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पहले शिवसेना अब अकाली दल, क्या दरकने लगा है एनडीए का किला?
विनोद अग्निहोत्री
Published by: Amit Mandal
Updated Sun, 27 Sep 2020 12:14 AM IST
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नरेंद्र मोदी -अमित शाह (file photo)
- फोटो : पीटीआई
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भारतीय जनता पार्टी के जन्म से ही उसका सबसे बेहद भरोसेमंद सहयोगी शिरोमणि अकाली दल के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन(एनडीए) से अलग होने के एलान के साथ ही यह सवाल सियासी गलियारों में उठने लगा है कि क्या अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने जिस गठबंधन की नींव डालकर भाजपा को केंद्र की सत्ता तक पहुंचाया था, पहले शिवसेना और अब अकाली दल के अलग होने से उसकी बुनियाद दरकने लगी है, या अभी ऐसा कहना बहुत जल्दबाजी होगी क्योंकि लोकसभा चुनावों में अभी साढ़े तीन साल से ज्यादा का वक्त है।क्योंकि शिवसेना और अकाली दल, दोनों भाजपा के सबसे पुराने और भरोसेमंद सहयोगी दल थे। उधर बिहार में जनता दल(यू) और लोक जनशक्ति पार्टी की तकरार अगर नहीं थमी तो चिराग पासवान किस रास्ते पर जाएंगे कहना मुश्किल है।
वाजपेयी युग में शामिल थे 24 दल
वाजपेयी युग में तमाम गैर कांग्रेसी दलों को एकजुट करके जो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन बना था,उसमें करीब 24 छोटे बड़े दल शामिल थे, जिनमें प्रमुख रूप से भाजपा, शिरोमणि अकाली दल, शिवसेना,जनता दल(एकीकृत), लोक जनशक्ति पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक, तेलुगू देशम, बीजू जनता दल, नेशनल कांफ्रेंस आदि थे। इनमें से वाजपेयी सरकार के कार्यकाल के आखिरी दौर में द्रमुक एनडीए से बाहर हुआ और उसकी जगह अन्ना द्रमुक ने ले ली। 2004 में भाजपा के चुनाव हारने के बाद तृणमूल कांग्रेस और बीजद अलग हो गए। देश की राजनीति और एनडीए के भीतर भी खासा उतार चढ़ाव आया, लेकिन अकाली दल और शिवसेना का भाजपा से नाता बना रहा। यहां तक कि 2013 में नीतीश कुमार के जनता दल(यू) ने भी भाजपा और एनडीए से अपना रिश्ता खत्म कर लिया था और 2015 के विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव के राजद और कांग्रेस के साथ महागठबंधन बनाकर चुनाव लड़ा, जीता, सरकार बनाई और डेढ़ साल बाद जद(यू) ने फिर पलटी मारी और भाजपा से नाता जोड़कर सरकार बनाई।
2014 महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव
2014 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे के मुद्दे पर भाजपा और शिवसेना अलग अलग चुनाव लड़े लेकिन चुनाव के बाद दोनों ने मिलकर सरकार बनाई। 2019 के लोकसभा चुनावों तक हालाकि भाजपा और शिवसेना के बीच खासी दरार आ गई थी, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने शिवसेना के साथ गठबंधन टूटने नहीं दिया और पहले लोकसभा फिर विधानसभा चुनावों में दोनों दल मिलजुल कर मैदान में उतरे और जीते। लेकिन विधानसभा चुनावों के बाद शिवसेना ने मुख्यमंत्री पद पर अड़कर भाजपा से नाता तोड़ लिया और कांग्रेस एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बनाई। वैसे 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले तेलुगू देशम, उपेंद्र कुशवाहा (रालोसपा) और जीतनराम मांझी की पार्टी हम ने भी एनडीए से नाता तोड़ लिया था, लेकिन उनकी चुनाव में जो दुर्गति हुई, उसे सबने देखा। हालाकि मांझी अब फिर एनडीए में लौट आए हैं जबकि कुशवाहा अभी उहापोह में हैं।
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अकाली दल के झगड़े में नवजोत सिद्धू भाजपा से गए
लेकिन दूसरी तरफ पंजाब में अकाली दल और भाजपा की दोस्ती में कभी भी दरार नहीं आई। यहां तक कि अकाली दल से झगड़े की वजह से ही नवजोत सिंह सिद्धू जैसे आक्रामक और लोकप्रिय स्टार प्रचारक जैसे नेता को भी भाजपा छोड़कर कांग्रेस का दामन थामना पड़ा। भाजपा ने अकाली दल से दोस्ती को तरजीह दी और सिद्धू को जाने दिया। हालांकि 2017 के विधानसभा चुनावों से पहले भाजपा का एक धड़ा पंजाब में अकाली दल से अलग होकर चुनाव लड़ने की वकालत कर रहा था, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने अपने सबसे पुराने सहयोगी दल और उसके बुजुर्ग नेता प्रकाश सिंह बादल का साथ न छोड़ने का फैसला किया और मिलकर चुनाव लड़ा। इसका नुकसान भाजपा को उठाना पड़ा। तब से ही भाजपा के भीतर यह धारणा जोर पकड़ने लगी कि उसे पंजाब में अब अकाली दल का बोझ उतारकर जनता के बीच अपने बलबूते पर जाना चाहिए था। लेकिन अकाली दल से अलग होने का कोई उचित और तार्किक कारण भाजपा के पास नहीं था और केंद्र की सरकार में अकाली दल शामिल था।
