डॉ. संजय वर्मा। कोरोना काल के करीब डेढ़ साल के इस अरसे में गांव इस वायरस की चपेट में आने से काफी हद तक सुरक्षित थे। अक्सर देश के ग्रामीण अंचलों से जुड़े लोग यह दावा तक करते थे कि उन्हें इस वायरस से कोई खास खतरा नहीं है। वजह यह थी कि गांवों तक इसकी असरदार पहुंच नहीं बनी थी। साथ ही, वे ग्रामीण अक्सर गांवों की साफ-सुथरी आबोहवा और स्वस्थ खानपान व जीवनशैली के बल पर खुद को इस संक्रामक बीमारी से सुरक्षित बताते थे। ये दावे हवाई नहीं थे। यह एक सच है कि कोरोना वायरस ने अपनी शुरुआत से सबसे ज्यादा कहर देश दुनिया के शहरों पर ही बरपाया। कोरोना वायरस की उत्पत्ति का केंद्र चीन का एक आधुनिक शहर वुहान था, जहां से फैलने के बाद इसने ईरान, इटली, दक्षिण कोरिया, ब्रिटेन समेत यूरोप अमेरिका के कई शहरों को अपनी चपेट में ले लिया है।

दुनिया भर के आधुनिक शहरों में कोरोना संक्रमण की वजह से तालाबंदी करनी पड़ी। चूंकि इस वक्त दुनिया की आधी आबादी शहरों में निवास कर रही है, ऐसे में कोविड के संकट ने शहरों की व्यवस्था को एक झटके में बैठा दिया। इससे यह भी साबित हुआ कि शहरों के विकास की ऊंची अट्टालिकाओं की हैसियत कोरोना वायरस के समक्ष कितनी बौनी है। सिर्फ यूरोप अमेरिका ही नहीं, भारत में दिल्ली मुंबई, चेन्नई, कोलकाता के अलावा लखनऊ, नागपुर, पुणे, अहमदाबाद, बेंगलुरू आदि शहरों में कोविड का फैलाव जंगल की आग की मानिंद हुआ।

शहरों में ही केंद्रित ये घटनाएं इसका जीता-जागता सबूत बन गईं कि जिन शहरों को पूरी दुनिया ने अपने विकास की कहानी कहने या कहें कि शोकेस करने का जरिया बना लिया था, उन सारे शहरों को आंख से नहीं दिखने वाला नन्हा सा वायरस किस कदर चौपट कर सकता है और कैसे उनकी केंद्रीकृत व्यवस्थाओं को धराशायी कर सकता है। कोरोना वायरस की दूसरी लहर ने हमारे शहरों के उस स्वास्थ्य ढांचे की भी कलई उतार दी, जिसके आधार पर किसी बीमारी-महामारी की सूरत में ग्रामीण अपने मरीजों को यहां लाकर उपचार की कोई उम्मीद बांधते थे। रेमडेसिविर इंजेक्शन से लेकर आक्सीजन की आर्पूित के घनघोर संकट रूपी हादसे ने हमें यह सोचने को मजबूर कर दिया है कि हम शहरों को रोजगार, विकास और हर किस्म की सहूलियतों का केंद्र बनाने की योजना का पुनरावलोकन करें, क्योंकि एक ही झटके में ये शहर अनजान खतरों के एपिसेंटर बन जाते हैं और चलती हुई दुनिया के पांवों में अनिश्चतकालीन ब्रेक लगा देते हैं। लेकिन कोरोना संक्रमण के मामले में जो गांव शहर बनने से बचे हुए थे, अब तो वहां भी आशंकाओं के काले बादल मंडराने लगे हैं।

मानसून से पहले आने लगा पसीना : हमारे गांवों के बारे में दावा है कि आधी से ज्यादा आबादी वहां निवास करती है और शहरों में रहने वाले बहुतेरे लोगों की जड़ें अब भी गांवों में हैं। लेकिन कुछ अपवादों को छोड़ दें, सड़क, बिजली, पानी, स्कूल और अस्पताल के नाम पर वे अब भी जड़ देहात हैं। अच्छी शिक्षा चाहिए तो ग्रामीण बच्चे शहर को भागते हैं, रोजगार चाहिए तो उन्हें ठौर दिल्ली-मुंबई या फिर अन्य बड़े शहरों में मिलता है। ग्रामीण अंचलों में स्वास्थ्य सुविधाओं का आलम क्या है, इसे बताने की जरूरत नहीं है। कोरोना वहां भी शहरों जैसे हालात बना देता, पर दावों पर यकीन करें तो इस बहरूपिया वायरस ने अभी तक गांवों में कोई प्रभावी दस्तक नहीं दी थी।

