किसानों के लिए पांचों उंगलियां घी में और मुंह में शहद का मौका है ये!

लंबे समय से किसानों के हित में जिन सुधारों को किये जाने की मांग की जा रही थी, उन सुधारों को कोरोना काल में मोदी सरकार ने कर दिया है. इससे आने वाले वर्षों में किसानों की आर्थिक सेहत ठीक होगी और वो तकनीक, नई सुविधाओं और नये नियमों को अपने हक में इस्तेमाल कर अपना मुनाफा भी बढ़ा सकेंगे.

Source: News18Hindi Last updated on:May 15, 2020 11:31 PM IST
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किसानों के लिए पांचों उंगलियां घी में और मुंह में शहद का मौका है ये!
वित्‍त मंत्री निर्मला सीतारमण ने आज किसानों के लिए बड़ा ऐलान किया है.
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और उनके जूनियर मंत्री अनुराग ठाकुर ने किसानों, मछुआरों और पशुपालकों पर बड़ा और सकारात्मक असर डालने वाली बड़ी घोषणाएं आज कीं. एक तरफ जहां किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य मिल सके और इसके लिए उन्हें अपनी फसल को अपनी इच्छा के हिसाब से किसी को भी बेचने का अधिकार दिया गया है, तो दूसरी तरफ आवश्यक वस्तु अधिनियम में भी सुधार की तैयारी है, ताकि अनाज से लेकर तिलहन तक की अधिकतम मात्रा रखने के संबंध में जारी प्रतिबंध खत्म हो सके. एक राज्य से दूसरे राज्य में भी खाद्यान्नों का व्यापार अबाध ढंग से हो सकता है. यही नहीं, किसान अब अपनी फसल के लिए फूड प्रौसेसिंग इकाइयों, बड़े व्यापारियों और निर्यातकों से भी आसानी से समझौता कर सकते हैं और खेती में आने वाले खर्च के लिए वो इनकी मदद भी ले सकते हैं. इस व्यवस्था में उनकी तैयार होने वाली फसल के लिए भी रेडिमेड ग्राहक पहले से मौजूद रहेगा और वो भी पहले से दोनों के बीच हुई तय कीमत के मुताबिक.



कृषि क्षेत्र पर बारीक नजर रखने वाले लोग ये मानते हैं कि सरकार के इन फैसलों का दूरगामी परिणाम होगा, खास तौर पर आवश्यक वस्तु अधिनियम में बदलाव, एपीएमसी के जरिये बिक्री की अनिवार्यता को खत्म करना और किसानों को खेती के मामले में निजी क्षेत्र के लोगों से करार करने या फिर उनसे आर्थिक समझौते करने की इजाजत देने से.



देश के सर्वश्रेष्ठ मैनेजमेंट संस्थान आईआईएम अहमदाबाद के प्रोफेसर सतीश देवधर का मानना है कि किसानों को कृषि उत्पाद बाजार समिति यानी एपीएमसी के चंगुल से मुक्ति दिलाना बहुत जरूरी था. देवधर के मुताबिक एपीएमसी में मुट्ठी भर बड़े आढतिये ये तय कर लेते थे कि किसानों को उनकी फसल का क्या मूल्य देना है. किसानों के पास विकल्प नहीं थे. नई व्यवस्था में, जहां किसानों को रियल टाइम पर देश के अलग-अलग बाजारों में किसी भी कृषि उत्पाद का क्या भाव या मूल्य मिल रहा है, इसकी जानकारी अपने मोबाइल पर मिल सकती है. ऐस में वो अपने नजदीक के एपीएमसी में अपनी फसल को क्यों सस्ते में बेचने को मजबूर हों. अब किसान अपनी मर्जी के मुताबिक अपनी फसल को कही भी और किसी को भी बेचने के लिए स्वतंत्र हैं, जो बेहतर कदम है.



आईआईएम अहमदाबाद के प्रोफेसर सतीश देवधर का मानना है कि किसानों को कृषि उत्पाद बाजार समिति यानी एपीएमसी के चंगुल से मुक्ति दिलाना बहुत जरूरी था.




