलब्धि से राष्ट्र और राज्य दोनों स्तर पर मान्यता मिलेगी। जब मान्यता मिलेगी तो होगी पैसों की बरसात। इनाम के तौर पर मोटी धनराशि दिए जाने की घोषणा। कहीं कार, कहीं घर, कहीं जमीन मिलेगी। नौकरी देने वाला संस्थान भी सफलता को भुनाएगा। आउट आफ टर्न प्रोमोशन से खिलाड़ियों को खुश किया जाएगा।

ओलंपिक का मंत्र है सिटियस, आल्टियस, फार्टियसा इन लैटिन शब्दों में छिपी है भावना – यानी तेज, ऊंचा और ताकतवर। भाग लेने वाले खिलाड़ी इन्हीं तीनों के जरिए अपने को बेहतर साबित करने के लिए जूझते हैं। प्रतिभाएं दुनिया के कोने-कोने से जुटती हैं। न जाति देखी जाती है, न धर्म और न ही रंग। खिलाड़ी के सामने खिलाड़ी होता है और टीम के सामने टीम। अपने-अपने देश का ध्वज इनको प्रेरणा देता है।

ओलंपिक गोल्ड मिलता है तो खिलाड़ी का नाम इतिहास में दर्ज हो जाता है। पोडियम पर जब गले में सुनहरी पदक हो, राष्ट्रीय ध्वज फहरा रहा हो और राष्ट्रीय गान बज रहा हो तो उसकी सुखद अनुभूति अलग ही होती है। खुशी से आंसू झलक पड़ते हैं। यह क्षण उसके खेल जीवन को ही बदल देता है। ओलंपिक में ऐतिहासिक प्रदर्शन करने वाले एथलीटों की लंबी कतार है। इनके करिश्माई प्रदर्शन से रेकार्ड बनते, टूटते रहे हैं। जैसी ओवंस, पावो नूरमी, लासी विरेन, डान फ्रेजर, विंसा रूडोल्फ, बॉब बीमन, कार्ल लुईस, एडविन मोमेज, स्टीवनसन, जुआनतोरोना, नादिया कोमानेसी, मार्क स्पिट्ज, ओरेटर जैसे महान खिलाड़ियों ने खेलों को नई ऊंचाइयां दीं। टीम खेलों में हॉकी में भारत की बादशाहत का भी इतिहास रहा है। ध्यानचंद की हॉकी जादूगरी को क्या कोई भुला सकता है?

खेलों ने विवाद भी देखे और बॉयकॉट को झेला है। 1972 के म्यूनिख ओलंपिक में 11 इजराइली खिलाड़ियों की दर्दनाक हत्या की पीड़ा को भी सहा है। खिलाड़ियों का सफलता के लिए ड्रग्स का इस्तेमाल भी देखा है। इसी दम पर शोहरत पाकर बदनामी का सफर तय करने वाले कनाडा के स्प्रिंटर बेन जानसन का उदाहरण सबके सामने है। पदक छिने भी पर यह बीमारी अभी गई नहीं। यहां तक कि खिलाड़ियों के साथ राष्ट्रीय खेल संघों को भी निलंबन झेलना पड़ा। इस बार चुनौती थोड़ी अलग है। कोविड-19 की वजह से खेल के मायने बदल गए हैं। अब खिलाड़ी दबाव में हैं। कई तरह की पाबंदियों के कारण उनकी ट्रेनिंग पर असर पड़ा है। अभ्यास के मौके कम मिल पाए हैं। विदेश जाकर ट्रेनिंग करना तो दूर, अपने देश में भी खिलाड़ी उतना समय नहीं दे पाए जितना देना चाहिए। प्रतियोगिताओं में भाग लेकर अपनी तैयारियों की परख नहीं कर पाने की हताशा भी है।