कोविड वैक्सीन: कैसे बनती हैं वैक्सीन?

कोविड वैक्सीन: कैसे बनती हैं वैक्सीन?

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कोविड-19 पर जीत के लिए वैक्सीन को कारगर हथियार माना गया है.

लेकिन इससे जुड़ी सूचनाएं और सुझाव कई बार आपको पेचीदा लग सकते हैं, लेकिन कुछ बुनियादी तथ्य हैं जो आपकी यह समझने में मदद करेंगे कि एक वैक्सीन आख़िर काम कैसे करती हैं.

वैक्सीन क्या है?

एक वैक्सीन आपके शरीर को किसी बीमारी, वायरस या संक्रमण से लड़ने के लिए तैयार करती है.

वैक्सीन में किसी जीव के कुछ कमज़ोर या निष्क्रिय अंश होते हैं जो बीमारी का कारण बनते हैं.

ये शरीर के 'इम्यून सिस्टम' यानी प्रतिरक्षा प्रणाली को संक्रमण (आक्रमणकारी वायरस) की पहचान करने के लिए प्रेरित करते हैं और उनके ख़िलाफ़ शरीर में एंटीबॉडी बनाते हैं जो बाहरी हमले से लड़ने में हमारे शरीर की मदद करती हैं.

वैक्सीन लगने का नकारात्मक असर कम ही लोगों पर होता है, लेकिन कुछ लोगों को इसके साइड इफ़ेक्ट्स का सामना करना पड़ सकता है. हल्का बुख़ार या ख़ारिश होना, इससे सामान्य दुष्प्रभाव हैं.

वैक्सीन लगने के कुछ वक़्त बाद ही आप उस बीमारी से लड़ने की इम्यूनिटी विकसित कर लेते हैं.

अमेरिका के सेंटर ऑफ़ डिज़ीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) का कहना है कि वैक्सीन बहुत ज़्यादा शक्तिशाली होती हैं क्योंकि ये अधिकांश दवाओं के विपरीत, किसी बीमारी का इलाज नहीं करतीं, बल्कि उन्हें होने से रोकती हैं.

African-American woman getting a Covid vaccine

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इमेज कैप्शन, वैक्सीन आपके शरीर को किसी बीमारी, वायरस या संक्रमण से लड़ने के लिए तैयार करती है

क्या वैक्सीन सुरक्षित हैं?

वैक्सीन का एक प्रारंभिक रूप चीन के वैज्ञानिकों ने 10वीं शताब्दी में खोज लिया था.

लेकिन 1796 में एडवर्ड जेनर ने पाया कि चेचक के हल्के संक्रमण की एक डोज़ चेचक के गंभीर संक्रमण से सुरक्षा दे रही है.

उन्होंने इस पर और अध्ययन किया. उन्होंने अपने इस सिद्धांत का परीक्षण भी किया और उनके निष्कर्षों को दो साल बाद प्रकाशित किया गया.

तभी 'वैक्सीन' शब्द की उत्पत्ति हुई. वैक्सीन को लैटिन भाषा के 'Vacca' से गढ़ा गया जिसका अर्थ गाय होता है.

वैक्सीन को आधुनिक दुनिया की सबसे बड़ी चिकित्सकीय उपलब्धियों में से एक माना जाता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, वैक्सीन की वजह से हर साल क़रीब बीस से तीस लाख लोगों की जान बच पाती है

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सीडीसी का कहना है कि बाज़ार में लाये जाने से पहले वैक्सीन की गंभीरता से जाँच की जाती है. पहले प्रयोगशालाओं में और फिर जानवरों पर इनका परीक्षण किया जाता है. उसके बाद ही मनुष्यों पर वैक्सीन का ट्रायल होता है.

अधिकांश देशों में स्थानीय दवा नियामकों से अनुमति मिलने के बाद ही लोगों को वैक्सीन लगाई जाती हैं.

टीकाकरण में कुछ जोखिम ज़रूर हैं, लेकिन सभी दवाओं की ही तरह, इसके फ़ायदों के सामने वो कुछ भी नहीं.

उदाहरण के लिए, बचपन की कुछ बीमारियाँ जो एक पीढ़ी पहले तक बहुत सामान्य थीं, वैक्सीन के कारण तेज़ी से लुप्त हो गई हैं.

चेचक जिसने लाखों लोगों की जान ली, वो अब पूरी तरह ख़त्म हो गयी है.

लेकिन सफ़लता प्राप्त करने में अक्सर दशकों लग जाते हैं. वैश्विक टीकाकरण अभियान शुरू होने के लगभग 30 साल बाद अफ़्रीका को अकेला पोलियो मुक्त देश घोषित किया गया. यह बहुत लंबा समय है.

विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि कोविड-19 के ख़िलाफ़ पूरी दुनिया में पर्याप्त टीकाकरण करने में महीनों या संभवतः वर्षों का समय लग सकता है, जिसके बाद ही हम सामान्य स्थिति में लौट सकेंगे.

Smallpox vaccinations, 1962

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इमेज कैप्शन, चेचक जिसने लाखों लोगों की जान ली, वो वैक्सीन की मदद से पूरी तरह ख़त्म हो गयी है

वैक्सीन कैसे बनाई जाती हैं?

जब एक नया रोगजनक (पैथोजन) जैसे कि एक जीवाणु, विषाणु, परजीवी या फ़ंगस शरीर में प्रवेश करता है तो शरीर का एक उप-भाग जिसे एंटीजन कहा जाता है, वो उससे लड़ने के लिए एंटीबॉडी का उत्पादन शुरू कर देता है.

एक वैक्सीन में किसी जीव के कुछ कमज़ोर या निष्क्रिय अंश होते हैं जो बीमारी का कारण बनते हैं.

ये शरीर के 'इम्यून सिस्टम' यानी प्रतिरक्षा प्रणाली को संक्रमण (आक्रमणकारी वायरस) की पहचान करने के लिए प्रेरित करते हैं और उनके ख़िलाफ़ शरीर में एंटीबॉडी बनाते हैं जो बाहरी हमले से लड़ने में हमारे शरीर की मदद करती हैं.

पारंपरिक टीके शरीर के बाहरी हमले से लड़ने की क्षमता को विकसित कर देते हैं.

लेकिन टीके विकसित करने के लिए अब नये तरीक़े भी इस्तेमाल किये जा रहे हैं. कोरोना की कुछ वैक्सीन बनाने में भी इन नये तरीक़ों को आज़माया गया है.

Coronavirus bacteria

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कोविड वैक्सीन की तुलना

फ़ाइज़र-बायोएनटेक और मॉडर्ना की कोविड वैक्सीन, दोनों 'मैसेंजर आरएनए वैक्सीन' हैं जिन्हें तैयार करने में वायरस के आनुवांशिक कोड के एक हिस्से का उपयोग किया जाता है.

ये वैक्सीन एंटीजन के कमज़ोर या निष्क्रिय हिस्से का उपयोग करने की बजाय, शरीर के सेल्स को सिखाते हैं कि वायरस की सतह पर पाया जाने वाला 'स्पाइक प्रोटीन' कैसे बनायें जिसकी वजह से कोविड-19 होता है.

ऑक्सफ़ोर्ड और एस्ट्राज़ेनेका की वैक्सीन भी अलग है. वैज्ञानिकों ने इसे तैयार करने के लिए चिंपांज़ी को संक्रमित करने वाले एक वायरस में कुछ बदलाव किये हैं और कोविड-19 के आनुवंशिक-कोड का एक टुकड़ा भी इसमें जोड़ दिया है.

Graphic showing a comparison between vaccines

क्या कोविड की और वैक्सीन भी हैं?

चीन की दवा कंपनी सिनोवैक ने 'कोरोना-वैक' नामक टीका बनाया है. कंपनी ने इस टीके को बनाने में पारंपरिक तरीक़े का इस्तेमाल किया है. कंपनी के अनुसार, इस टीके को बनाने के लिए वायरस के निष्क्रिय अंशों का इस्तेमाल किया गया. हालांकि, यह कितना प्रभावी है, इसे लेकर काफ़ी सवाल उठे हैं.

भारत में कई वैक्सीन दी जा रही हैं. कोविशील्ड जिसे एस्ट्राज़ेनेका और ऑक्सफ़र्ड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने तैयार किया और सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया ने इसका उत्पादन किया. और दूसरा टीका है भारतीय कंपनी भारत बायोटेक द्वारा बनाया गया कोवैक्सीन.

रूस ने अपनी ही कोरोना वैक्सीन तैयार की है जिसका नाम है 'स्पूतनिक-V' और इसे वायरस के वर्ज़न में थोड़ बदलाव लाकर तैयार किया गया. इस वैक्सीन को भारत में इस्तेमाल किया जा रहा है. मॉडर्ना वैक्सीन को भी भारत में इस्तेमाल की मंज़ूरी मिली है.

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इमेज कैप्शन, महामारी फैलने के बाद 'हर्ड इम्यूनिटी' को हासिल करना सामान्य जीवन की ओर लौटने का सबसे तेज़ तरीक़ा माना जाता है

क्या मुझे कोविड वैक्सीन लेनी चाहिए?

