ऋषि गुप्ता। India–Nepal Relations: हाल ही में नेपाल ने भारत में निर्माणाधीन एक सड़क पर आपत्ति जताई है। यह सड़क उत्तराखंड में धारचूला को लिपुलेख से जोड़ती है जो करीब 80 किलोमीटर लंबी है। दरअसल यह सड़क भारतीय तीर्थयात्रियों के लिए कैलास मानसरोवर यात्र के समय को कम करने के साथ उनकी यात्र को अधिक सुगम बनाएगी। नेपाल का कहना है कि वह भू-भाग नेपाल का हिस्सा है। अपने हालिया वक्तव्य में नेपाली विदेश मंत्रलय ने भारत को चेतावनी भी दी है कि भारत इस जमीन को वापस करे और भविष्य में ऐसा करने से बचे।

पिछले वर्ष भी नेपाल ने उत्तराखंड में स्थित कालापानी इलाके को लेकर विवाद का मुद्दा छेड़ दिया था। दोनों ही अवसरों पर भारत ने नेपाल की आपत्तियों का खंडन किया है। भारतीय सेना प्रमुख ने भी चीन का नाम लिए बिना नेपाल को बाहरी ताकतों के बहकावे में न आने की मित्रवत सलाह भी दी। हालांकि यह पहला अवसर है जब नेपाल ने भारत को खुलेआम धमकी दी है और आधिकारिक तौर पर भारत के खिलाफ सत्तारूढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी ने आंदोलन किया है। भारत कहता रहा है कि वह उचित समय पर विदेश सचिव स्तर की बातचीत के सहारे मुद्दे का कूटनीतिक हल निकालेगा, लेकिन यह नेपाल को स्वीकार्य नहीं।

भारत ने महत्वपूर्ण शांतिदूत की भूमिका निभाई : इन हालात के बीच नेपाल ने बिना किसी विशेष सर्वेक्षण के आनन-फानन में एक नया राजनीतिक नक्शा जारी किया है जिसमें भारत की सार्वभैमिक सीमा के भू-भाग को अवैधानिक तौर पर अपना दर्शाया है। साथ ही प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने नेपाली सेना को नेपाल-भारत सीमा पर चौकसी बढ़ाने का आदेश भी दिया है। ओली द्वारा उठाए गए इन कदमों से ऐसा झलक रहा है कि इस मुद्दे को सुलझाने से अधिक इसके राजनीतिक फायदे का प्रयास किया जा रहा है। हालांकि जल्दबाजी में उठाए जा रहे कदमों के खिलाफ विपक्षी दल नेपाली कांग्रेस पार्टी और अन्य मधेसी पार्टियों ने सरकार को आड़े हाथों लिया है। नेपाली संसद ने नए नक्शे को लेकर संविधान संशोधन को फिलहाल रोक दिया है। ज्ञात है कि भारत और नेपाल के संबंध दक्षिण एशिया में अन्य देशों की भांति नहीं हैं। यहां दो देशों के बीच खुली सीमा है, वहीं सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक तौर पर दोनों देशों के बीच गूढ़ संबंध कायम हैं। नेपाल में प्रजातंत्र की स्थापना करने में भारत ने महत्वपूर्ण शांतिदूत की भूमिका निभाई थी। ऐसे में नेपाल द्वारा भारत का विरोध इन तीन महत्वपूर्ण बिंदुओं की ओर इशारा करता है।

भारत विरोध पर टिकी केपी की राजनीति: बीते पांच वर्षो में ओली ने भारत विरोध के सहारे ही नेपाल में अपनी राजनीतिक साख मजबूत की है। एक तरह से, भारत विरोध राष्ट्रीय विमर्श का अभिन्न अंग बन गया। वर्ष 2018 के संसदीय चुनावों में भारत विरोध के दम पर नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी भारी मतों से विजयी हुई थी, लेकिन बीते कुछ हफ्तों में पार्टी आलाकमान ने ओली के नेतृत्व पर कई सवाल खड़े किए हैं। विशेष तौर पर कोरोना महामारी की रोकथाम और अप्रवासी मजदूरों को तात्कालिक सहायता पहुंचाने को लेकर। ऐसे में भारत के प्रति विषवमन ओली के लिए ध्यान भटकाने और अपना वजूद बचाने का जरिया है।