यहां तक कि पिछले वर्ष लॉकडाउन के चलते जो हजारों-लाखों ग्रामीण पलायन करते हुए शहरों से गांव पहुंचे थे, उन्हें क्वारंटाइन कर देने से वहां के हालात काबू में कर लिए गए थे। लेकिन अब ये स्थितियां नाटकीय रूप से बदल गई हैं। अपनी नाकामी के बोझ से कराहते स्वास्थ्य महकमों ने गांव तक पहुंचते कोरोना वायरस को लेकर कोई उल्लेखनीय टिप्पणी अभी नहीं की है, लेकिन अच्छे मानसून की खबरों से उत्साहित अर्थशास्त्रियों के माथे पर गांवों में कोरोना की दस्तकें पसीना ला रही हैं। इन अर्थशास्त्रियों का मानना है कि देश में हर दिन आ रहे कोविड के लाखों मामलों की तादाद पिछले साल के मुकाबले 300 फीसद अधिक है, जिसका अर्थ है कि इनसे गांवों के बुनियादी स्वास्थ्य ढांचे पर बहुत बुरा असर पड़ने वाला है। उनका कहना है कि कोविड महामारी की घातक दूसरी लहर ग्रामीण क्षेत्रों को तेजी से अपनी चपेट में ले रही है।

डरावने संकेतों का इशारा : गांवों को घुटनों पर ला देने वाले इस संकट का एक इशारा हाल में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की ओर से कराए गए शोध में किया गया है। इस समूह के मुख्य आर्थिक सलाहकार सौम्य कांति घोष द्वारा तैयार रिपोर्ट में कहा गया है कि अप्रैल 2021 में कोविड के नए मामलों में देश के ग्रामीण जिलों की हिस्सेदारी बढ़कर 45.5 फीसद और मई के शुरुआती दिनों में 48.5 प्रतिशत हो गई, जो मार्च में 37 फीसद थी। हालांकि इस शोध में यह भी बताया गया था कि पिछले साल भी गांव मजूदरों के पलायन के कारण इसी किस्म के संकट में घिर गए थे।

ग्रामीण जिलों में पिछले साल अगस्त में कोरोना अपने उच्चतम स्तर पर था, लेकिन बाद के महीनों में उसकी दर में तेज गिरावट आई, जिससे हालात संभल गए थे। लेकिन इस वर्ष अप्रैल से ग्रामीण जिलों का नजारा ही बदल गया है। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया द्वारा कराए गए इस शोध का अनुमान है कि देश के शीर्ष 15 सबसे खराब ग्रामीण जिलों में से छह महाराष्ट्र, पांच आंध्र प्रदेश, दो केरल और एक-एक कर्नाटक व राजस्थान के हैं। सिर्फ एसबीआइ ही नहीं, एक अन्य आर्थिक संस्था रेटिंग एजेंसी ‘क्रिसिल’ ने भी इन डरावने संकेतों पर हामी भरी है। क्रिसिल ने बीते सप्ताह जारी अपनी रिपोर्ट में गांवों की हालत को अत्यधिक चिंताजनक बताते हुए कहा है कि अभी तक कोविड को शहरों तक सीमित माना जा रहा था, पर दूसरी लहर ग्रामीण भारत को भी चपेट में ले रही है। इस एजेंसी का मत है कि अप्रैल में नए मामलों में से 30 फीसद ग्रामीण जिलों से सामने आए हैं, जो कि मार्च में 21 फीसद थे।

निरक्षरता और अंधविश्वास की चुनौती : हालांकि ग्रामीण अंचलों में जनसंख्या का घनत्व शहरों के मुकाबले काफी कम होता है, ऐसे में वहां कोरोना वायरस के फैलाव की गति न तो शहरों की तरह तेज हो सकती है और न ही उसका दायरा बहुत अधिक विस्तृत हो सकता है। लेकिन कुछ समस्याएं हैं जिनके रहते गांवों की आबादी पर कोरोना का संक्रमण दीर्घकालिक असर डाल सकता है। पहली समस्या तो शहरों की तुलना में वहां इलाज की सुविधाओं का न होना है। वहां कहने को कुछेक प्राथमिक चिकित्सा केंद्र हो सकते हैं, लेकिन कोरोना की जांच के साधन और आक्सीजन व आइसीयू जैसी सहूलियतें तो शायद ही किसी गांव में मिलें। यही नहीं, कोरोना संक्रमण के प्रसार को रोकना भी वहां बड़ी चुनौती है। अव्वल तो ग्रामीण अंचलों की आबादी बहुत कम साक्षर है, दूसरे वहां का समाज इलाज के आधुनिक प्रबंधों के मुकाबले अंधविश्वासी तौर-तरीकों को ज्यादा तवज्जो देता है। अभी भी गांव-देहात में शादियों में भारी भीड़ जमा हो रही है और मामला किसी र्धािमक समागम का हो तो लोगों को वहां पहुंचने से रोकना तकरीबन असंभव हो जाता है।