कहीं भी कोविड वैक्सीन लगवाना अनिवार्य नहीं किया गया है. लेकिन ज़्यादातर लोगों को यह सलाह दी जाती है कि वो वैक्सीन लगवायें. हालांकि, स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से जूझ रहे लोगों के मामले में यहाँ अपवाद है.

सीडीसी का कहना है कि वैक्सीन ना सिर्फ़ कोविड-19 से सुरक्षा देती है, बल्कि दूसरों को भी सुरक्षित करती है. इसके अलावा सीडीसी टीकाकरण को महामारी से बाहर निकलने का सबसे महत्वपूर्ण ज़रिया भी बताती है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि संक्रमण को रोकने के लिए कम से कम 65-70 प्रतिशत लोगों को वैक्सीन लगानी होगी, जिसका मतलब है कि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को टीका लगवाने के लिए प्रेरित करना होगा.

यह सच है कि वैज्ञानिक एक वैक्सीन विकसित करने में कई साल लगा देते हैं, मगर कोरोना महामारी का समाधान ढूंढने के लिए रफ़्तार को काफ़ी बढ़ाया गया. इसीलिए विश्व स्वास्थ्य संगठन वैज्ञानिकों, व्यापारिक और स्वास्थ्य संगठनों के साथ मिलकर काम कर रहा है.

संक्षेप में कहें तो अरबों लोगों के टीकाकरण से कोविड-19 को फैलने से रोका जा सकेगा और दुनिया हर्ड इम्यूनिटी की ओर बढ़ेगी. विशेषज्ञों का कहना है कि हर्ड इम्यूनिटी के ज़रिये ही दुनिया सामान्य जीवन में दोबारा लौट पायेगी.

कोरोना वैक्सीन: वो बातें जो आपको जाननी चाहिए

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वैक्सीन क्या डेल्टा और डेल्टा प्लस वेरिएंट पर असर करेगी?

स्वास्थ्य विशेषज्ञ कोरोना वायरस से बचने के लिए वैक्सीन ज़रूर लगवाने की सलाह देते हैं. उनका कहना है कि जो भी वैक्सीन मिले, उसे लगवा लेना चाहिए. कई लोग डेल्टा और डेल्टा प्लस वेरिएंट पर वैक्सीन के असर को लेकर चिंतित हैं.

हालांकि न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ़ मेडिसिन में छपी एक स्टडी के मुताबिक़, फाइज़र या एस्ट्राज़ेनेका की दो डोज़ संक्रामक डेल्टा वेरिएंट के ख़िलाफ़ उतनी ही प्रभावी हैं जितनी वो पहले वाले अल्फ़ा वेरिएंट के ख़िलाफ़ थी. अधिकारियों ने कहा है कि वैक्सीन दुनिया भर का सिर दर्द बने डेल्टा वेरिएंट के ख़िलाफ़ बहुत प्रभावी है. हालांकि स्टडी में ये दोहराया गया है कि ज़्यादा सुरक्षा के लिए वैक्सीन की एक ख़ुराक पर्याप्त नहीं है.

इस स्टडी के मुताबिक़, फाइज़र की दो ख़ुराक डेल्टा वेरिएंट से 88% बचाव करती है और एस्ट्राज़ेनेका की दो ख़ुराक डेल्टा के ख़िलाफ़ 67% प्रभावी है.

वहीं डेल्टा प्लस वेरिएंट, डेल्टा वेरिएंट से ही जुड़ा है. ज़्यादातर लोगों में कोरोना के इस नए वेरिएंट को लेकर चिंता है. कुछ का मानना है कि नया 'डेल्टा प्लस' वेरिएंट कोरोना वैक्सीन पर भी भारी पड़ सकता है.

हालांकि कुछ वक़्त पहले नीति आयोग के सदस्य वीके पॉल ने कहा था, "कोरोना वायरस के डेल्टा प्लस वेरिएंट को अभी स्टडी किया जाना बाक़ी है और अब तक ऐसा कोई वैज्ञानिक डेटा मौजूद नहीं है, जो साबित करता हो कि नए वेरिएंट वैक्सीन के असर को कम कर देते हैं."

साफ़ है कि फिलहाल सरकार की ओर से डेल्टा प्लेस के वैक्सीन पर प्रभाव को लेकर पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा गया है और रिसर्च अभी जारी है. हालांकि आम दिशा-निर्देशों में वैक्सीन की दोनों डोज़ लेने की सलाह दी गई है.

फाइज़र-बायोनटेक वैक्सीन

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वैक्सीन लेने के बाद भी मुझे कोविड क्यों हो रहा है?

कोई भी वैक्सीन 100 प्रतिशत प्रभावी नहीं है. वैक्सीन लगने के बावजूद होने वाले संक्रमण को वैज्ञानिक 'ब्रेक थ्रू इंफेक्शन' कहते हैं. ज़्यादातर ब्रेक थ्रू इंफेक्शन के मामलों में लक्षण हल्के होते हैं.

