Please enable javascript.forest fire is one of the main reasons of glacier melting in uttarakhand says experts, उत्तराखंड में जंगलों में आग की वजह से पिघल रहे ग्लेशियर

Uttarakhand Disaster: उत्तराखंड के जंगलों की आग पिघला रही है ग्लेशियर्स

Authored byकात्यायनी उप्रेती | नवभारत टाइम्स | 9 Feb 2021, 10:26 pm
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उत्तराखंड में ग्लेशियर पिघलने के पीछे जंगलों की आग को भी एक्सपर्ट्स जिम्मेदार मानते हैं। पर्यावरणविदों और एक्सपर्ट्स का कहना है कि पिछले कुछ साल से उत्तराखंड के जंगलों की आग संतुलित नहीं है

हाइलाइट्स

  • कंट्रोल में नहीं है आग, सर्दियों में भी जल रहे हैं जंगल
  • 20 साल में 45 हजार हेक्टेयर फॉरेस्ट एरिया को नुकसान पहुंचा
  • एक्सपर्ट्स बोले- अब नैचुरल नहीं रही जंगल की आग
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नई दिल्ली
उत्तराखंड में ग्लेशियर पिघलने और इनमें ब्लैक कार्बन जमा होने के पीछे जंगलों की आग को भी एक्सपर्ट्स जिम्मेदार मानते हैं। पर्यावरणविदों और एक्सपर्ट्स का कहना है कि पिछले कुछ साल से उत्तराखंड के जंगलों की आग संतुलित नहीं है, ऐसे में इकलॉजी को भारी नुकसान पहुंच रहा है और यह कुदरत के साथ बड़ी छेड़छाड़ है।
उत्तराखंड के चमोली जिले में ग्लेशियर टूटने की घटना ने एक बार फिर हिमालय के तलहटी में रहने वाले लोगों की चिंताएं बढ़ रही हैं। एक्सपर्ट्स का कहना है कि जोशीमठ में हुए मैन मेड डिजास्टर के पीछे एक कारण नहीं है, बल्कि कई वजह है। बिना प्लानिंग के बेतहाशा कंस्ट्रक्शन और जंगलों में लगाई जा रही बेतरतीब आग भी कुदरत के मिजाज बदल रहे हैं।

आंकड़ों के मुताबिक, उत्तराखंड में 2000 से अब तक करीब 45 हजार हेक्टेयर फॉरेस्ट एरिया को नुकसान पहुंचा है। फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के मुताबिक उत्तराखंड के जंगलों में आग अमूमन फरवरी से जून के बीच लगती है। मगर इस बार सर्दियों में केदारनाथ घाटी, पंचाचूली घाटी कई इलाकों में कई कई दिनों तक जंगल जलते नजर आए।

जल रहे हैं जंगल, नमी हो रही है कम

उत्तराखंड के एक्टविस्ट समीर रतूड़ी कहते हैं, हमारे पास प्राकृतिक बांधों की कमी हो चुकी है, इसकी वजह जंगलों की आग भी है, जबकि पेड़ पानी के रास्ते और उसकी तीव्रता को कंट्रोल करते हैं। जंगल खत्म हो रहे हैं तो ग्लेशियर भी खिसक रहे हैं, गंगोत्री और गौमुख ग्लिशियर्स इसके उदारहण है। हमने अपनी पदयात्राओं में यह भी पाया कि ग्राम पंचायतों के जंगल घने और मिक्स हैं, मगर वन पंचायतों के जंगल छितरे हैं और इनमें ज्यादातर चीड़ ही है।

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आग भी वन पंचायतों में ज्यादा लगती है। यह क्यों है? वृक्षारोपण के लिए फंड भी काफी आता है। यह दिखाता है कि आग जानबूझकर लगाई जा रही है। रतूड़ी कहते हैं, राज्य में वृक्षारोपण की पॉलिसी को इकनॉमी से जोड़ा जाए और आम जनता की भागीदारी लायी जाए, तब ही काम बनेगा। वहीं, पर्यावरणविद हेमंत ध्यानी कहती हैं, उत्तराखंड के जंगलों में महीनों, यहां तक सर्दियों में भी जंगल जल रहे हैं, इससे जंगलों की नमी खत्म हो रही है। यह ब्लैक कार्बन है जो ग्लेशियर्स में इकट्टा हो रहा है और वे पिघल रहे हैं। हम खतरे को और बढ़ा रहे हैं।

आग से भी ग्लेशियर्स में ब्लैक कार्बन
देहरादून के वाडिया इंस्टिट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी की रिसर्च कहती है कि गंगोत्री ग्लेशियर में ब्लैक कार्बन का कंसन्ट्रेशन गर्मियों में काफी ज्यादा बढ़ रहा है। पिछले साल यह 400 गुना ऊपर था। इंस्टिट्यूट के साइंटिस्ट डॉ पी एस नेगी के मुताबिक, ब्लैक कार्बन का सोर्स जंगलों की आग है और टूरिजम भी। और जब हायर हिमालय में ब्लैक कार्बन बढ़ेगा तो ग्लेशियर भी तेजी से पिघलेंगे।

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आग जरूरी मगर कंट्रोल और जरूरी
जेएनयू के स्कूल ऑफ एनवायरनमेंटल साइंसेज के प्रो एस सी गड़कोटी कहते हैं, कई जंगलों को आग की जरूरत होती है जैसे चीड़ के जंगल, इससे पेड़ फिर से अच्छे से पनपते हैं। पहले जमाने में भी आग लगाई जाती है, इससे जंगलों का कूड़ा (पत्तियां, लकड़ी वगैरह)) खत्म होता है, नई घास उगती है, जो जानवरों के काम आती है। मगर जब आग कंट्रोल ना हो, तो पूरा पेड़ जलने लगता है। साथ ही, क्लाइमेंट चेंज और पहाड़ों में बारिश ना होने की वजह से जंगल सूखे हैं, ऐसे में जाने-अनजाने आग लगा दी तो तुरंत पूरा जंगल जल जाता है।

जंगलों में आग अब नेचुरल नहीं है, मैन-मेड है। मगर कम फ्यूल के साथ, कंट्रोल कर आग लगायी जाए, तो इससे फायदा ही होगा। बाकी, जंगलों के कूड़े को इकट्ठा कर कोयला बनाकर या कुछ और इस्मेताल में लाया जा सकता है। एक्टिविस्ट समीर रतूड़ी कहते हैं, जंगलों में आग लोग इसलिए लगाते थे ताकि वेस्ट जले और नई खास लगे।

मगर अब साल में चार-चार बार आग लग रही है। इसके अलावा, ऑल वेदर रोड में 600-700 पेड़ काटे जा रहे हैं मगर उसकी जगह पेड़ नहीं लगाए जा रहे हैं और अगर लगाए भी जा रहे हैं तो दूसरे इलाके में लगाए जा रहे हैं, जिसका फायदा नहीं।
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