बिहार चुनाव: किसानों की नाराज़गी क्या एनडीए पर भारी पड़ेगी?

  • सरोज सिंह
  • बीबीसी संवाददाता
किसान आंदोलन

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नीले रंग की ट्रैक्टर, ड्राइवर की सीट पर आरजेडी नेता तेजस्वी यादव, ट्रैक्टर पर छत पर साथ में बैठे बड़े भाई तेज प्रताप, और बगल में फावड़ा.

फोटो का चित्रण आपको भले ही फ़िल्मी लग रहा हो, लेकिन इसकी पटकथा राजनीतिक है.

देश भर से किसान आंदोलन की जो तस्वीरें आ रही थी, उनमें बिहार से आई ये तस्वीर अपने आप में बहुत कुछ कहती है. ख़ास तौर पर तब, जब उसी दिन बिहार चुनाव की तारीख़ का एलान भी हुआ हो.

ये तस्वीर इतना बताने के लिए काफ़ी है कि बिहार का किसान भले ही नए कृषि बिल से ख़ुद को प्रभावित समझे या ना समझे, लेकिन विपक्ष इसे आने वाले चुनाव में मुद्दा बनाने के लिए आमादा है.

कांग्रेस पार्टी भी इस मुद्दे को भुनाने में जुटी है. गुरुवार को पटना में पार्टी के मीडिया प्रभारी रणदीप सुरजेवाला ने एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस में नीतीश कुमार का इस्तीफ़ा तक माँग लिया.

तेजस्वी यादव और तेज प्रताप यादव

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उन्होंने कहा कि नए कृषि बिल से न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था ख़त्म की जा रही है और सरकारी ख़रीद और मंडियों का प्रावधान हट रहा है. इसलिए कांग्रेस पार्टी किसानों के चक्का जाम को अपना समर्थन दे रही है.

नए कृषि बिल पर बिहार की विपक्षी पार्टियों के विरोध के बीच मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को बिल के समर्थन में उतरना ही पड़ा.

गुरुवार को मीडिया से बात करते हुए उन्होंने कहा, "बिहार की स्थिति दूसरी है. हमने 2006 में ही एपीएमसी ख़त्म कर दिया था. किसी किसान को सामान बेचने में कोई दिक्क़त नहीं हुई. पहले अनाज ख़रीद का काम बिहार में होता ही नहीं था. हमने शुरू करवाया. इस बिल के बारे में अनावश्यक ग़लतफ़हमी पैदा की जा रही है. ये बिल किसानों के हक़ में है."

नीतीश कुमार

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एक दिन पहले ही जेडीयू के पूर्व राज्य सभा सांसद केसी त्यागी ने इंडियन एक्सप्रेस अख़बार से कहा था कि उनकी पार्टी नए कृषि बिल के समर्थन में है, लेकिन वो साथ ही किसानों की उस माँग का भी समर्थन करते हैं, जिसमें एमएसपी से कम दाम पर फसलों की ख़रीद को अपराध घोषित करने की बात है.

बिहार के मुख्यमंत्री का बिल को समर्थन देने वाला बयान केसी त्यागी के बयान के बाद आया है.

नया कृषि बिल और बिहार की स्थिति

बिहार में एपीएमसी एक्ट 2006 में ही ख़त्म हो गया था. फिर नए कृषि बिल से बिहार का क्या लेना देना.

ये एक आम धारणा है कि नए बिल का विरोध बिहार में नहीं हो रहा है. लेकिन ये आधा सच है, पूरा सच नहीं है. एपीएमसी यानी ऐग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केटिंग कमेटी यानी कृषि उपज विपणन समिति. वो मंडियाँ जहाँ किसानों की फसलें बेची और ख़रीदी जाती हैं.

किसान आंदोलन

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ये बात सही है कि 2006 से ही बिहार का किसान मंडियों के चंगुल से आज़ाद हो गया था. लेकिन नए कृषि बिल के विरोध में किसानों की लड़ाई सरकारी मंडियों पर नहीं है, बल्कि एमएसपी पर है. जबकि अलग-अलग राजनैतिक दल और राज्य सरकारें एपीएमसी को भी विरोध का मुद्दा बता रहे हैं.

