शैलेंद्र प्रताप सिंह चौहान
भारतीय चिंतन का मूल वेदांत है। वेदांत दर्शन के अनुसार जगत मिथ्या है, नाशवान है। जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु भी निश्चित है। संपूर्ण सृष्टि में यही परिलक्षित भी होता है। चांद तारों से लेकर सूक्ष्मतम जीव एवं जड़ पदार्थ जन्म लेते और मृत्यु को प्राप्त होते हैं। परंतु इस सृष्टि के रचयिता परमात्मा को शाश्वत माना गया है। परमात्मा अजन्मा, सर्वव्यापी एवं सर्वशक्तिमान है।

भारतीय संस्कृति के अनुसार परमात्मा सृष्टि के कण कण में व्याप्त है। मृत्यु सिर्फ भौतिक रूप की होती है परमात्म या आत्म तत्व की नहीं। संक्षेप में यह कि संपूर्ण नाशवान सृष्टि में एक अमर या शाश्वत तत्व विद्यमान है। विचार यह करना है कि इन दोनों तत्वों का आपस में संबंध और समन्वय किस प्रकार से है। प्रथम विचार यह उठता है की जो सत्य है जो शाश्वत है। वह स्वयं को नश्वर और मिथ्या जगत के रूप मे क्यों प्रकट करता है? क्या शाश्वत तत्व अपने आप को किसी अन्य रूप में भी प्रकट करता है या सिर्फ एक बौद्धिक विचार मात्र है।

इस नाशवान सृष्टि में एक विशिष्टता पाई जाती है, वह है नव सृजन कि क्षमता। प्रथम दृष्टि में यह आश्चर्यजनक लगता है की जो स्वयं नश्वर है। वह सृजन की क्षमता भी रखता है। चर, अचर, जड़ या चेतन सभी भौतिक स्वरूप नव सृजन की क्षमता रखते हैं। यदि मृत्यु निश्चित है तो जन्म भी निश्चित ही होगा यानि जन्म एवं मृत्यु का चक्र भी शाश्वत है। दूसरे शब्दों में नश्वर जीवों की सृजन या नव निर्माण की क्षमता ही शाश्वत या अमर तत्व का प्रकटीकरण है।

यह प्रश्न भी उठता है कि नश्वर तत्व की आवश्यकता क्या है। सब कुछ एक ही बार में शाश्वत ही क्यों नहीं। जीवन गतिशील है, क्योंकि समय गतिशील है। समय या काल को भारतीय संस्कृति मे परमात्मा ही माना गया है। गतिशील होने का मतलब है निरंतर नवीनता। निरंतर नवीनता तभी संभव है जब पुराना छूटता जाए। यह बिना मृत्यु या नश्वरता के संभव नहीं हो सकता।

इसे समझना आसान होगा यदि हम नश्वरता के स्थान पर परिवर्तनशीलता शब्द का प्रयोग करें। सृष्टि में किसी भी पदार्थ का नाश नहीं होता सिर्फ रूप परिवर्तित होता है। विज्ञान भी यही कहता है पदार्थ का नाश नहीं होता।जन्म और मृत्यु आम तौर पर एक निश्चित घटना समझे जाते हैं। एक अनवरत मार्ग पर मील के पत्थरों की तरह जिन्हें अधिक महत्त्व प्राप्त होता है। जबकि परिवर्तनशीलता एक सतत प्रक्रिया है। जन्म या सृजन तथा मृत्यु अथवा नाश इस सतत प्रक्रिया के अंतर्गत ही आते हैं। हमारे शरीर में हर पल नई कोशिकाओं का जन्म और मृत्यु होती ही रहती है।

वेदांत मे जगत मिथ्या इसलिए कहा गया क्योंकि जगत शाश्वत होने की अनिवार्यता को परिवर्तनशील होने के कारण पूरा नहीं करता है। परंतु यदि इसे पूरी तरह मिथ्या कहने की जगह देश और काल के सापेक्ष सत्य कहा जाए तो मेरा विचार है। यह समझने में ज्यादा आसान हो जाएगा। साथ ही धर्म और कर्म सिद्धांत को समझना और अनुसरण करना भी अधिक आसान और विश्वास करना होगा।

उदाहरण के लिए किसी मनुष्य को इसी जगत में समयानुसार पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्र और निजी शारीरिक धर्म को पूरा करना होता है। जगत को मिथ्या समझने से आम मनुष्यों में कर्त्तव्य पालन से पलायन की धारणा जन्म ले सकती है। कर्मफल के सिद्धांत का आरोपण भी मिथ्या जगत की अवधारणा के साथ समझना मुश्किल है। आधुनिक विज्ञान भी भौतिक जगत से ही संबंध रखता है।

विज्ञान को भी मिथ्या कहना और समझना उचित नहीं होगा। परंतु नित्य नवीन खोजो और परिकल्पनाओं की रोशनी में परिवर्तनशील समझाना और समझना पूरी तरह तर्क सम्मत है। भारतीय संस्कृति में एक अद्भुत सिद्धांत पुरुष और प्रकृति का है, वेदांत में उसे ही परमात्मा और माया कहा गया है। पुरुष अथवा परमात्मा ऊर्जा स्वरूप है व माया या प्रकृति उसका विभिन्न पदार्थों और क्रिया कलापों में प्रकटीकरण है।

विज्ञान भी अब इस निष्कर्ष तक पहुंच चुका है की पदार्थ ऊर्जा का ही घनीभूत रूप है। और पदार्थ को ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है। परमाणु ऊर्जा इसी का उदाहरण है। क्या ऊर्जा का पदार्थ और पदार्थ का ऊर्जा में परिवर्तन ही सृष्टि की रचना और प्रलय है। क्या यही एकोहं बहुष्यामी और फिर बहुष्यामी एकोहं है।