शुरू में जिस तरह टीकाकरण को लेकर केंद्र सरकार ने उत्साह दिखाया और देश में बने दो टीके चरणबद्ध तरीके से लगाने की रूपरेखा तैयार की थी, उससे लगा था कि अब देश में कोरोना का खतरा जल्दी टल जाएगा। पहले मुफ्त टीकाकरण अभियान चलाया गया, फिर निजी अस्पतालों को ढाई सौ रुपए में लगाने की इजाजत दी गई, इस तरह टीकाकरण अभियान में तेजी आने की उम्मीद जगी थी। मगर फरवरी में कोरोना का नया रूप उभर आया और तेजी से फैलना शुरू हो गया।

महाराष्ट्र में इसका भयावह असर दिखाई देने लगा। फिर धीरे-धीरे पूरे देश में फैलना शुरू हुआ। ऐसे में कई राज्य सरकारों ने मांग की कि अठारह साल तक की उम्र वालों को टीकाकरण की इजाजत दी जाए, क्योंकि वायरस के खतरे बढ़ रहे हैं। तब केंद्र ने उन राज्य सरकारों की मांग ठुकरा दी थी। हालांकि बाद में इसकी इजाजत दे दी गई। मगर अप्रैल आते-आते टीकों की कमी दिखाई देने लगी। पहले महाराष्ट्र में टीका उपलब्ध न होने के कारण कई टीकाकरण केंद्रों के दरवाजे बंद हुए, फिर दूसरे राज्यों में यही स्थिति देखी जाने लगी। इसके बावजूद केंद्र सरकार ने टीकाकरण उत्सव मनाने की घोषणा कर दी। उसका मानना था कि लोग टीकाकरण के लिए अपेक्षित उत्साह से आगे नहीं आ रहे हैं।

इस वक्त जब देश में संक्रमितों की संख्या सरकारी आंकड़ों के मुताबिक रोज चार लाख से ऊपर दर्ज हो रही है और इससे मरने वालों की तादाद चार हजार से ऊपर आ रही है, तब टीकाकरण में तेजी लाने की मांग भी बढ़ रही है। मगर स्थिति यह है कि इस वक्त टीकों का भारी अभाव है। न निजी अस्पतालों में टीके उपलब्ध हैं और न सरकारी केंद्रों पर। जिस सीरम इंस्टीट्यूट के टीके पर सरकार की निर्भरता सबसे अधिक थी, उसने अब जरूरत भर के टीके उपलब्ध कराने को लेकर अपने हाथ खड़े कर दिए हैं।

इस स्थिति से निपटने के लिए सरकार ने रूस से टीका मंगाने की इजाजत दे दी, मगर उससे भी जरूरत पूरी नहीं हो पा रही। अब सरकार को खुद समझ नहीं आ रहा कि वह इस स्थिति से कैसे निपटे। पहले केंद्र सरकार ने टीकाकरण की कमान पूरी तरह अपने हाथ में ले रखी थी, पर जैसे ही टीकों की किल्लत शुरू हुई, उसने राज्य सरकारों पर जिम्मेदारी डाल दी कि वे टीके बनाने वाली कंपनियों से तालमेल करके, अपने अनुसार टीकों की दर तय करें और लोगों को टीके उपलब्ध कराएं। यहां तक कि केंद्र ने अपने लिए खरीदे जाने वाले टीके की कीमत सबसे कम रखी और राज्यों तथा निजी अस्पतालों के लिए दरें ऊंची रखीं। इसे लेकर भी उसे काफी आलोचना झेलनी पड़ी।

दरअसल, केंद्र ने टीकाकरण अभियान को लेकर शुरू से ही सही रणनीति नहीं अपनाई। उसका आकलन भी ठीक नहीं था। वह शायद मान कर चल रही थी कि अब कोरोना का संकट समाप्त हो चुका है, इसलिए टीकाकरण अभियान लंबे समय तक भी चलाया जा सकता है। इसीलिए वह सीरम इंस्टीट्यूट पर ज्यादा निर्भर रही। दूसरे देशों की टीका बनाने वाली कंपनियों से बातचीत नहीं की। जिन देशों ने अपनी तरफ से पहल की थी, उन्हें भी अनसुना कर दिया गया। टीके की बहुत सारी खुराक दूसरे देशों को इमदाद में भेज दी गई। अब जब टीकाकरण अभियान में तेजी लाने की जरूरत रेखांकित की जा रही है, सरकार को चाहिए कि वह इस मामले में विशेषज्ञों की सलाह और सर्वदलीय बैठक करके कोई व्यावहारिक उपाय तलाश करे।