पहाड़ी बनाम मधेसी का मसला: नेपाल की मौजूदा कम्युनिस्ट सरकार अपने ही देश के मधेसी लोगों पर लगातार अत्याचार करती रही है। चूंकि भारत के साथ नेपाल की सीमा खुली है, लिहाजा मधेसी आंदोलनों का असर भारतीय सीमा पर भी रहा है। इसके चलते भारत नेपाल से मधेसियों के प्रजातांत्रिक अधिकारों की वकालत करता रहा है, जो नेपाल को नागवार गुजरता रहा। इधर ओली द्वारा मधेसी जनता को भारत के प्रति उकसाने का भरसक प्रयास विफल ही रहा। अगर ऐसा होता है तो पहाड़ी राजनेताओं का तराई क्षेत्र में वर्चस्व स्थापित हो सकेगा और मधेसियों की आवाज दबाने में कामयाबी मिल सकती है। वर्ष 2015 में नए संविधान को लेकर मधेसी जनता ने तीन महीने तक नेपाल सरकार का विरोध किया था जिससे भारत से आने वाले सामान पर असर पड़ा था। मधेसी आंदोलन में भी नेपाल ने भारत की भूमिका पर अंगुली उठाई थी जो सरासर गलत था।

कम्युनिस्ट सरकार का चीन की ओर झुकाव: पिछले पांच वषों में कम्युनिस्ट सरकार ने चीन के साथ कई समझौते किए हैं, जिनमें सैन्य करार भी शामिल हैं। इन समझौतों के बावजूद चीन यह जानता है कि भारत के रहते नेपाल में वह श्रीलंका या पाकिस्तान जैसी मनमानी नहीं कर सकता। इसलिए यह जरूरी है कि कम्युनिस्ट सरकार को माओवादी विचारधारा से जोड़कर, भारत के विरुद्ध खड़ा किया जा सके। इससे न केवल चीन को नेपाल में अपनी साख मजबूत करने में मदद मिलेगी, बल्कि नेपाल में रह रहे तेरह हजार से अधिक तिब्बती शरणार्थियों के दमन का रास्ता तैयार होगा। आश्चर्य की बात है कि वर्ष 2015 में चीन ने भारत के साथ करार में कालापानी और लिपुलेख को भारत का हिस्सा माना था। चूंकि चीन चाहता है कि भारत-नेपाल संबंधों में दरार पड़े, लिहाजा वह नेपाल को अपनी ढाल बना रहा है।

वहीं नेपाली नेताओं का भारत विरोध राग अपने फायदे के लिए ही है, क्योंकि चीन द्वारा नेपाल के माउंट एवरेस्ट को अपना बताने पर कोई विरोध या वक्तव्य जारी नहीं हुआ। ऐसे में यह कहना गलत नहीं है कि नेपाल की कम्युनिस्ट सरकार अपने राजनीतिक फायदे और चीन से प्रभावित होकर भारत के साथ विवाद की स्थिति बना रही है। हालांकि ओली सरकार यह भूल रही है कि भारत-नेपाल के संबंध कोई नए नहीं हैं, बल्कि यह सदियों से चले आ रहे दो देशों के बीच अच्छे समन्वय और त्याग पर आधारित है। ओली सरकार सीमा विवाद जैसे मुद्दे के जरिये कुछ समय के लिए भले ही संबंधों को क्षति पहुंचाएं, परंतु भौगोलिक और सांस्कृतिक तौर से वह भारत को दूर नहीं रख सकती। देखा जाए तो विदेशी व्यापार के लिए नेपाल की भारत पर निर्भरता एक सत्य है और ऐसे में कोई भी विवाद नेपाल के लिए ही नुकसानदेह साबित होगा। उसे इन पहलुओं पर विचार करके ही भविष्य के लिए कोई रणनीति बनानी चाहिए।

[पीएचडी शोधार्थी, स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, जेएनयू]