इसी तरह आवश्यक वस्तु अधिनियम के दायरे से अनाज, तिलहन जैसे तमाम कृषि उत्पादों को बाहर निकालना भी विशेषज्ञ अच्छा कदम ही मान रहे हैं. प्रोफेसर देवधर का मानना है कि ये व्यवस्था तब की गई थी, जब देश में आवश्यक वस्तुओं की कमी थी, फसलें कम होती थीं, वैश्वीकरण का जमाना नहीं था और सरकार डर के मारे सामानों का संग्रह नही होने देती थी, उस दौर में जहां अनाज बेचने वाले बनिये समाज के सबसे बड़े खलनायक माने जाते थे, मदर इंडिया फिल्म के बनिये की तरह. देवधर के मुताबिक, जिस समय किसी सामान का उत्पादन नहीं होता है, उस समय अगर स्टॉकिस्ट और बड़े आढतिये उन सामानों को अपने पास संग्रह कर रखते हैं, तो बाजार अर्थव्यवस्था के मुताबिक उसकी कीमत कोई बढ़ेगी नहीं, बल्कि वस्तुओं की प्रचुर उपलबध्ता के कारण उसका मूल्य या भाव कम ही होगा. इसके उलट अभी तक की व्यवस्था में किसानों को किसी साल अपनी फसल सड़क पर फेकनी पड़ती थी, तो किसी साल डर के मारे कम उगाने से मुनाफा कमाने की गुंजाइश नहीं रहती थी.



न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी का रोना रोने को भी विशेषज्ञ ठीक नहीं मानते. इतिहास गवाह है कि सरकारें न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा तो कर देती हैं, लेकिन अगर पूरी फसल को खुद खरीदती ही नहीं हैं, तो फिर उस न्यूनतम समर्थन मूल्य के होने का क्या अर्थ है. उल्टे इससे होता ये है किसान सरकारी खरीद का इंतजार करते-करते अपनी फसल खराब कर लेते हैं और बाद में निराश होकर औने-पौने दाम पर अपनी फसल बेचने को व्यापारियों को मजबूर हो जाते हैं. इससे बेहतर तो यही है कि किसान अपनी फसल का बेहतर मूल्य हासिल करने के लिए एडवांस में ही कांट्रैक्ट फार्मिंग के लिए जाएं, जैसा कि हिमाचल प्रदेश के सेब उगाने वाले किसान करते हैं. पहले ही करार के तहत उन्हें ये पता होता है कि उन्हें अपनी सेब का क्या मूल्य हासिल होने वाला है, जहां से बेहतर प्रस्ताव मिलता है, उस व्यापारी को अपना उत्पाद दे देते हैं. विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार अगर सप्लाई चेन को ठीक कर दे और किसानों को अपने उत्पाद बेचने के लिए जरूरी बुनियादी संसाधन और तकनीकी प्लेटफार्म मुहैया करा दे तो किसान अपना काम खुद कर सकता है.



सरकार की भी यही सोच है और इसलिए कृषि क्षेत्र में आधारभूत ढांचा बढ़ाने पर भी जोर साफ दिख रहा है. प्रधानमंत्री मोदी तो लंबे समय से इसकी वकालत करते ही रहे हैं, उनके प्रधान सचिव पीके मिश्रा को भी इसका भली-भांति अंदाजा है, जो आईएएस की अपनी नियमित नौकरी के आखिरी पड़ाव पर देश के कृषि सचिव के तौर पर ही 2008 में रिटायर हुए थे और उस समय भी किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य मिले, इसके लिए खास व्‍यवस्‍था बनाने पर जोर दिया था. यही वजह है कि चाहे कृषि क्षेत्र में सप्लाई चेन को ठीक करने के लिए जरूरी आधारभूत ढांचा खड़ा करने की बात हो या फिर उत्पाद को बाजार तक पहुंचाने के लिए पहले उसे ढंग से रखना हो, सरकार ने एक लाख करोड़ रुपये का प्रावधान इसके लिए कर दिया है. कोरोना काल में देश की ज्यादातर नदियां साफ-सुथरी हो गई हैं. ऐसे में भारत की सबसे पवित्र नदी का दर्जा हासिल रखने वाली गंगा के दोनों किनारों पर औषधीय गुणों वाले पेड़ों का ग्रीन कवर बन सकता है अगर चार हजार करोड़ रुपये का ढंग से इस्तेमाल हो गया तो. इससे भी बड़ी तादाद में किसानों को फायदा होगा.



