कोरोना: जीत का दावा करने वाला भारत आख़िर कैसे चंगुल में जा फंसा?

  • विकास पांडेय
  • बीबीसी न्यूज़, दिल्ली
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इमेज कैप्शन, फरवरी में, कोरोना के रोजाना मामलों की संख्या 20,000 से भी नीचे पहुंच गई थी

सोमवार को, केंद्र सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी ने पत्रकारों से कहा कि अब दिल्ली या देश में कहीं भी ऑक्सीजन की कमी नहीं है.

हालांकि उनसे महज़ कुछ किलोमीटर दूर के कई छोटे अस्पताल सरकार को ऑक्सीजन ख़त्म होने के बारे में इमर्जेंसी मैसेज भेजकर मरीजों की जान बचाने की गुहार लगा रहे थे.

बच्चों के एक अस्पताल के मुख्य डॉक्टर ने बीबीसी को बताया कि हमारा कलेजा मुँह में आया हुआ था, क्योंकि ऑक्सीजन के ख़त्म होने पर बच्चों के मरने का ख़तरा था. ऐसे में वहाँ के एक स्थानीय नेता की मदद से समय पर ऑक्सीजन सप्लाई अस्पताल को मिल सकी.

इसके बाद भी, केंद्र सरकार बार-बार ज़ोर देकर कह रही है कि देश में ऑक्सीजन की कोई कमी नहीं है.

केंद्रीय गृह मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने इस बारे में बताया, ''हमें ऑक्सीजन की ढुलाई में दिक्कत हो रही है.'' इसलिए उन्होंने अस्पतालों को दिशानिर्देशों के अनुसार ऑक्सीजन का समझदारी से उपयोग करने की सलाह भी दी.

हालाँकि बीबीसी से बात करने वाले कई डॉक्टरों ने कहा है कि वे केवल उन रोगियों को ऑक्सीजन दे रहे हैं, जिन्हें इसकी सख़्त जरूरत है.

लेकिन ऐसा करने पर भी ऑक्सीजन कम पड़ रही है. हालाँकि जानकारों का कहना है कि ऑक्सीजन की कमी, उन कई समस्याओं में से एक है, जिनसे पता चलता है कि केंद्र और राज्य दोनों कोरोना की दूसरी लहर के लिए तैयार नहीं थे.

इसलिए वे दूसरी लहर से हो रहे नुक़सान को रोकने या कम करने के लिए पर्याप्त इंतजाम करने में विफल रहे.

हालांकि इस बारे में बार-बार कई चेतावनी जारी की गई थी. नवंबर में, स्वास्थ्य मामलों की स्थायी संसदीय समिति ने कहा था कि देश में ऑक्सीजन की सप्लाई और सरकारी अस्पतालों में बेड दोनों अपर्याप्त हैं. इसके बाद फ़रवरी में, बीबीसी को कई जानकारों ने बताया था कि उन्हें निकट भविष्य में 'कोविड सूनामी' का डर सता रहा है.

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इमेज कैप्शन, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्द्धन ने 8 मार्च को कोरोना महामारी के खत्म होने की घोषणा तक कर दी

मार्च की शुरुआत में, सरकार के बनाए वैज्ञानिकों के एक विशेषज्ञ समूह ने कोरोना वायरस के कहीं अधिक संक्रामक वैरियंट को लेकर अधिकारियों को चेताया था. एक वैज्ञानिक ने बीबीसी को बताया कि इस बारे में रोकथाम के कोई अहम उपाय न करने पर चेतावनी दी गई थी. सरकार ने इन आरोपों का कोई जवाब नहीं दिया है.

इसके बावजूद, 8 मार्च को केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्द्धन ने कोरोना महामारी के ख़त्म होने की घोषणा कर दी. ऐसे में सवाल उठता है कि आखि़र सरकार से कहां पर 'चूक' हो गई?

आखि़र चूक कहां हुई?

जनवरी और फ़रवरी में, कोरोना के रोजाना के मामलों की संख्या घटकर 20,000 से भी नीचे पहुंच गई थी. इससे पहले सितंबर में रोज 90 हजार से अधिक मामले सामने आ रहे थे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना को हरा देने का ऐलान कर दिया, जिसके बाद लोगों के मिलने-जुलने के सभी जगहों को खोल दिया गया.

इस तरह ऊपर से भरमाने वाले ऐसे संदेश मिलने के बाद लोग जल्द ही कोविड प्रोटेक्शन प्रोटोकॉल को भूल से गए.