प्रश्न है कि कोविड महामारी की कोई बड़ी मार अगर गांवों पर पड़ने वाली है, तो उससे उन्हें कैसे बचाया जाए। इसका पहला उपाय तो यही है कि जितनी जल्दी हो सके, ग्रामीणों को कोरोना की मुकम्मल जांच से जोड़ा जाए। गांव में स्वास्थ्य ढांचे से जुड़े जितने भी संसाधन फिलहाल उपलब्ध हैं, उनका इस्तेमाल कोरोना टेस्टिंग में तुरंत किया जाए। इसके साथ ही, ग्रामीणों को कोरोना के टीके भी उपलब्ध कराए जाए।

कमजोर को और मारती इलाज की कीमत: यह सिर्फ एक उक्ति नहीं है कि वायरस हमेशा समाज में कमजोरियों का पीछा करते हैं और समाज की दरारों व कमियों पर हमला बोलते हैं। भारत में गरीबी के हालात कोरोना के मामले में कोढ़ में खाज की स्थितियां पैदा कर रहे हैं। विचारणीय यह है कि जब गरीब परिवार छोटे-मोटे रोगों के इलाज में घर-जमीन-जेवर बेचने को मजबूर हो जाता है, तो उस कोविड के सामने उसकी क्या हालत होगी जिसमें अच्छे डॉक्टर और निजी अस्पताल अमीरों तक की नहीं सुन रहे हैं। जब एंबुलेंस वाले दो-चार किलोमीटर के लिए 10-20 हजार रुपये, रेमडेसिविर इंजेक्शन के लिए 50 हजार तक और आक्सीजन सिलेंडर के लिए लाख रुपये तक मांग रहे हों, तो सवाल है कि क्या गरीब किसी तरह बच पाएगा। ऐसे में कोरोना की मार पड़ने पर दो जून रोटी की जुगाड़ में जीवन लगा देने वाले गरीबों का क्या होगा? यह अंदाजा लगाया जा जा सकता है। इस वर्ष के र्आिथक सर्वेक्षण तक में यह आकलन सामने आ चुका है कि इलाज कराने में भारतीयों की सबसे ज्यादा जेब ढीली होती है, क्योंकि स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारी निवेश बहुत कम है। चूंकि हमारे देश में इलाज को सार्वजनिक जिम्मेदारी न मानकर निजी मान लिया गया है, लिहाजा लोग मजबूर हैं कि अगर मरने से बचना है तो इसके लिए जिंदगी भर की जमा-पूंजी को स्वाहा करने के लिए तैयार होना पड़ेगा।

आकलन बताते हैं कि देश की चार फीसद आबादी अपनी आय का एक चौथाई हिस्सा डॉक्टर-अस्पताल के चक्कर में गंवा देती है। कोविड महामारी का दौर तो अलग है, आम दिनों में ही करीब 17 फीसद जनता अपनी कुल व्यय क्षमता का 10 फीसद से ज्यादा इलाज पर खर्च करने को विवश होती है। मोटे तौर पर दावा यह है कि हमारे देश में 65 फीसद लोग यदि बीमार हो जाएं तो इसका खर्च उन्हें खुद उठाना है, क्योंकि इसके लिए कोई सरकारी व्यवस्था नगण्य ही है।

वर्ष 2017 में एक संस्था -पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया ने इलाज संबंधी खर्च का एक आकलन किया था। इसके अनुसार, देश के साढ़े पांच करोड़ लोगों द्वारा स्वास्थ्य पर किया गया व्यय ओओपी यानी आउट ऑफ पॉकेट या हैसियत से अधिक व्यय की सीमा से पार रहा है। सबसे उल्लेखनीय यह है कि इनमें से 60 फीसद यानी तीन करोड़ 80 लाख लोग अस्पताल के खर्चों के चलते बीपीएल यानी गरीबी रेखा से नीचे आ गए। अब कोरोना काल में कितने करोड़ और लोग इस रेखा के नीचे जा चुके हैं और कितने और जाने वाले है, इसका अनुमान ही हमें भीतर तक कंपा देता हैं।

[असिस्टेंट प्रोफेसर, बेनेट यूनिवर्सिटी, ग्रेटर नोएडा]