25 सितंबर को जब देश भर के किसानों ने चक्का जाम करने का फ़ैसला किया तो उनकी केवल दो ही माँगें थीं. पहला ये कि एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ही किसानों की फसलों को ख़रीदा जाए, चाहे सरकार हो या फिर उद्योगपति और दूसरी माँग ये है कि एमएसपी से कम पर फसल ख़रीदने को अपराध माना जाए.

अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (एआईकेएससीसी) के संयोजक वीएम सिंह से बीबीसी से बातचीत में ये बात कही है. ये वही संस्था है, जिसने इस चक्का जाम का एलान किया है.

एमएसपी क्या है?

किसानों के हितों की रक्षा करने के लिए देश में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था लागू की गई है. अगर कभी फसलों की क़ीमत बाज़ार के हिसाब से गिर भी जाती है, तब भी केंद्र सरकार तय न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ही किसानों से फसल ख़रीदती है ताकि किसानों को नुक़सान से बचाया जा सके.

किसी फसल की एमएसपी पूरे देश में एक ही होती है. भारत सरकार का कृषि मंत्रालय, कृषि लागत और मूल्य आयोग (कमिशन फ़ॉर एग्रीकल्चर कॉस्ट एंड प्राइजेस CACP) की अनुशंसाओं के आधार पर एमएसपी तय करता है. इसके तहत अभी 23 फसलों की ख़रीद की जा रही है.

इन 23 फसलों में धान, गेहूँ, ज्वार, बाजरा, मक्का, मूंग, मूंगफली, सोयाबीन, तिल और कपास जैसी फसलें शामिल हैं, जिनमें से धान, गेहूँ और मक्के की ही खेती बिहार में ज़्यादा होती है. इसलिए माना जा रहा है कि बिहार के किसान नाराज़ नहीं है, ये बात पूरी तरह सही नहीं है.

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किसान वोट बैंक का क्या?

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बिहार की राजनीति पर क़रीब से नज़र रखने वाले पत्रकार सुरूर अहमद कहते हैं, "कोरोना के दौर में जब ये बिल आया, तो पहले ना नेताओं को और ना ही पत्रकारों को इसके असर के बारे में पता चल पाया. सब घरों में ही क़ैद थे. लेकिन अब जब लोग धीरे धीरे बाहर निकलने लगे हैं, अब जब चाय की दुकान, लोकल ट्रेन और आते-जाते मार्केट में लोगों से बात हो रही है, तब अंदाज़ा लग पा रहा है कि किसान इससे कितना नाराज़ हैं."

बिहार में अब इस बिल को लेकर एक धारणा बन रही है. पहले तो बिहार की जनता इतना ही समझती थी कि किसान इतनी फसल कहाँ उगाते हैं, जो पंजाब हरियाणा जा कर बेच पाए. जितना उगाते हैं, उसका अधिक हिस्सा अपने लिए रखते हैं और जो बचता है बस उसे लोकल मार्केट में बेच देते हैं.

लेकिन धीरे धीरे अब एक माहौल तो कृषि बिल के ख़िलाफ़ बनता दिख रहा है, लेकिन ऐसा नहीं कि वो सबसे बड़ा मुद्दा हो. बिहार की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित ज़रूर है. लेकिन ज़्यादा बड़ा मुद्दा बिहार के नौजवानों के लिए रोज़गार है.

यही वजह है कि आरजेडी नए कृषि बिल को पलायन और बेरोज़गारी से जोड़ कर जनता को समझा रही है. शुक्रवार को किसान आंदोलन के दौरान जब आरजेडी नेता तेजस्वी यादव सड़कों पर निकले तो लोगों से कहा, "2006 में एपीएमसी ख़त्म किया, जिस वजह से किसान को फसल की सही क़ीमत नहीं मिली, इसलिए किसानों को पलायन करना पड़ा."

2006 में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार थे.

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बिहार चुनाव में जाति फ़ैक्टर

लेकिन ये भी सच है कि बिहार की राजनीति में मुद्दों के साथ-साथ 'जाति फ़ैक्टर' की भी अपनी अहमियत है.