हालांकि प्रधानमंत्री मोदी ने लोगों से मास्क पहनने और सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों का पालन करने को कहा, पर वे खुद पाँच राज्यों में होने वाले चुनावों की रैलियों को संबोधित कर रहे थे. इन विशालकाय रैलियों में जुटी हजारों की भीड़ में से ज्यादातर के चेहरे पर से मास्क नदारद थे. इसके अलावा, उत्तराखंड के हरिद्वार में लाखों की भीड़ जुटाने वाले कुंभ मेले को भी सरकार ने मंज़ूरी दी.

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इमेज कैप्शन, सरकार ने हरिद्वार में लाखों की भीड़ जुटाने वाले कुंभ मेले को मंजूरी दी
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पब्लिक पॉलिसी और हेल्थ सिस्टम के जानकार डॉ. चंद्रकांत लहरिया इस बारे में कहते हैं, ''प्रधानमंत्री ने जो कहा और किया, उसमें कोई मेल नहीं था.''

वहीं जाने-माने वायरोलॉजिस्ट डॉ. शाहिद जमील ने बताया, ''सरकार दूसरी लहर को भांप नहीं पाई और बहुत जल्दी इसके ख़त्म होने का जश्न मनाना शुरू कर दिया.''

इन सभी बातों के अलावा, इस तबाही ने कई और चीज़ों को सामने ला दिया है. इस आपदा ने अच्छे से बता दिया कि भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य का ढांचा कितना कमज़ोर है और दशकों से इसकी कितनी उपेक्षा की गई है.

अस्पतालों के बाहर बिना इलाज के दम तोड़ने वाले लोगों को देखकर केवल दिल नहीं नहीं दहल रहे हैं. ये नजारे बता रहे हैं कि हेल्थ सेक्टर के बुनियादी ढांचे की असलियत आखि़र क्या है.

एक जानकार ने बीबीसी को बताया कि भारत के सार्वजनिक स्वास्थ्य का ढांचा हमेशा से टूटा हुआ था. बस अंतर यह है कि अमीर और मध्य वर्ग को इसका पता अभी चल रहा है. जो लोग सक्षम थे, वे अपने और परिवार के इलाज के लिए हमेशा निजी अस्पतालों पर निर्भर थे. वहीं ग़रीब लोग डॉक्टर से दिखाने के लिए जूझ रहे थे.

स्वास्थ्य क्षेत्र से जुड़ी सरकार की हाल की योजनाओं जैसे स्वास्थ्य बीमा और ग़रीबों के लिए सस्ती दवा, भी लोगों को बहुत मदद नहीं मिल पा रही है. वह इसलिए कि मेडिकल स्टाफ या अस्पतालों की संख्या बढ़ाने के लिए बीते दशकों में बहुत कम प्रयास हुआ है.

निजी और सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों को मिलाकर देखें तो पिछले छह सालों में भारत का स्वास्थ्य पर खर्च जीडीपी का लगभग 3.6 फ़ीसदी रहा है. 2018 में यह ब्रिक्स के सभी पांच देशों में सबसे कम है. सबसे अधिक ब्राजील ने 9.2 फीसद, जबकि दक्षिण अफ्रीका ने 8.1 फीसद, रूस ने 5.3 फ़ीसद और चीन ने 5 फ़ीसदी खर्च किया.

यदि विकसित देशों की बात करें तो वे स्वास्थ्य पर अपनी जीडीपी का कहीं ज्यादा हिस्सा खर्च करते हैं. 2018 में, अमेरिका ने इस सेक्टर पर 16.9 फ़ीसदी जबकि जर्मनी ने 11.2 फ़ीसदी खर्च किया था. भारत से कहीं छोटे देशों जैसे श्रीलंका और थाईलैंड ने भी हेल्थ सेक्टर पर कहीं ज्यादा खर्च किया है. श्रीलंका ने अपनी जीडीपी का 3.79 फीसदी इस मामले में खर्च किया, जबकि थाईलैंड ने 3.76 फीसदी.

चिंता की एक बात यह भी है कि भारत में हर 10,000 लोगों पर 10 से कम डॉक्टर हैं. कुछ राज्यों में तो यह आंकड़ा पांच से भी कम है.

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इमेज कैप्शन, भारत में हर 10,000 लोगों पर 10 से कम डॉक्टर हैं. कुछ राज्यों में तो यह आंकड़ा पांच से भी कम है

कोरोना से लड़ने की तैयारी

पिछले साल सरकार ने कोरोना की आने वाली लहर से लड़ने के लिए कई 'सशक्त समितियों' को बनाया गया था. इसलिए विशेषज्ञ ऑक्सीजन, बेड और दवाओं की कमी को लेकर हैरान हैं.

