इंजीनियरिंग सर्टिफ़िकेट के लिए दलित लड़की कर रही है मनरेगा में मज़दूरी
- संदीप साहू
- बीबीसी हिंदी के लिए
ओडिशा की एक दलित लड़की इंजीनियरिंग डिप्लोमा का सर्टिफ़िकेट हासिल करने के लिए पिछले तीन हफ़्ते से 'मनरेगा' में मज़दूरी कर रही है.
पुरी ज़िले के गोरडीपीढ़ गांव की रहने वाली 22 साल की रोज़ी बेहेरा कॉलेज की बकाया फ़ीस देने के लिए मज़दूरी करने पर मजबूर है.
उन्होंने बीबीसी को बताया कि उन्होंने 2019 में बरुनेई इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नॉलॉजी (बीआईईटी) से सिविल इंजीनियरिंग डिप्लोमा की पढ़ाई तो पूरी कर ली लेकिन कॉलेज और हॉस्टल का कुल 44,000 रुपयों का बकाया नहीं देने की वजह से कॉलेज ने उन्हें सर्टिफ़िकेट देने से मना कर दिया.
उन्होंने इधर-उधर से जुगाड़ कर 20,000 चुकाए लेकिन 24,000 अभी भी बाक़ी हैं.
वो बताती हैं, "इतनी बड़ी रक़म की भरपाई करने का कोई दूसरा उपाय नहीं सूझा तो मैंने और मेरी दो छोटी बहनों ने मज़दूरी करना शुरू कर दिया."
'मनरेगा' में एक दिन के काम के लिए 207 रुपये मिलते हैं हालांकि अभी तक उन्हें या उनकी बहनों को कोई मेहनताना नहीं मिला है.
मदद की पेशकश
काम का मेहनताना भले न मिला हो लेकिन रोज़ी की ख़बर मीडिया की सुर्ख़ियों में आने के बाद अब देशभर से उनके लिए मदद की पेशकश आने लगी हैं.
रोज़ी ने बताया कि, "अभी तक उन्हें ज़िला प्रशासन की ओर से 30,000, अभिनेत्री रानी पंडा की ओर से 25, 000 और चेन्नई के अशोक नाम के किसी व्यक्ति की ओर से 10,000 रुपये मिल चुके हैं. और भी कई लोगों ने मदद की पेशकश की है और अकाउंट नंबर लिया है."
पता चला है कि मदद की पेशकश करने वालों में सुप्रीम कोर्ट के एक जज भी शामिल हैं.
ज़ाहिर है रोज़ी की मदद के लिए जितनी रक़म की पेशकश हो चुकी है या आने वाले दिनों में होने वाली है, वह उनकी आवश्यकता से कहीं ज़्यादा है. तो कॉलेज का देय 24,000 रुपये चुकाने के बाद जो रक़म बचेगी, उसका रोज़ी क्या करेंगी?
वो कहती हैं, "मैं सिविल इंजीनियरिंग में बीटेक करना चाहती हूँ. जो पैसे आएंगे, उसी के लिए ख़र्च होंगे. वैसे तो कुछ कॉलेज हैं जहां शायद मुझे स्कॉलरशिप मिल जाए. लेकिन मैं किसी अच्छे इंस्टीट्यूट से बीटेक करना चाहती हूँ, जहां प्रैक्टिकल सहित सभी आवश्यक सुविधाएं मौजूद हों."
बीटेक करने के बाद रोज़ी सरकारी नौकरी करना चाहती हैं.
रोज़ी के पिता मिस्त्री का काम करते हैं जबकि उनकी मां खेतों में मज़दूरी करती हैं. उनके माता-पिता के पास साधन नहीं है कि वे रोज़ी को या अपने दूसरे बच्चों को उच्च शिक्षा मुहैया करवा पाएं. रोज़ी पाँच बहनों में सबसे बड़ी हैं. उनसे छोटी बहन बीटेक कर रही है और उससे छोटी प्लस टू की छात्रा है.
उनसे छोटी दो बहनों में एक आठवीं कक्षा में पढ़ती है जबकि सबसे छोटी पाँचवीं कक्षा में. इसलिए उन पर परिवार की ज़िम्मेदारी भी है. ऐसे में अपनी पढ़ाई के लिए वे अपने माता-पिता से किसी प्रकार की सहायता की उम्मीद नहीं रख सकती थीं.
क्या कोई दूसरा विकल्प नहीं था
वो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ख़बरें जो दिनभर सुर्खियां बनीं.
दिनभर: पूरा दिन,पूरी ख़बर
समाप्त
लेकिन क्या उन्हें मज़दूरी के अलावा कोई और काम जैसे कि ट्यूशन देना नहीं सूझा?
इसके जवाब में रोज़ी कहती हैं, "मेरी छोटी बहन ट्यूशन किया करती थी. लेकिन एक तो गांव में ट्यूशन से अधिक पैसे नहीं मिलते. ऊपर से उसे ठीक से, समय पर पैसे नहीं मिलते थे. वैसे भी गांव में पहले से ही कई लोग मौजूद हैं जो पेशे से शिक्षक हैं. उन्हें छोड़कर कोई हमसे ट्यूशन क्यों पढ़ेगा?"
रोज़ी मानती हैं कि कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता. इसलिए सिर पर मिट्टी ढोने में उन्हें कभी शर्मिंदगी महसूस नहीं हुई.
मैंने रोज़ी से पूछा कि उन्होंने कॉलेज के इस रवैये के ख़िलाफ़ राज्य तकनीकी शिक्षा परिषद का दरवाज़ा क्यों नहीं खटखटाया, तो उनका कहना था, "मुझे पता नहीं था."
रोज़ी ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि परिस्थितियां कितनी भी प्रतिकूल हों, लेकिन अगर निष्ठा और लगन हो तो आदमी कोई भी लक्ष्य हासिल कर सकता है.
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूबपर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)