पाकिस्तान में अलग सिंधु देश की मांग फिर से जोर पकड़ रही है। हाल में सिंध प्रांत में जिए सिंध तहरीक आंदोलन के नेता दिवंगत गुलाम मुर्तजा सैयद की जयंती पर सिंधियों ने अलग सिंधु देश की मांग को लेकर बड़ा प्रदर्शन किया। प्रदर्शनकारियों ने पाकिस्तान सत्ता प्रतिष्ठान और सेना पर जुल्म के भी गंभीर आरोप भी लगाए।

पाकिस्तान की चरमराती अर्थव्यवस्था और बलोच व पश्तूनों के अलगाववादी आंदोलनों के बीच सिंधु देश की मांग पाकिस्तान के लिए अच्छा संकेत नहीं माना जा रहा। सच्चाई यह है कि अलग सिंधु देश की मांग पाकिस्तान बनने के साथ ही शुरू हो गई थी। सिंध के निवासी अपनी संस्कृति, भाषा जैसे तमाम मुद्दों पर आजादी के पहले भी संवेदनशील रहे हैं। 1930 के दशक में ब्रिटिश राज में भी जीएम सैयद ने अलग सिंधु देश के लिए आंदोलन किया था। लेकिन पाकिस्तान बनने के बाद यह मांग जोर पकड़ती गई। दरअसल स्वतंत्र पाकिस्तान की अवधारणा को बंगालियों, बलोचियों और पश्तूनों के साथ-साथ सिंधियों ने भी स्वीकार नहीं किया था।

बंगालियों ने 1971 में अपना स्वतंत्र देश हासिल कर लिया था। लेकिन सिंध के निवासियों का यह सपना पूरा नहीं हो पाया। हकीकत तो यह है कि पाकिस्तानी हुक्मरानों ने जो बर्ताव बंगालियों के साथ किया था, वैसा ही सिंधियों के साथ भी किया। बेशक जुल्फिकार अली भुट्टो जैसे सिंधी नेता ने अपनी राष्ट्रीय पहचान बनाई और अलग सिंधु देश की मांग का दमन भी किया, लेकिन अंतत: उन्हें भी मौत की सजा का शिकार होना पड़ा।

हालांकि भुट्टो ने बंगाली राष्ट्रवाद का विरोध किया था और इस्लामिक पाकिस्तान को मजबूत करने के लिए पंजाबियों के साथ मिल कर बंगालियों का दमन किया था। लेकिन सच्चाई यह है कि स्वतंत्र पाकिस्तान का असल जश्न पंजाबी और भारत से गए उर्दू भाषी मोहाजिरों ने मनाया था। बंगाली, सिंधी, पश्तून और बलोच आबादी स्वतंत्र पाकिस्तान में अपनी हिस्सेदारी को लेकर आश्वस्त नहीं थी।

दरअसल पाकिस्तान की एक बड़ी आबादी को स्वतंत्र पाकिस्तान में अपने संसाधन छीने जाने और सत्ता में हिस्सेदारी न मिलने का भय था। बलोच सरदारों ने कलात के खान के नेतृत्व में पाकिस्तानी हुक्मरानों को चुनौती दी थी। बलोच सरदार बलूचिस्तान के खनिज और गैस जैसे प्राकृतिक संसाधन अपने हाथ से निकलने नहीं देना चाहते थे। जबकि बंगालियों का अपना दर्द था, जो पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देने के बावजूद हाशिए पर थे। पश्चिमी पाकिस्तान के हुक्मरान उन्हें नफरत से देखते थे।

पाकिस्तान बनने के बाद अलग सिंधु देश की मांग के कई कारण थे। भारत से गए उर्दू भाषी मुसलमानों का वर्चस्व सिंध में बढ़ा था। ये मुसलमान मुगल शासन की पृष्ठभूमि की सांस्कृतिक सर्वोच्चता की भावना से भरे थे। सिंधियों को यह स्वीकार नहीं था। लेकिन रही सही कसर मोहम्मद अली जिन्ना और लियाकत खान की नीतियों ने पूरी कर दी। कराची को राष्ट्रीय राजधानी बनाया।

इससे सिंधी नाराज हो गए, क्योंकि लियाकत अली खान कराची में मोहाजिरों की बस्तियां बसाना चाहते थे। 1941 में कराची की आबादी में सिंधियों की हिस्सेदारी इकसठ फीसद थी, लेकिन पाकिस्तान बनने के बाद 1950 में कराची की आबादी में मोहाजिरों की आबादी पचास फीसद हो गई और सिंधी घट कर नौ प्रतिशत पर आ गए। पाकिस्तानी सिविल सेवा में मोहाजिरों और पंजाबियों के वर्चस्व ने भी सिंधियों की नाराजगी को बढ़ाया।

सिंध में मोहाजिरों को कृषि योग्य जमीन के आवंटन से भी सिंधी खफा थे। सिंध में चार लाख एकड़ जमीन भारत से गए मोहाजिरों को आबंटित की गई। सिंधियों का आरोप था जिनके पास भारत में बिल्कुल जमीन नहीं थी, उन्हें भी सिंध में जमीन आबंटित कर दी गई। स्वतंत्र पाकिस्तान में हुक्मरानों की नीति से नाराज जीएम सैयद बंगालियों और बलोचियों के साथ होकर अलग सिंधु देश की मांग करने लगे थे।