भारत से समुद्री किनारों पर रहने वाले मछुआरों के जीवन में बड़ा बदलाव आ सकता है अगर प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना को ढंग से लागू कर दिया गया तो, जिस पर कुल बीस हजार करोड़ रुपये खर्च होने वाले हैं. गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी ने सागरखेड़ योजना ऐसे ही मछुआरों के जीवन स्तर को बेहतर करने के लिए शुरु की थी और अब वही योजना और उन्नत होकर पूरे देश के मछुआरों के कल्याण के लिए लागू होने जा रही है, जब वो देश के पीएम हैं.



दस हजार करोड़ रुपये माइक्रो फूड इंटरप्राइजेज को प्रोत्साहित करने के लिए खर्च होने वाले हैं यानी किसी शहर या जिले की सबसे मशहूर खाने-पीने की चीज देश भर में अपनी छाप छोड़ सकती है, माइक्रो से ग्लोबल हो सकती है. अगर बिहार के संदर्भ में ही देखा जाए तो मिथिलांचन इलाके में पैदा होने वाले मखाने से लेकर सिलांव का खाजा तक लोकल से ग्लोबल की राह पर आगे बढ़ सकता है अपने खास टेस्ट को, क्वालिटी मानकों को ठीक करते हुए और मार्केटिंग की चाशनी के साथ.



आज हुई घोषणाओं का सीधा असर पशुपालन उद्योग पर भी पड़ने वाला है. राष्ट्रीय पशु बीमारी नियंत्रण कार्यक्रम को लांच किया जा रहा है, जिस पर कुल मिलाकर 13343 करोड़ रुपये खर्च करने की योजना है. स्वाभाविक है कि पशुओं को होने वाली मुंह और पैर की बीमारी अगर इससे ठीक हो जाती है, तो उसका सीधा असर उनसे होने वाले फायदे पर पड़ेगा. अगर उदाहरण से समझा जाए, तो गाय और भैंसों में अगर ये बीमारी दूर हो जाती है, तो उनसे मिलने वाले दूध की मात्रा सीधे-सीधे बढ़ सकती है, जिसका सीधा फायदा किसानों को ही होगा.



देश की डेयरी इंडस्ट्री के लिए भी आज का दिन बेहतर साबित हुआ है. गाय और भैंस जैसे पशुओं की सेहत ठीक होने से इस उद्योग को तो फायदा होगा ही, एनिमल हसबैंड्री इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट फंड का भी उसे सीधा फायदा होगा. मोदी सरकार इसके तहत 15000 करोड़ रुपये का विशेष फंड बनाने जा रही है. इस फंड का फायदा उठाकर देश की तमाम डेयरी अपनी प्रोसेसिंग क्षमता को बढ़ा सकती हैं. अगर डेयरी की प्रोसेसिंग क्षमता बढ़ती है, तो इसका सीधा असर रोजगार पर पड़ेगा, ज्यादा लोगों को काम मिलेगा.



दूध के उत्पादन के मामले में भारत दुनिया में सिरमौर है और भारत में दूध से बनने वाले तमाम उत्पादों की मार्केटिंग करने वाली सहकारी क्षेत्र की सबसे बड़ी संस्था है गुजरात मिल्क मार्केटिंग कोऑपरेटिव फेडरेशन यानी जीसीएमएमएफ. जीसीएमएमएफ के एमडी आर एस सोढ़ी बताते हैं कि अगर भारत में मिल्क प्रौसेसिंग की क्षमता बढ़ती है, तो इससे देश के ग्रामीण क्षेत्रों में बिना कृषि पर निर्भरता के बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर सृजित किये जा सकते हैं. सोढ़ी का मानना है कि मिल्क प्रोसेसिंग का मोटा अर्थशास्त्र ये है कि हर एक लाख लीटर की मिल्क प्रोसेसिंग से करीब छह हजार लोगों को रोजगार मिलता है, पांच हजार लोग ग्रामीण क्षेत्र में तो एक हजार लोग शहरी क्षेत्र में रोजगार पाते हैं.