महाराष्ट्र के पूर्व स्वास्थ्य सचिव महेश जगाड़े ने बीबीसी को बताया, ''देश में जब पहली लहर आई थी, तभी उन्हें सबसे खराब मानकर दूसरी लहर के लिए तैयार हो जाना चाहिए था. उन्हें ऑक्सीजन और रेमेडेसिविर जैसी दवाओं का भंडार बनाने का फैसला कर लेना था और फिर इसके लिए अपनी विनिर्माण क्षमता को बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए था.''

अधिकारियों का कहना है कि मांग में आई उछाल को पूरा करने के लिए देश में पर्याप्त ऑक्सीजन बनाई जा रही है, लेकिन असल समस्या इसकी ढुलाई है. जानकारों की राय है कि इस समस्या को बहुत पहले दूर कर लेना चाहिए था. लेकिन ऑक्सीजन की कमी के कारण कई रोगियों की मौत हो जाने के बाद सरकार एक राज्य से दूसरे राज्य में ऑक्सीजन ले जाने के लिए विशेष रेलगाड़ियाँ चला रही है और उद्योगों में ऑक्सीजन के उपयोग को रोक दिया गया है.

इस बारे में डॉ. लहरिया बताते हैं, ''इसका नतीजा यह हुआ है कि हताश लोग अपने परिजनों की जान बचाने के लिए ब्लैक मार्केट से हज़ारों रुपए खर्च कर और घंटों कतार में खड़े होकर ऑक्सीजन सिलिंडर हासिल कर रहे हैं. वहीं रेमेडेसिविर और टोसिलिजुमाब जैसी दवाओं को ख़रीदने में सक्षम लोग, इसके लिए भारी भुगतान करने को मजबूर हैं.

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इमेज कैप्शन, हताश लोग अपने परिजनों की जान बचाने के लिए हजारों खर्च कर ऑक्सीजन सिलेंडर हासिल कर रहे हैं

रेमेडेसिविर बनाने वाली एक दवा कंपनी के एक अधिकारी ने बताया है कि जनवरी और फ़रवरी में इसकी मांग बिल्कुल ख़त्म हो गई थी. उन्होंने कहा, ''यदि सरकार ने इस बारे में कोई आदेश दिया होता, तो हम इसका बड़ा भंडार तैयार कर लेते तब इसकी कोई कमी नहीं हो पाती.'' उनके अनुसार, उत्पादन में वृद्धि की गई है, लेकिन यह मांग से काफ़ी कम है.

इसके विपरीत, देश के दक्षिणी राज्य केरल ने संक्रमण बढ़ने का अनुमान लगाकर योजना बनाई. राज्य के कोविड कार्यबल के एक सदस्य डॉ. ए. फतहुद्दीन ने बताया कि राज्य में ऑक्सीजन की कोई कमी नहीं है क्योंकि पिछले साल अक्टूबर में इस बारे में आवश्यक क़दम उठाए गए थे.

वे कहते हैं, ''हमने पहले से ही पर्याप्त मात्रा में रेमेडेसिविर और टोसिलिजुमाब जैसी दवाओं की ख़रीद कर ली थी. हमारे पास अगले कई हफ्तों में संक्रमण की किसी भी संभावित वृद्धि से निपटने की अच्छी योजना है.''

केरल की तैयारी से सीख लेने के बारे में महाराष्ट्र के पूर्व स्वास्थ्य सचिव जगाड़े ने कहा कि अन्य राज्यों को भी इस आपदा से निपटने की ऐसी ही तैयारी करनी चाहिए थी. उन्होंने कहा, ''सीख का मतलब होता है कि किसी और ने इसे किया है और आप इसे अभी कर सकते हैं. हालांकि इसका यह भी मतलब होता है कि इसमें समय लगेगा.''

हालांकि कोरोना की दूसरी लहर से निपटने का समय निकलता जा रहा है क्योंकि दूसरी लहर अब उन गाँवों में फैल रही है, जहाँ संक्रमण में होने वाली उछाल से निपटने की जरूरी सुविधाएं नहीं हैं.

कोरोना रोकने के उपाय

कोरोना वायरस के और अधिक संक्रामक और जानलेवा साबित होने वाले नए वैरिएंट की पहचान के लिए 'जीनोम सिक्वेंसिंग' एक अहम क़दम है. पिछले साल इंडियन सार्स सीओवी-2 जीनोमिक कंसोर्शिया (आईएनएसएसीओजी) का गठन किया गया था. इसके तहत देश के 10 प्रयोगशालाओं को शामिल किया गया था.

