कोरोना वायरस ने भारतीय राजनीति को कितना बदला है?

  • भूमिका राय
  • बीबीसी संवाददाता
मोदी-राहुल

कोरोना वायरस संक्रमण से पूरी दुनिया प्रभावित हुई है और इसके प्रभाव से राजनीति भी अछूती नहीं है.

भारतीय राजनीति पर भी इसका असर साफ़ नज़र आता है.

वो चाहे वीडियो कॉनफ्रेंसिंग के ज़रिए प्रधानमंत्री की मुख्यमंत्रियों से पांच बार हुई मुलाक़ात हो या फिर वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ही माध्यम से प्रेस वार्ता करना.

सत्ता में तो कोई ख़ास बदलाव भले ना आया हो लेकिन बाकी तौर-तरीक़ों और व्यवहार के लिहाज़ से भारतीय राजनीति भी कोरोना वायरस से अछूती नहीं दिखती.

कुछ प्रमुख बदलाव

मोदी

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संकट को अवसर में बदलने का मौका

प्रधानमंत्री नरेंद्र ने अपने कई संबोधनों में 'संकट को अवसर' में बदलने की बात कही है और ये महामारी केंद्र के लिए और मोदी प्रशााासन के लिए वाकई किसी अवसर से कम नहीं है.

भारत ने दुनिया के कई देशों की तुलना में अपने यहां कोविड19 के प्रसार को नियंत्रित किया है और अगर आने वाले वक़्त में सरकार इसे क़ाबू में रखने में कामयाब होती है तो यह वैश्विक स्तर पर एक बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी.

हालांकि सरकार के लॉकडाउन के फ़ैसले पर लोगों की राय काफी बंटी हुई है. एक ओर जहां सरकार इसे साहसी क़दम बताती है वहीं एक बड़ा वर्ग मानता है कि पहले लॉकडाउन की घोषणा के पहले लोगों को कुछ वक़्त दिया जाना चाहिए था.

सरकार इस मोर्चे पर सफल रही या नहीं ये कहना जल्दबाज़ी होगी लेकिन यह ज़रूर है कि इस दौरान नरेंद्र मोदी का क़द पहले से बढ़ा ज़रूर है.

वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक स्मिता गुप्ता कहती हैं "जनवरी महीने तक देश के अलग-अलग हिस्सों में प्रदर्शन हो रहे थे. नागरिकत संशोधन क़ानून को लेकर लोग आवाज़ उठा रहे थे. भले ही कोई राजनीतिक दल खुलकर इनके साथ नहीं खड़ा हो रहा था लेकिन अप्रत्यक्ष तौर पर ही राजनीतिक गतिविधि चल रही थी. लेकिन लॉकडाउन और कोरोना वायरस की वजह से इन प्रदर्शनों पर एक तरह से विराम लग गया."

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वो आगे कहती हैं, "दूसरी बात यह हुई कि लॉकडाउन की वजह से इस बात की संभावना भी नहीं रही कि कोई राजनीतिक दल धरना या प्रदर्शन करे. कोई रैली नहीं कर सकता है. ये बात बीजेपी और केंद्र सरकार पर भी लागू होती है लेकिन प्रधानमंत्री जब भी चाहते हैं राष्ट्रीय चैनल और रेडियो के माध्यम से अपनी बात देशवासियों तक पहुंचा लेते हैं. वो जब चाहे तब लोगों को संबोधित कर सकते हैं. ऐसे में प्रधानमंत्री की बात तो लोगों तक पहुंच ही रही है."

वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं कि कोविड 19 के इस दौर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से जुड़ी एक नई चीज़ ज़रूर हुई है.

वो कहती हैं, "प्रधानमंत्री का राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों से मिलना वो भी पांच बार, घंटों-घंटों के लिए, नयी बात है. उन्होंने कहा कि स्टेट्स फ्रंटलाइन वॉरियर्स हैं. तो सही मायने में ये नयी बात है. वरना तीन महीने पहले हम और आप शायद ये सोच भी नहीं सकते थे कि मोदी जो केंद्र में दूसरी बार चुनकर आए हैं ऐसा करेंगे..हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे."

लेकिन नीरजा विकेंद्रीकरण के उलट केंद्रीकरण की बात भी करती हैं.

वो कहती हैं, "यह बात ग़ौर करने वाली है कि केंद्र में प्रधानमंत्री और उनका कार्यालय काफी मज़बूत हुआ है. कहीं भी राजनेताओं की भूमिका नहीं दिखती है. यह सही है कि तमाम मीटिंग्स में हर्षवर्धन, राजनाथ सिंह और अमित शाह बैठे रहते हैं लेकिन आमतौर पर पॉलीटिकल क्लास एकदम बाहर हो गया है. अब सबकुछ पीएम और पीएमओ तक ही सिमट कर रह गया है."

