मोदी सरकार में मध्यम वर्ग क्या ताली और थाली ही बजाएगा?- नज़रिया
- आलोक जोशी
- वरिष्ठ पत्रकार
प्रश्न बहुत आसान है. क्या मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में यानी 2019 के बाद मिडिल क्लास पर बहुत ध्यान दिया है? और उत्तर भी बहुत सीधा है- मिडिल क्लास के ज़्यादातर लोग का जवाब एक सेकंड में मिल जाएगा - क़तई नहीं!
लेकिन क्या ये सवाल जवाब वाक़ई इतना ही सीधा और इतना ही आसान है? अगर ऐसा ही है तो फिर वो सारे सर्वे कहाँ से आ रहे हैं जिनमें प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता बढ़ती दिखाई दे रही है?
एक इशारे पर ताली थाली बजाने से लेकर दीये जलाने तक के लिए बड़ी संख्या और बड़ा उत्साह कहाँ से आ रहा है?
तो अब इस सवाल को दरअसल उल्टा करके पूछना चाहिए. क्या 2019 के बाद भी मोदी सरकार को मिडिल क्लास के लिए कुछ करने की ज़रूरत रह गई थी? सवाल ऐसे क्यों पूछना है, यह बात समझना ज़रूरी है. तो अब अपने आसपास के मिडिल क्लास के लोगों का सर्वे करके देखिए.
आम तौर पर मिडिल क्लास के लोग इस बात से बहुत दुखी हैं कि सरकार ने उनके लिए कुछ नहीं किया. क्या नहीं किया इसके भी एक नहीं अनेक उदाहरण मौजूद हैं. एक साँस में गिना डालेंगे. लेकिन साँस टूटे बिना दूसरी लाइन आ जाएगी - तो भाई इससे पहले की किस सरकार ने मिडिल क्लास के लिए कुछ किया था? न अब तक किसी ने किया न ये कर रहे हैं.
न्यू टैक्स रिजीम
लेकिन दुख दर्द का पिटारा तो है ही. 370 और तीन तलाक़ की विदाई का जश्न मनाने के बाद इंतज़ार था बजट का. लेकिन बजट आया, तो बजट ने दिल तोड़ दिया!
सभी को उम्मीद थी कि दो बार सरकार बनवाने का कुछ तो सिला मिलेगा. लेकिन ऐसा सिला! इनकम टैक्स में स्लैब बढ़ने, रेट घटने की उम्मीदें तो धरी रह गईं, हाँ हिसाब लगाने में आत्मनिर्भर ज़रूर बना दिया गया.
हालाँकि यह नामकरण तब तक हुआ नहीं था. तब तो दो ऑप्शन ही दिए गए थे. न्यू रिजीम यानी सारी छूट छोड़ दो और मिनिमम स्लैब बढ़वा लो, या फिर ओल्ड रिजीम यानी छूट लेनी है तो रेट और स्लैब पुराना ही चलेगा. कितनी बचत होगी इसका हिसाब भी साथ के साथ बताया गया.
हालाँकि जैसे ही टैक्स का हिसाब जोड़नेवालों ने कैलकुलेटर निकाले तो पता चला कि नई स्कीम में बचत तो कुछ होनी नहीं है बस छूट जानी हैं.
लेकिन ज़िम्मेदार सलाहकरों ने ये सलाह भी दी कि बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी, सरकार ने आज इशारा किया है तो कल ये छूट तो एक एक करके या एक साथ जानी ही हैं. तो तय कर लो आज क़ुर्बान होना है या एक दो साल के बाद.
नई पीढ़ी का भविष्य
जैसे जैसे परतें खुलती गईं यह घाव और तकलीफ़ देह होता गया. इस फ़ैसले की सबसे बड़ी मार टैक्स पर या आज कमानेवाले की जेब पर नहीं, बल्कि नई पीढ़ी के भविष्य पर, बचत योजनाओं पर और उनके बुढ़ापे के लिए जमा होनेवाली पूँजी पर पड़नेवाली है.
एक ऐसे वक़्त में जब प्राइवेट तो छोड़ दें सरकारी नौकरियों में भी पेंशन बंद हो चुकी है, भविष्य के लिए बचत का फ़ैसला एक विकल्प बन जाए तो यह वैसा ही विकल्प है कि छुरा ख़रबूज़े पर गिरेगा या ख़रबूज़ा छुरी पर. दोनों ही हाल में नुक़सान उसी का है.
रोज़गार की कहानी पहले ही बहुत बिगड़ी हुई थी, अब कोरोना, दुनिया भर की मंदी और लंबे लॉकडाउन ने उसे और दर्दनाक बना दिया है.
नरेगा, बैंकों से क़र्ज़ या बीस लाख करोड़ का पैकेज - इन सबको भी खंगाल कर देख चुके एक पूर्व बैंक अधिकारी का कहना है कि यह सरकार भी इससे पहले की सरकारों की तरह ही तुष्टीकरण की राजनीति में लग चुकी है. फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि यहाँ तुष्टीकरण धार्मिक नहीं आर्थिक आधार पर हो रहा है.
देश में कच्चा तेल
उन्होंने उज्ज्वला से लेकर गाँव और ग़रीब के लिए लाई गई तमाम योजनाएँ गिनाईं और पूछा कि भाई इसमें मिडिल क्लास को क्या मिला. और उसके बाद का सवाल - जब दुनिया भर के बाज़ारों में कच्चा तेल गोते खा रहा है तो सरकार ने पेट्रोल डीज़ल पर तगड़ा डिस्काउंट देने की क्यों नहीं सोची? तर्क भी है.