सोढ़ी का मानना है विशेष फंड का फायदा उठाकर तेजी से मिल्क प्रोसेसिंग कैपेसिटी को बढ़ाया जा सकता है और कोरोना बाद के दौर में जहां लाखों मजदूर अपने गांवों में पहुंचे हुए हैं, उन्हें वहीं पर तेजी से रोजगार भी मुहैया कराया जा सकता है. आसानी से तीस लाख लोगों को ग्रामीण क्षेत्रों में इस तरह से रोजगार दिया जा सकता है.



डेयरी सेक्टर के लिए एक और अच्छी खबर वित्त मंत्री ने दी है. वो ये कि सरकार डेयरी सेक्टर में काम करने वाली सहकारी समितियों को दिये गये कर्ज में दो फीसदी ब्याज का भार खुद वहन करेगी, यानी अगर किसी दूध सहकारी संस्था ने सात फीसदी की दर से ब्याज ले रखा है, तो उसे पांच फीसदी ब्याज के हिसाब से ही रकम चुकानी होगी, दो फीसदी का बोझ इस वित्त वर्ष के दौरान खुद केंद्र सरकार वहन करेगी. ऐसा इसलिए किया जा रहा है क्योंकि कोरोना की वजह से हुए लॉकडाउन में दूध की मांग राष्ट्रीय स्तर पर बीस से पचीस फीसदी कम हो गई है और इससे किसानों को कोई नुकसान नहीं हो, इसके लिए सरकार ने ये विशेष प्रावधान किया है. इसकी वजह से करीब पांच हजार करोड़ रुपये ज्यादा सहकारी संस्थाओं के हाथ में आएंगे और जिसका फायदा देश के करीब दो करोड़ किसानों को होगा, जो सहकारी दूध मंडलियों से जुड़े हुए हैं.



हालांकि मजे की बात ये है कि लॉकडाउन में भी अगर आप अपना सप्लाई चेन ठीक रखें और इसे बेहतर ढंग से मैनेज कर सकें तो आप लॉकडाउन का भी फायदा उठा सकते हैं. जीसीएमएमएफ ने ये रास्ता भी दिखाया है. इस संस्था के एमडी आरएस सोढी के मुताबिक पचास दिन के लॉकडाउन में अमूल ने पैंतीस लाख लीटर ज्यादा दूध किसानों से लिया है, क्योंकि लॉकडाउन की वजह से घरों में बंद लोग ज्यादा दूध का इस्तेमाल करने लगे हैं. इसकी वजह से जीसीएमएमएफ ने पचास दिन में आठ सौ करोड़ रुपये का अतिरिक्त दूध किसानों से खरीदा है और इस दौरान कुल मिलाकर छह हजार करोड़ रुपये नकद में किसानों को दिया गया है उनकी दूध की कीमत के तौर पर.



जीसीएमएमएफ संस्था के एमडी आरएस सोढी के मुताबिक 50 दिन के लॉकडाउन में अमूल ने पैंतीस लाख लीटर ज्यादा दूध किसानों से लिया है.




ये उदाहरण बताता है कि अगर कोरोना जैसी मुसीबत भी आ जाए, तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा अप्रभावित रह सकता है और गांव के किसान अपना दूध बेचकर ज्यादा मुनाफा कमा सकते हैं. विशेष फंड की मदद से न सिर्फ मिल्क प्रोसेसिंग की क्षमता बढ़ेगी, बल्कि पशुओं को दी जाने वाली खली का निर्माण करने वाली फैक्ट्रियों की तादाद भी बढ़ेगी, जिसका फायदा किसानों को ही होगा, वो अपनी गायों और भैसों से ज्यादा दूध हासिल कर पाएंगे.



वित्त मंत्री की आज की घोषणाओं में एक और खास बात रही. वो ये कि मधुमक्खी पालन के लिए करीब पांच सौ करोड़ रुपये की व्यवस्था करने का. दूसरी घोषणाओं और योजनाओं की तुलना में ये घोषणा और इससे संबंधित योजना छोटी है. लेकिन इसके परिणाम दूरगामी होंगे. दरअसल ज्यादातर लोग इसे महज शहद उत्पादन से जोड़कर देखते हैं, लेकिन इसका दायरा बड़ा है.