नीरजा कहती हैं कि केंद्र में तो यह मॉडल पहले से ही था लेकिन अब राज्यों में भी कुछ ऐसी ही स्थिति दिख रही है.

वो कहती हैं, "राज्यों में भी सीएम और सीएमओ ही सबकुछ हो गया है. विधायकों का रोल कहीं भी दिख ही नहीं रहा है."

नीरजा कहती हैं जो मोदी मॉडल सेंटर में था अब वो स्टेट्स में भी लागू होता दिख रहा है.

राहुल गांधी

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विपक्ष कमज़ोर नज़र आता है.... देशहित में या मजबूरी में!

कोविड19 केवल मोदी और मोदी सरकार के लिए अवसर नहीं है. विपक्ष के लिए भी है लेकिन कई जगहों पर जहां विपक्ष ने एक गंभीर और सहयोगात्मक विपक्ष होने का प्रमाण दिया है वहीं कई बार विपक्ष कमज़ोर भी नज़र आता है.

महामारी के शुरू होने के बाद से जिन भी विपक्षी दलों की तरफ़ से बयान आए है सबने 'आपसी सहयोग से महामारी से निपटने' की बात ही की है. सभी राजनीतिक दल इसे एक राष्ट्रीय आपदा के तौर पर देख रहे हैं.

लेकिन क्या विपक्ष और ज़िम्मेदारी के साथ सामने आ सकता था?

इस सवाल के जवाब में स्मिता गुप्ता कहती हैं "कांग्रेस पार्टी एक लंबे समय से संकट से जूझ रही है. राहुल गांधी पिछले साल ही अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे चुके हैं और सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष के तौर पर पार्टी का नेतृत्व कर रही हैं. ऐसे में पार्टी ख़ुद में असमंजस की स्थिति में है. पार्टी अनिश्चितता से जूझ रही है."

अगर यह स्थिति ना होती तो संभव है कि और बेहतर तरीक़े से चीज़ें सामने आतीं.

स्मिता कहती हैं, "जो लोग बीजेपी को पसंद नहीं भी करते हैं वो भी मानते हैं कि यह एक नेशनल क्राइसेस है. तो ऐसे में विपक्ष के दल भी बहुत आक्रोशित होकर सामने नहीं आ रहे हैं क्योंकि उन्हें लग रहा है कि इस समय सबको साथ मिलकर इस महामारी से लड़ना चाहिए."

स्मिता कहती हैं "विपक्ष खुलकर नहीं दिख रहा उसका एक बड़ा कारण है कि उनके पास प्लेटफॉर्म ही नहीं है. डिजीटल प्लेटफ़ॉर्म हैं लेकिन क्या उनकी पहुंच उस स्तर की है...?"

हालांकि स्मिता कांग्रेस के सरकार और उसकी नीतियों पर उठाए गए सवालों को कोशिश तो मानती हैं लेकिन यह ज़रूर कहती हैं कि विपक्ष खुलकर अपनी बात नहीं रख पा रहा है क्योंकि बाधाएं हैं.

स्मिता कहती हैं "ये सही है कि विपक्ष के पास रैली..धरना देने और अपनी बात पहुंचाने क विकल्प नहीं है लेकिन विपक्ष को चाहिे कि जिन राज्यों में उनकी सरकार है वहां वो बेहतर काम करें. क्योंकि अगर वो अपने यहां परिस्थितियों को संभालने में कामयब होते हैं तो उन्हें और किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं पड़ेगी."

इस विषय पर नीरजा मानती हैं कि एक बड़ी दुविधा विचारों के लिहाज़ से भी है. वो कहती हैं "अगर इस समय में विरोध करेंगे तो लोग कहेंगे कि ऐसे समय में क्या ज़रूरत?"

संसद के बंद होने को भी नीरजा एक बड़ा कारण मानती हैं.

भारतीय राजनीति का भविष्य

नीरजा कहती हैं कि अभी बात हो रही है ऑनलाइन वोटिंग की.

वो कहती हैं, "भारत में चुनावों के लिहाज़ से बात की जा रही है कि बिहार विधानसभा चुनाव ऑनलाइन हो सकते हैं. ऐसे में यह एक बिल्कुल नया अनुभव होगा क्योंकि ये पहले कभी नहीं हुआ है हमारे देश में. और इसमें मैन्युपुलेट किये जाने की आशंका से भी इनक़ार नहीं किया जा सकता है. लेकिन यहां सोचने वाली बात ये है कि ये संकट कब तक रहेगा ये तो कोई कह नहीं सकता तो क्या भविष्य में बंगाल में, यूपी में भी ऐसे ही चुनाव होंगे? यह सवाल है कि क्या एक नए दौर में हम प्रवेश कर रहे हैं?"

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