विशेषज्ञों के मुताबिक़, वैक्सीन लगने के बाद कोविड होने की संभावना बहुत कम होती है और ये इतना गंभीर भी नहीं होता.

लेकिन वैश्विक टीकाकरण अभियान के बीच अचानक बढ़ रहे कोविड-19 मामलों को लेकर लोग चिंतित हैं.

हालांकि ब्रेक थ्रू इंफेक्शन के मामले काफ़ी कम हैं और विशेषज्ञों के मुताबिक़, इनकी संख्या उतनी ही है जितनी होने की आशंका पहले से थी.

प्रमुख कोविड-19 वैक्सीनंस के तीसरे चरण के ट्रायल्स में संक्रमण के ख़िलाफ़ 90 प्रतिशत से ज़्यादा प्रभावकारिता देखी गई. लेकिन ब्रिटेन, इसराइल और कडाना में हुए अध्ययन दिखाते हैं कि बाहरी दुनिया में वैक्सीन की प्रभावकारिता थोड़ी कम देखी जा रही है, माना जा रहा है कि ऐसा डेल्टा वेरिएंट की वजह से हो सकता है. अनुमान है कि अलग-अलग वैक्सीन सिम्टोमेटिक संक्रमण से 60-90 प्रतिशत के बीच सुरक्षा देती है.

पब्लिक हेल्थ इंग्लैंड के मुताबिक़, 19 जुलाई तक के चार हफ़्तों में इंग्लैंड में डेल्टा वेरिएंट के जो 105,598 मामले दर्ज किए गए, उनमें से क़रीब 17 प्रतिशत वो लोग थे जिनका वैक्सीनेशन पूरा हो चुका था. पब्लिक हेल्थ इंग्लैंड उन लोगों को पूरी तरह वैक्सीनेट मानता है जिनको दूसरा डोज़ लिए 14 दिन पूरे हो चुके हों.

इसराइल में 60 प्रतिशत लोगों का टीकाकरण पूरा हो चुका है. वहां 21 जुलाई वाले हफ़्ते में जो 6,000 लोगों संक्रमित पाए गए उनमें से 52 प्रतिशत वो थे जिनका टीकाकरण पूरा हो चुका था.

हालांकि टीकाकरण पूरा होने के बाद जो लोग संक्रमित हो रहे हैं, उनमें से बहुत कम की स्थिति गंभीर हुई है.

पब्लिक हेल्थ इंग्लैंड की स्टडी के मुताबिक़, बायोनटेक/फाइज़र की वैक्सीन लगवाने वालों की अस्पताल में भर्ती होने की संभानवा अब भी 96% कम है. वहीं ऑक्सफोर्ड/एस्ट्राजेनेका की वैक्सीन इस मामले में 92% प्रभावी है.

डेल्टा वेरिएंट: फाइज़र-बायोनटेक वैक्सीन के लिए आठ हफ़्ते का गैप सबसे सही

फाइज़र-बायोनटेक वैक्सीन की पहली और दूसरी डोज़ के बीच लंबा अंतराल रखने से शरीर का इम्यून सिस्टम संक्रमण के ख़िलाफ़ लड़ने वाली ज़्यादा एंटीबॉडी बनाता है. एक अध्ययन में ब्रिटेन के रिसर्चरों ने ये पाया है.

विशेषज्ञों का कहना है कि इस फाइंडिग से ब्रिटेन सरकार के उस फ़ैसले को बल मिला है, जिसके तहत शुरुआती तीन हफ़्ते के गैप को बढ़ाया गया था.

आठ हफ़्ते के अंतराल को डेल्ट वेरिएंट से निपटने में बहुत ही सही माना गया है.

ब्रिटेन में इससे पहले 2020 के अंत में दो ख़ुराक के बीच के अंतराल को बढ़ाकर 12 हफ़्ते कर दिया गया था.

लेकिन फिर टीकाकरण अभियान में सभी उम्र के लोगों को शामिल कर लिया गया और 18 साल से ऊपर वाले सभी लोगों को कम से कम वैक्सीन की पहली डोज़ लग गई है, तो लोगों से अपने दूसरे डोज़ को आगे बढ़ाने के लिए कहा जा रहा है. उनसे कहा जा रहा है कि वो दूसरी डोज़ आठ हफ़्ते बाद लगवाएं.

इस स्टडी को सरकार ने फंड किया है. ये स्टडी एक प्री-प्रिंट पेपर में छपी है, हालांकि विशेषज्ञों की ओर से इसे रिव्यू किया जाना बाक़ी है.

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