ज्यादातर लोगों को ये पता नहीं कि किसी भी फसल को बेहतर करने में, चाहे वो सरसों की फसल हो या फिर नारियल, लीची, सेब जैसे फल या फिर ज्यादात सब्जियां, उनकी बेहतर पैदावार में मधुमक्खियों की बड़ी भूमिका होती है. इन फसलों में क्रॉस पॉलिनेशन का काम ये मधुमक्खियां ही करती हैं, जिसकी वजह से इनसे हासिल होने वाला उत्पाद बेहतर होता है. शायद इसीलिए मशहूर वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था कि अगर धरती से मधुमक्खियां खत्म हो गईं, तो अगले पांच साल में मानव सभ्यता भी खत्म हो जाएगी.



सरकार की पांच सौ करोड़ रुपये की इस योजना का फायदा दो लाख से भी अधिक किसानों को हो सकता है. ध्यान रहे कि मधुमक्खियों से शहद प्राप्त होता है, ये तो सब जानते हैं, लेकिन इनसे हासिल होने वाले बाकी उत्पाद तो शहद से भी महंगे हैं.



केवीआईसी के अध्यक्ष विनय कुमार सक्सेना मधुमक्खी पालन को लगातार बढ़ावा दे रहे हैं.




केवीआईसी के अध्यक्ष विनय कुमार सक्सेना तो पिछले दो साल से मधुमक्खी पालन के अभियान को बढ़ावा देने में लगे हैं.खादी और ग्रामोद्योग आयोग यानी केवीआईसी के अध्यक्ष विनय कुमार सक्सेना तो पिछले दो साल से मधुमक्खी पालन के अभियान को बढ़ावा देने में लगे हैं. जम्मू-कश्मीर के कुपवाड़ा से लेकर बिहार तक वो लगातार किसानों को हनीबी बॉक्स बांट रहे हैं, जो उसकी असली कीमत के दसवें हिस्से में यानी महज चार सौ रुपये में किसानों को दी जाती है. सक्सेना के मुताबिक मधुमक्खियों से प्राप्त होने वाला शहद तो चार सौ से छह सौ रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से बिक जाता है, लेकिन उनके छत्ते से हासिल होने वाला वैक्स तो छह सौ से आठ सौ रुपये किलो तक बिकता है, जिसका इस्तेमाल ब्यूटी पार्लर में महिलाओं की त्वचा चमकाने में होता है. यही नहीं, शहद के बॉक्स में, जो दाने पोलन के तौर पर गिर जाते हैं, उनका भाव 1200 से 1300 रुपये प्रति किलोग्राम का होता है.



विनय कुमार सक्सेना जम्मू-कश्मीर के कुपवाड़ा से लेकर बिहार तक किसानों को हनीबी बॉक्स बांट रहे हैं.




लेकिन मधुमक्खी पालन के फायदे यही खत्म नहीं होते. चांदी की कीमत के आधे जैसा भाव रॉय जेली का मिलता है, जो बीस से पचीस हजार रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से बिकती है. सबसे बड़ी बात, उस बी वेनम का भाव एक करोड़ रुपये प्रति किलोग्राम है, जो मधु मक्खियों से ही हासिल होता है, सोने से भी दोगुना भाव है इसका. इस पदार्थ का इस्तेमाल कैंसर की दवा बनाने के लिए होता है. यानी आम तो आम गुठलियों के दाम, वो भी डबल गोल्ड की कीमत जैसे. उम्मीद यही की जानी चाहिए कि कोरोना काल में किये जा रहे इन बड़े आर्थिक सुधारों से किसान की पांचों उंगलियां घी में होंगी, शहद के इतने बड़े फायदे सुनकर मुंह में शहद तो अपने आप आ जाएगा.



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(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)
ब्लॉगर के बारे में
ब्रजेश कुमार सिंह

ब्रजेश कुमार सिंह

लेखक नेटवर्क18 समूह में मैनेजिंग एडिटर के तौर पर कार्यरत हैं. भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली से 1995-96 में पत्रकारिता की ट्रेनिंग, बाद में मास कम्युनिकेशन में पीएचडी. अमर उजाला समूह, आजतक, स्टार न्यूज़, एबीपी न्यूज़ और ज़ी न्यूज़ में काम करने के बाद अप्रैल 2019 से नेटवर्क18 के साथ. इतिहास और राजनीति में गहरी रुचि रखने वाले पत्रकार, समसामयिक विषयों पर नियमित लेखन, दो दशक तक देश-विदेश में रिपोर्टिंग का अनुभव.

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First published: May 15, 2020 10:54 PM IST

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