जाति फ़ैक्टर पर सुरूर अहमद कहते हैं, "पाँच साल पहले तक बीजेपी शहरों वाली पार्टी मानी जाती थी, जिसको ऊँची जाति का ज़्यादा समर्थन मिलता था. ये सोच अब थोड़ी बदली है. जेडीयू के पास कुछ कुर्मी वोट हैं, कुछ शहरी वोट और कुछ अति पिछड़ा वर्ग के वोट हैं. राष्ट्रीय जनता दल को यादवों और मुसलमानों की पार्टी माना जाता है, जिन्हें थोड़ा बहुत कोइरी और कुर्मियों का भी समर्थन प्राप्त है. बिहार में जिस जाति के लोगों के पास ज़मीन है, उनमें मुख्य तौर पर कुर्मी, यादव, भूमिहार और राजपूत आते हैं. इनमें से ऊँची जाति वालों की ज़मीन पर दलित किसान खेती करने का काम करते हैं. अगर ये ज़मीन वाली जनता नीतीश से नए कृषि के समर्थन में हैं, तो फ़ायदा बीजेपी को होगा ना कि आरजेडी को."

लेकिन सुरूर अहमद साथ में ये भी कहते हैं कि अगर ये ज़मीन रखने वाला तबका वोटिंग के दौरान पूरी तरह से 'तटस्थ' और 'उदासीन' हो जाए, तो एनडीए के लिए मुश्किल हो सकती है. इसके लिए वोटिंग का पैटर्न देखना होगा. कोरोना में घरों से लोग निकल कर वोट करने जाते भी हैं या नहीं.

पटना के एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज़ में पूर्व निदेशक डॉ. डीएम दिवाकर कहते हैं, " बिहार के 96.5 फ़ीसदी किसान छोटे और मध्यम ज़मीन वाले हैं. इसमें से बहुत ज़्यादा तो एमएसपी वाले फसल नहीं उगाते, लेकिन जो उगाते हैं, ये बात सच है कि उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिलता. अगर विपक्षी पार्टियाँ ऐसे किसानों को ये समझा पाने में कामयाब होती हैं कि एमएसपी का मुद्दा उनसे कैसे जुड़ा है, तो एनडीए को नुक़सान हो सकता है."

सुशील मोदी और नीतीश कुमार

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पिछले 14 साल से बिहार में एपीएमसी एक्ट ख़त्म है. प्रोफेसर दिवाकर मानते हैं कि बिहार के किसानों का कुछ भला नहीं हुआ, ऐसे में एनडीए को बिल के फ़ायदे गिनाने में मुश्किल आएगी और आरजेडी और कांग्रेस इसका फ़ायदा उठा सकते हैं.

वो आगे कहते हैं, "छोटे और मध्यम भूमि वाले किसान महागठबंधन और राजद के पारंपरिक वोट बैंक हैं, जबकि बड़े किसान एनडीए और बीजेपी के वोट बैंक हैं. बिहार में कुर्मी, भूमिहार और राजपूत का पूरा का पूरा वोट अब एनडीए को नहीं मिलता है. वो बँटा हुआ वोट बैंक है. लेकिन दूसरी तरफ़ राजद के साथ यादव और मुसलमान का ज़्यादा वोट है. दलित के वोट में थोड़ा हेरफेर होता है. पिछड़ा वोट बैंक भी थोड़ा बहुत राजद को वोट करता है, जिनमें फ़िलहाल थोड़ी एनडीए को लेकर नाराज़गी है."

डॉक्टर दिवाकर के मुताबिक़ नीतीश सरकार पहले से 15 साल की सत्ता विरोधी लहर को झेल रही है. दूसरी दिक़्क़त है छात्रों की नाराज़गी और शिक्षकों में 'समान काम समान वेतन' ना देने को लेकर ग़ुस्सा. तीसरी नाराज़गी है प्रवासी मज़दूरों के साथ कोरोना के दौर में सरकार का बर्ताव. अब उसके ऊपर से किसानों की नाराज़गी भी सामने आ रही है. अब देखना ये होगा कि महागठबंधन इन सब मुद्दों को अपने पक्ष में कितना भुना पाता है.

कोशिशें तो राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस की तरफ़ से दिख रही है, लेकिन एनडीए और ख़ास कर खु़द प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी किसानों तक अपनी बात पहुँचाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं. असर का पता 10 नवंबर को चलेगा, जब बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे आएँगे.

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