सेना और नौकरशाही में भी सिंधियों के साथ जम कर भेदभाव हुआ। सन 1959 में पाकिस्तानी सेना में शीर्ष सैंतालीस सैन्य अधिकारियों में एक भी सिंधी नहीं था। पाकिस्तानी सेना में भी सिंधियों की भागीदारी महज 2.2 प्रतिशत थी। उच्च पदों पर बैठे पाकिस्तानी सिविल सेवा के कुल तीन हजार पांच सौ बत्तीस अधिकारियों में सिंधी महज ढाई फीसद थे, जबकि पंजाबी उनचास और मोहाजिर तीस फीसद थे।

1971 में भी पाकिस्तानी सिविल सेवा में मोहाजिरों का वर्चस्व रहा और धीरे-धीरे सिंध की प्रांतीय नौकरशाही में यह बढ़ता गया, क्योंकि छठी कक्षा के बाद उर्दू को अनिवार्य कर दिया गया था और बाद में सरकारी भाषा भी घोषित कर दिया गया। बाद के दशकों में भी सिंधियों के साथ भेदभाव जारी रहा। जनरल जिया-उल-हक के शासन में तो सिंधियों का भयानक दमन हुआ। जिया सिंधियों पर जरा भरोसा नहीं करते थे, क्योंकि वे इन्हें जुल्फिकार अली भुट्टो समर्थक समझते थे। इसलिए जनरल जिया के सत्ता आते ही सिंधी नौकरशाहों पर कार्रवाई हुई और सिंध के प्रांतीय प्रशासन से लगभग दो हजार सिंधी अधिकारियों को बर्खास्त कर दिया गया था।

हालांकि सिंधियों का एक वर्ग अलग सिंधु देश का विरोध करता रहा। इसमें जुल्फिकार अली भुट्टो जैसे नेता भी थे। भुट्टो कहने को समाजवादी थे, लेकिन इस्लामिक पाकिस्तान की अवधारणा के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने अलग बांग्लादेश का जोरदार विरोध किया, इसलिए उनका अलग सिंधु देश का विरोधी होना लाजिमी था। बेनजीर भुट्टो भी सिंधु देश के खिलाफ रहीं। जुल्फिकार अली भुट्टो और बेनजीर ने जीएम सैयद को कई बार नजरबंद किया गया था और अलग सिंधु देश की मांग को खारिज किया गया।

हालांकि भुट्टो इस बात को अच्छी तरह से जानते थे कि भाषा, सत्ता और संसाधनों में हिस्सेदारी को लेकर सिंधियों के साथ भेदभाव हुआ है। इसलिए वे अपने भाषणों में कहते भी थे कि आखिर सिंधी इस मुल्क के लिए और कितना बलिदान दें? सिंधियों ने पठानों, मोहाजिरों और सारे पाकिस्तानियों के लिए अपनी जमीन, घर से लेकर जीवन तक का बलिदान किया। हालांकि भुट्टो ने सिंधियों का गुस्सा शांत करने के लिए कई नीतिगत फैसले भी लिए। लेकिन अंत में भुट्टो भी पंजाबी मूल के पाकिस्तान सेनाध्यक्ष जनरल जिया-उल-हक के तख्ता पलट के शिकार हो गए।

अलग सिंधु देश की मांग को लेकर पाकिस्तान में हो रहे प्रदर्शन इस बात के संकेत हैं कि पाकिस्तान बनने के कई दशक बाद भी सिंधी आज भी अपने आप को इस मुल्क से जोड़ नहीं पाए हैं। संसाधनों पर गैर सिंधियों के कब्जे के कारण उनका गुस्सा बरकरार है। सिंध की राजधानी कराची में पिछले कई दशकों से होने वाले खूनी संघर्ष कई सवालों के जवाब देते हैं।

कराची आज हिंसा का बड़ा केंद्र है, जहां जाति, नस्ल और भाषा के नाम पर खूनी संघर्ष होता रहा है। कराची में अलग-अलग कारोबारों पर कब्जे के लिए अलग-अलग गुटों में खूनी संघर्ष आज भी हो रहा है। इस संघर्ष में भाग लेने वाले किरदारों की संख्या बढ़ गई है। शहर में मोहाजिरों की सत्ता को पश्तून, बलोच और सिंधी तीनों की कड़ी चुनौती मिल रही है। शहर में भवन निर्माण से लेकर ट्रांसपोर्ट आदि के कारोबार पर नियंत्रण को लेकर अलग-अलग गुटों के बीच संघर्ष आम हैं। कराची पाकिस्तान का प्रमुख बंदरगाह होने के कारण यहां कई कारोबार हैं।

आने वाले समय में पाकिस्तान को गंभीर संकटों का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि मुल्क के हुक्मरानों देश की वास्तविक समस्या पर ध्यान देने के बजाय धार्मिक कट्टरपन को बढावा देने की नीति पर चले हैं। उन्हें लग रहा है कि धार्मिक कट्टरपन ही असंतुष्ट अलगाववादियों का जवाब है। लेकिन उनकी मांगों पर कभी गंभीरता से विचार नहीं किया। पंजाबी वर्चस्व ने बलोचियों, सिंधियों और पश्तूनों को दबाया। उन्हें संसाधनों में हिस्सेदारी नहीं दी गई। इसी का खमियाजा आज पाकिस्तान भुगत रहा है।