उनका कहना है कि देश में कच्चा तेल जमा रखने के लिए भंडार तो सीमित ही हैं. उन्हें ख़ाली नहीं करेंगे तो नया माल भरेंगे कहां? अगर एक बार सेल लगाकर पेट्रोल, डीज़ल बेच लेते तो एक तीर में तीन निशाने थे- दाम कम होने से सब ख़ुश होते, ट्रांसपोर्ट की लागत कम होने से महंगाई पर दबाव घटता, और दाम कम होने के कारण जिन्हें ज़रूरत नहीं भी थी वो भी निकलकर अपनी गाड़ियों के टैंक फ़ुल करवाते जिससे तेल कंपनियों के टैंकर ख़ाली होते और वो रिफ़ाइनरी चलाकर सस्ता क्रूड भी स्टोर करने की हालत में आतीं.
जब कोरोना का डर दूर हो रहा हो...
वो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ख़बरें जो दिनभर सुर्खियां बनीं.
दिनभर: पूरा दिन,पूरी ख़बर
समाप्त
सरकार के कामों पर, बजट के फ़ैसलों पर उँगली उठाने का आज कोई अर्थ रह नहीं गया है. क्योंकि साल भर पहले जो कुछ भी सोचकर फ़ैसले किए गए होंगे, योजनाएँ बनी होंगी उनपर तो कोरोना से आया संकट पानी फेर चुका है. यानी अब वो स्लेट साफ़ हो चुकी है जिसपर नई इबारत ही लिखनी पड़ेगी.
एक संभावना है. हालाँकि दूर की कौड़ी लगती है कि सरकार ने शायद सोच रखा हो कि मुसीबत ख़त्म होते समय कुछ ऐसा दिया जाए जिससे लोगों का हौसला भी बढ़े और अर्थव्यवस्था में भी जान लौट सके.
यानी जब कोरोना का डर दूर हो रहा हो, लॉकडाउन खुल चुका हो, या देश के ज़्यादातर हिस्सों में खुल रहा हो, उस वक़्त कुछ ऐसा एलान हो जिससे मिडिल क्लास को राहत भी मिले और उत्साह भी.
लेकिन फ़िलहाल तो उसे क़र्ज़ की किस्तें कुछ समय न देने, घरों या दुकानों का किराया न लेने, अपने कामगारों को न निकालने, उनका वेतन देते रहने और साथ में बिजली, पानी, गैस, फ़ोन के बिल और सरकारी टैक्स भी भरते रहने की जिम्मेदारी निभानी है.
घर पर काम करनेवाले मददगारों की भी तनख्वाहें न काटने की अपील उन्हीं से की गई है, भले ही काम न करवा सकते हों.
मोदी सरकार का फ़ोकस
ऐसे में उनसे सरकार के एक साल का हाल पूछना कुछ वैसा ही है जैसे पूरे रमज़ान लॉकडाउन में रोज़े रखने के बाद ईद की ख़रीदारी भी न कर सके लोगों को ईद मुबारक कहकर पूछना कि भाई इस बार ईद कैसी रही?
लेकिन इसके बावजूद आप सवाल पूछ कर देख लीजिए. सीधा जवाब देनेवाले बहुत कम मिलेंगे. जवाब में कोई सवाल होगा, और सवाल राज्य सरकार पर भी हो सकता है, पिछली सरकार पर भी हो सकता है, पिछले सत्तर साल पर भी हो सकता है और कोई न मिला तो सवाल पूछने वाले पर ही हो सकता है.
लब्बो लुबाव ये है कि मोदी सरकार का फ़ोकस भले ही मिडिल क्लास पर न रहा हो. लेकिन सरकार के घोर आलोचक भी मानते हैं कि मिडिल क्लास का मोदी जी पर भरोसा पूरी तरह फ़ोकस्ड है. वहाँ कोई दुविधा नहीं है.
शिकवे शिकायत हैं, मायूसी भी है, जो सोचा था वो नहीं मिला इसका अफ़सोस भी है, लेकिन नाराज़गी फ़िलहाल तो नहीं दिखती. और साथ में ये दम भी भरनेवाले कम नहीं हैं कि वोट बैंक कोई भी हो, चुनाव जितानेवाला क्लास तो मिडिल क्लास ही है. बाक़ी सब का तो पहले से ही तय होता है.
यानी मिडिल क्लास के पैमाने पर इस सरकार के पहले एक साल का रिज़ल्ट बनाना हो तो बिल्कुल साफ़ है. जो नौवीं क्लास तक के छात्रों का हुआ है. बिना परीक्षा के ही पास !
(यह लेखक के निजी विचार हैं.)
- कोरोना वायरस के क्या हैं लक्षण और कैसे कर सकते हैं बचाव
- कोरोना महामारीः क्या है रोगियों में दिख रहे रैशेज़ का रहस्य
- कोरोना वायरसः वो शहर जिसने दुनिया को क्वारंटीन का रास्ता दिखाया
- कोरोना वायरस से संक्रमण की जांच इतनी मुश्किल क्यों है?
- कोरोना संकट: गूगल, फ़ेसबुक, ऐपल और एमेज़ॉन का धंधा कैसे चमका
- कोरोना वायरसः वो छह वैक्सीन जो दुनिया को कोविड-19 से बचा सकती हैं
- कोरोना वायरस: संक्रमण से बचने के लिए इन बातों को गाँठ बांध लीजिए
- कोरोना वायरस: सरकार का आरोग्य सेतु ऐप कितना सुरक्षित
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)