लेकिन शुरू में इस समूह को निवेश पाने में काफ़ी संघर्ष करना पड़ा. वायरोलॉजिस्ट डॉ. जमील ने का कहना है कि भारत ने काफ़ी देर से वायरस के म्यूटेशन को गंभीरता से लेना शुरू किया. उनके अनुसार, फ़रवरी 2021 के मध्य से सिक्वेंसिंग का काम सही से शुरू हो पाया.

उन्होंने बताया, ''भारत इस समय सभी नमूनों के केवल एक फ़ीसदी की सिक्वेंसिंग कर रहा है. इसकी तुलना में, ब्रिटेन महामारी के चरम के दिनों में 5-6 फ़ीसदी नमूनों की सिक्वेंसिंग कर रहा था. लेकिन इसकी क्षमता आप रातोरात नहीं बढ़ा सकते.''

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इमेज कैप्शन, ऐसा लगता है कि सरकार ने टीकाकरण अभियान चलाने के लिए वैक्सीन के इंतजाम की पर्याप्त योजना नहीं बनाई

वैक्सीन-भारत की सबसे बड़ी आशा

दिल्ली में एक बड़े निजी अस्पताल चलाने वाले परिवार की एक महिला ने बीबीसी को बताया, ''पब्लिक हेल्थ के जानकार आपको बताएंगे कि पहले से ध्वस्त पब्लिक हेल्थ सिस्टम को महज़ कुछ महीनों में मज़बूत करने का कोई व्यावहारिक तरीक़ा नहीं है.''

''कोविड से निपटने का सबसे अच्छा और प्रभावी विकल्प लोगों का जल्द से जल्द टीकाकरण करना था ताकि अधिकांश को अस्पताल की आवश्यकता नहीं होती और अस्पतालों पर हद से ज़्यादा बोझ नहीं पड़ता.''

डॉ. लहरिया कहते हैं, ''शुरू में भारत जुलाई 2021 तक 30 करोड़ लोगों का टीकाकरण करना चाहता था, लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार ने टीकाकरण अभियान चलाने के लिए वैक्सीन के इंतज़ाम की पर्याप्त योजना नहीं बनाई.''

वे कहते हैं, ''सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि बिना वैक्सीन की सप्लाई तय किए हुए सरकार ने सभी वयस्कों के लिए टीकाकरण अभियान को शुरू कर दिया.''

देश की 140 करोड़ की आबादी में से अब तक महज 2.6 करोड़ लोगों को ही वैक्सीन की दोनों खुराक लगाई गई है जबकि करीब 12.5 करोड़ लोगों को एक खुराक मिल सकी है. भारत में वैक्सीन की करोड़ों खुराकों का ऑर्डर दिया हुआ है लेकिन इसकी मांग से यह बहुत कम है.

केंद्र की सरकार को 45 साल से ऊपर के सभी 44 करोड़ लोगों के टीकाकरण के लिए 61.5 करोड़ खुराक की आवश्यकता है. वहीं 18 से 44 साल के 62.2 करोड़ लोगों के लिए 120 करो़ड़ खुराकों की जरूरत है.

इस बीच सरकार ने अंतरराष्ट्रीय वादों पर फिर से विचार करते हुए वैक्सीन निर्यात के सभी सौदों को रद्द कर दिया है.

सरकार ने वैक्सीन बनाने के लिए बायोलॉजिकल ई और सरकारी संस्था हैफकेन इंस्टिट्यूट जैसी दूसरी कंपनियों को भी शामिल किया है. इसने उत्पादन बढ़ाने के लिए सीरम इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया को भी 61 करोड़ डॉलर की आर्थिक सहायता दी है. यह कंपनी ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका की कोविशील्ड वैक्सीन बनाती है.

इस बारे में डॉ. लहरिया ने बताया कि यह निवेश पहले मिल जाना चाहिए था, तब कई क़ीमती जानों को बचाया जा सकता था. उन्होंने कहा, ''टीकाकरण अभियान को तेज़ करने के लिए पर्याप्त टीके हासिल करने में कई महीने लगेंगे. इस दौरान, लाखों लोगों को कोरोना होने का ख़तरा बना रहेगा.''

जानकारों का कहना है कि यह विडंबना ही है कि भारत को दुनिया की फार्मेसी के रूप में जाना जाता है. फिर भी हमें टीकों और दवाओं की कमी से जूझना पड़ रहा है.

डॉ. लहरिया के अनुसार, ये सारी चीज़ें केंद्र और राज्य सरकारें दोनों के लिए अलार्म का काम करना चाहिए. उन्हें हेल्थ सेक्टर में बहुत अधिक निवेश करना होगा, क्योंकि यह कोई आख़िरी महामारी नहीं होगी.

वे कहते हैं, ''भविष्य में आने वाली कोई महामारी किसी भी मॉडल के अनुमान से पहले आ सकती है.''

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