बिभा त्रिपाठी

वृद्धावस्था की चुनौतियों को लेकर अनेक प्रश्न उठते हैं। कैसे हो उनकी देखभाल, सेवा और उपचार? यों विकास की अवस्थाओं में वृद्धि और ह्रासात्मक दोनों प्रकार के परिवर्तन होते हैं, पर वृद्धावस्था वह अवस्था है, जिसमें ह्रासात्मक परिवर्तनों का प्रभाव ही प्रमुखता से परिलक्षित होता है। इसमें व्यक्ति के शारीरिक एवं मानसिक दोनों प्रकार के कार्यों पर प्रभाव पड़ता है। नतीजतन, व्यक्ति को वृद्धावस्था में अनेक प्रकार की चुनौतियों और समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

भारत के कुछ परिवारों में निश्चित तौर पर प्रेमचंद की बूढ़ी काकी आज भी रहती हैं। ये अमूमन ऐसे मध्यवर्गीय परिवार होते हैं जो आगे की ओर देखते हुए अपनी संतानों के लिए हर सुख-सुविधा उपलब्ध कराने के लिए प्रयासरत रहते हैं। अपनी संतानों पर निवेश करते हैं और बूढ़ी काकी के अंत का इंतजार करते हैं, चाहे इस उपेक्षा से वे मानसिक रोगी या अवसादग्रस्त ही क्यों न हो जाएं। इन बूढ़ी काकियों की पुत्रियां अगर आत्मनिर्भर हुईं और सही मायने में शिक्षित-दीक्षित हुईं, तो रूढ़िवादी सोच और परंपरा से ऊपर उठ कर अपने दायित्वों को अवश्य पूरा करती हैं। उल्लेखनीय है कि हिंदू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम के तहत बेटियों को पैतृक संपत्ति में इस शर्त के साथ अधिकार दिया गया है कि बेटियां भी बेटों की तरह ही अपने वृद्ध माता-पिता की देखभाल करेंगी।

समाज का सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए एक अन्य स्थिति का भी हवाला दिया जा सकता है, जहां एक नौकरी-पेशा अविवाहित लड़की स्वेच्छा से अपनी जमा पूंजी अपने वृद्ध माता-पिता की देखभाल में लगा देती है, पैतृक संपत्ति में अधिकार का दावा भी नहीं करती और अपने भाई-भतीजों के नाम अपनी संपत्ति की वसीयत तक कर देती है। ऐसी लड़कियों की इच्छा होती है कि जिस प्रकार सरकार ने बच्चों की देखभाल के लिए सवैतनिक अवकाश की व्यवस्था की है उसी प्रकार ऐसे माता-पिता की देखभाल के लिए भी सवैतनिक अवकाश का कानूनी प्रावधान किया जाना चाहिए।

आंकड़ों के मुताबिक भारत में एक करोड़ से ज्यादा वृद्ध आबादी है, जिसमें विवाहित, अविवाहित, तलाकशुदा, विधवा, विधुर एवं एकल वृद्ध के अपने अलग-अलग आंकड़े हो सकते हैं। अगर राष्ट्रीय स्तर पर बने कानूनों की बात करें तो सर्वप्रथम संविधान की चर्चा प्रासंगिक है, जिसमें अनुच्छेद 41 के तहत राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व राज्य के ऊपर यह कर्तव्य अधिरोपित करते हैं कि वह अपनी आर्थिक क्षमता और विकास की सीमाओं के भीतर ऐसे प्रभावी उपायों को अपनाएगा, जिसमें वृद्धावस्था, बीमारी और निर्योग्यता जैसे मामलों का सार्थक समाधान निकाला जा सकेगा। दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 125 (1)(2) के अंतर्गत प्रावधान है कि अगर माता-पिता स्वयं अपनी देखभाल करने में सक्षम नहीं हैं, तो उनके बेटा-बेटी उनकी देखभाल करेंगे। हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरण-पोषण अधिनियम भी बेटे और बेटियों पर अपने माता-पिता के भरण-पोषण का दायित्व अधिरोपित करता है।

इसके अलावा वर्ष 2007 में माता-पिता एवं वरिष्ठ नागरिकों की देखभाल और भरण-पोषण के लिए एक विशेष अधिनियम बनाया गया, जिसके माध्यम से उनका कल्याण सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया। इस अधिनियम के अनुसार वरिष्ठ नागरिक वह है जिसकी उम्र साठ वर्ष से अधिक है। पर एक अभिभावक, अभिभावक है, भले वह साठ की उम्र का न हो। यानी बच्चे अपने अभिभावकों के भरण-पोषण के लिए उसी प्रकार जिम्मेदार होंगे चाहे उनकी उम्र कितनी भी हो। ऐसा न करने पर इस अधिनियम के अंतर्गत दंड और जुर्माने की भी व्यवस्था की गई है।

पर अन्य अधिनियमों की तरह इसकी भी अपनी कुछ सीमाएं हैं, जैसे यह सिद्ध करना कि कौन लोग जानबूझ कर अपने माता-पिता का भरण-पोषण नहीं कर रहे हैं? इसको कैसे सिद्ध किया जाएगा? और यह कि अगर बच्चों को अभियुक्त माना जा रहा है, तो क्या आपराधिक विधि के वे सिद्धांत जो अभियुक्त की निर्दोषिता, संदेह से परे दोष की सिद्धि, और संदेह का लाभ अभियुक्त को दिए जाने की बात करते हैं, वे भी लागू किए जाएंगे?