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लेकिन किसान और कृषि सुधार से जुड़े विधेयकों ने पहले अकाली दल को सरकार से निकलने और उन विधेयकों के कानून बन जाने से एनडीए छोड़ने पर मजबूर कर दिया, क्योंकि पंजाब में इन कानूनों का जितना व्यापक और जोरदार विरोध हो रहा है, उसे देखते हुए अकाली दल के सामने अपने किसान जनाधार को बचाने के लिए इसके अलावा कोई दूसरा चारा नहीं था। उधर, भाजपा का एक बड़ा तबका खुश है कि पार्टी अकाली दल से खुद अलग होने के आरोप से बच गई और अब उसे पंजाब में खुल कर राजनीति करने का मौका मिलेगा।
बिहार में भाजपा पर बढ़ा दबाव
लेकिन सवाल सिर्फ महाराष्ट्र और पंजाब का नहीं पूरे देश का है। शिवसेना और अकाली दल के अलग होने से बिहार में जनता दल(यू) के सामने भाजपा पर दबाव बढ़ गया है। कड़ी राजनीतिक सौदेबाजी के लिए मशहूर नीतीश कुमार अब भाजपा के साथ सीटों के बंटवारे पर अच्छी खासी सौदेबाजी करेंगे।साथ ही राम विलास पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी भी भाजपा पर दबाव बढ़ाएगी कि उसे ज्यादा से ज्यादा सीटें दी जाएंगी। पासवान पुत्र और लोजपा के युवराज चिराग पासवान पहले से ही नीतीश कुमार और जद(यू) को लेकर आक्रामक बयानबाजी कर रहे हैं। भाजपा के साथ एनडीए में अब जद(यू) सबसे बड़ा घटक दल है और इसका सियासी फायदा उठाने से नीतीश कुमार नहीं चूकेंगे। अकाली दल के अलग होने से केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए किसान कानूनों को लेकर कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों को भाजपा पर हमला करने का और मौका मिलेगा। इसका असर मध्यप्रदेश में होने वाले 28 विधानसभा सीटों के उपचुनाव, जिन्हें मिनी विधानसभा चुनाव कहा जा रहा है, पर भी पड़ सकता है।
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अन्य दल भी बढ़ाएंगे दबाव
एनडीए से अकाली दल के अलग होने के बाद सरकार को गाहे बगाहे बाहर से समर्थन देकर राज्यसभा में संकट से बचाने वाले बीजू जनता दल, तेलंगाना राष्ट्र समिति, वाईएसआर कांग्रेस जैसे दलों का भी दबाव सरकार पर बढ़ेगा। हालांकि लोकसभा में भाजपा की अपनी 303 सीटें हैं इसलिए सरकार को कोई खतरा नहीं है, लेकिन अगर उसे बाहर से समर्थन देने वाले ये दल भी विपक्ष के सुर में सुर मिलाने लगेंगे तो संसद में सरकार की मुश्किलें बढ़ती रहेंगी, विशेषकर राज्यसभा में जहां भाजपा सबसे बड़ा दल तो है लेकिन उसके पास भी पूर्ण बहुमत नहीं है। इसलिए अगर सिर्फ पंजाब के हिसाब से देखें तो भाजपा नेतृत्व खुश हो सकता है कि अब उसे देश के सीमांत प्रदेश में कांग्रेस के खिलाफ अकेले लड़ने का मौका मिल सकेगा और पार्टी का विस्तार पूरे पंजाब में हो सकेगा।
भाजपा के लिए चिंता का सबब
लेकिन राष्ट्रीय दृष्टिकोण से देखने पर पहले शिवसेना और अब अकाली दल का भाजपा से रिश्ता तोड़कर एनडीए से अलग होना भाजपा के लिए चिंता का सबब होना चाहिए। कहावत है किला कितना भी मजबूत हो लेकिन उसकी एक एक चट्टान महत्वपूर्ण होती है और अगर वो दरकना शुरू कर दे और समय रहते मरम्मत नहीं हुई तो किले की मजबूती भी ज्यादा समय तक नहीं रहती। फिर अगर चट्टानें नींव का पत्थर हों तो खतरा और बढ़ जाता है। इसलिए अगर महाराष्ट्र में शिवसेना से नाता टूटना तत्कालीन भाजपा नेतृत्व की सियासी विफलता थी, तो अब अकाली का एनडीए से जाना मौजूदा भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्ड़ा के लिए चुनौती है। लेकिन दोनों मामलों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का निरपेक्ष रहना चौंकाता है, क्योंकि पहले एनडीए का चुंबक अगर अटल बिहारी वाजपेयी थे, निश्चित रूप से 2013 से एनडीए का सूर्य नरेंद्र मोदी हैं, जिनके इर्द-गिर्द सारे घटक एकजुट हैं और अपने घटक दलों को अपने साथ बनाए रखना भाजपा अध्यक्ष के साथ-साथ उनकी भी जिम्मेदारी है।
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