यह अधिनियम एक तरफ तो कहता है कि जो माता-पिता या वरिष्ठ नागरिक अपने स्वयं की आय से अपना भरण-पोषण नहीं कर पा रहे हैं, उनके भरण-पोषण की जिम्मेदारी उनके बच्चों पर होगी और दूसरी तरफ वृद्धजनों के जीवन और संपत्ति के संरक्षण के लिए उपयुक्त प्रावधान की बात भी की गई है। एक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात, जिसकी अनदेखी इस अधिनियम में की गई है, वह यह कि ऐसे भी वरिष्ठ नागरिकों की संख्या बहुत ज्यादा है, जो साठ वर्ष की उम्र पर सेवानिवृत्त होकर अपने कार्यस्थल को छोड़ कर घर आते हैं, जहां उनके वृद्ध माता-पिता रह रहे होते हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि ऐसे वरिष्ठ नागरिक अपने वृद्ध माता-पिता का भरण पोषण कैसे करेंगे? किन विधिक दायित्वों के अधीन होंगे? क्या उन्हें भी जेल भेज दिया जाएगा?

ऐसे में सवाल है कि जब समाज में परिवर्तन अत्यंत तीव्र गति से होने लगे, दुर्खीम का यांत्रिक समाज सावयवी समाज में बदलने लगे और संयुक्त परिवारों का मजबूरन विघटन होने लगे, छोटे परिवार की संकल्पना में वृद्ध माता-पिता की अवधारणा ही समाप्त होने लगे तो संवेदनाओं के क्षरण पर कानूनों का लेपन काम नहीं करता। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि छोटे परिवार या हम दो हमारे दो की संकल्पना परिवार नियोजन से संबंधित है, परिवार कल्याण से नहीं।

परिवार कल्याण में कम से कम तीन पीढ़ियों का समावेशन अपरिहार्य है, जिसमें माता-पिता, पति-पत्नी और बच्चों की इकाई अनिवार्य रूप से शामिल हो। इसके अलावा प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, सिनेमा और कहानियों के साथ छोटे-छोटे समूहों में वृद्ध जनों को भी यह समझाने की आवश्यकता है कि उन्हें अपने बच्चों की नौकरी की दशाओं और शर्तों को समझते हुए उनके साथ उनके कार्यस्थल पर जाकर रहने में भी गुरेज न हो।

कई बार समस्याएं केवल इसलिए उत्पन्न हो जाती हैं कि दो अलग-अलग जगहों पर परिवार रहने लगते हैं, जिसकी वजह से देखभाल में परेशानी आती है। इसके अलावा आवश्यकता इस बात की भी है कि चाहे संपत्ति हो या न हो, माता-पिता तो माता-पिता ही होते हैं, वे न जीवन भर साथ रहेंगे, न दुबारा मिलेंगे, और न उनका कभी कोई विकल्प होगा। भारतीय परंपरा में माता-पिता और सास-ससुर, बेटे, दामाद और बेटी, बहू जैसे रिश्ते दो परिवारों को जोड़ने के लिए, उनके सुख-दुख को साझा करने के लिए, और एक-दूसरे का संबल बनने के लिए बनाए गए हैं। उसमें इस वैचारिक गिरावट को कतई जगह नहीं दी जानी चाहिए कि बेटा-बहू ही अपने माता-पिता की जिम्मेदारी उठाएंगे।

सांपत्तिक उत्तराधिकार के अपने दायरे हैं, और रिश्तों की डोर थामने के अपने भाव हैं। जब समाज अपने सामाजिक और नैतिक दायित्वों से विमुख होता है, तो विधिक दायित्व अधिरोपित किए जाते हैं, जिसमें सदैव कुछ न कुछ कमियां बनी रहती हैं, इसलिए वृद्धजनों के उम्र के मनोवैज्ञानिक विभाजन के आधार पर कानूनों में यथोचित परिवर्तन किए जाने की आवश्यकता है। जिस प्रकार बच्चों की देखभाल के लिए केंद्र बनाए जा रहे हैं उसी प्रकार वृद्धजनों की देखभाल हेतु केंद्र बनाए जाने की आवश्यकता है, ताकि नौकरी-पेशे वाले दंपत्ति भी अपने बच्चों को या माता-पिता को जैसी स्थिति हो वहां रख सकें।

इसके अलावा संवादहीनता को खत्म करने की पहल होनी चाहिए। सामंजस्य स्थापित करने की समझ सभी के अंदर विकसित होनी चाहिए, ताकि भारतीय समाज की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण संस्था परिवार पूरे दमखम के साथ चिर नवीन बनी रहे, इसमें न कभी कोई घुन लगे, न कोई दीमक। और भारत अपनी भारतीयता के साथ अपने संस्कारों के साथ अपने कल और आज के साथ नित नई ऊंचाइयों को प्राप्त कर सके।